31 मई 2012

कहत कबीर सुनो भाई साधो - जपो सोहंग सोहंग

होत आनन्द आनन्द भजन में ।
बरसात शबद अमी की बङेर । भीजत है कोई सन्त । 1
अगर वास जहाँ तत्व की नदियाँ । मानों अठारह गंग । 2
कर अस्नान मगन होय बैठे । चढत शबद के रग । 3
पियत सुधारस लेत नाम रस । चुवत अगर के बूँद ।  4
रोम रोम सब अमृत भीजे । परस परसत अंग । 5
स्वांसा सार रचे मोरे साहिब । जहाँ न माया मोहंग । 6
कहें कबीर सुनो भाई साधो । जपो सोहंग सोहंग । 7
साखी नाम नरायन । जगत गुरु करे बोध संसार ।
वचन प्रताप से उबरे । भवजल में कङिहार ।
आपका - निर्मल बंसल । भिलाई
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कबीर साहब के इस भजन को भेजा है । हमारे शिष्य निर्मल बंसल ने । जिन लोगों ने किसी सच्चे आत्म ज्ञानी सन्त या सदगुरु से नाम दान ( उपदेश या नाम दीक्षा या हँस दीक्षा ) नहीं लिया है । वे इस भजन का आनन्द 
और गू्ढ अर्थ कभी नहीं समझ सकते । यहाँ एक और खास बात है । जिन्होंने हँस दीक्षा का ये नाम या महा मंत्र - सोहंग..कहीं से ले रखा है । और सालों नाम कमाई भजन अभ्यास के बाद उन्हें इस भजन में वर्णित आनन्द प्राप्त नहीं हुआ । तो ये सबसे बङी पहचान है कि - उन्होंने सच्चे सतगुरु से नामदान लिया ही नहीं । मेरा मानना । या कहिये अनुभव है । कम से कम 3 और अधिक से अधिक 6 महीने में आपको इस भजन में वर्णित आनन्द अनुभव होना चाहिये । बशर्ते आपने भजन अभ्यास ठीक से किया हो । और अपनी कमियों को लगातार दूर करते हुये किसी सच्चे और अनुभवी मार्गदर्शक से सलाह ली हो । गुरु में समर्पण । उनसे बातचीत विनय प्रार्थना । और मौका मिलते ही यथासंभव उनके दर्शन से यह स्थिति बहुत जल्दी प्राप्त होती है । क्योंकि ये आपके प्रयास से नहीं । गुरु कृपा के आशीर्वाद से प्राप्त होती है - यह गुन साधन से नहीं होई । तुम्हरी कृपा पाये कोई कोई ।
आईये भजन का गूढ अर्थ जानते हैं । होत आनन्द आनन्द भजन में । भजन का सही अर्थ है । जब मन का भागना बन्द हो जाये । मन ठहर जाये । कहा है - मन की तरंग मार लो । बस हो गया भजन । आप मन को योग के बिना किसी युक्ति से नहीं ठहरा सकते । शरीर का निर्माण ओहम ॐ से हुआ है । मन का निर्माण - 
सोहंग से हुआ है । सोहंग जप की निरंतर रगङ से यह मन मर जाता है । काबू हो जाता है । या कहिये ठहर जाता है । बरसात शबद अमी की बङेर । भीजत है कोई सन्त । इस शब्द ( निर्वाणी धुन रूप सोहंग या फ़िर ऊपर की मंजिलों में प्रकट हुआ झींगुर की ध्वनि जैसा शब्द ) ध्वनि को निरंतर सुनने से अमृत ( अमी ) की बरसात होती है । इसमें ऐसा अनुभव होता है । जैसे पूरे शरीर तन मन दिलो दिमाग में मधुर आनन्ददायी शीतलता छा गयी हो । एक अजीव अवर्णनीय आनन्द से तन मन झूम उठता है । यह सिर्फ़ कोई कविता नहीं लिखी है । गहन ध्यान के अभ्यासी को बिना पानी के ही ऐसी अदभुत बरसात का आनन्द अनुभव होता है । भीजत है कोई सन्त । इसका आनन्द सन्त होने पर ही प्राप्त होता है । साधारण जीवों को कभी नहीं । सन्त से यहाँ मतलब है । सतनाम दीक्षा प्राप्त । परमात्मा या साहेब के भक्त । न कि झोली झोला वाले दाङी वाले भिखारी छाप बाबा ।
अगर वास जहाँ ( चन्दन की सुगन्ध ) तत्व की नदियाँ । मानों अठारह गंग की तरह बह रही हैं । कहने का अर्थ - ध्यान में आपको दिव्य सुगन्धों का स्पष्ट आनन्द आता है । आप जो सांसारिक चन्दन की सुगन्ध जानते हैं । यह उससे बहुत अलग है । भजन अभ्यास में कई तरह की सुगन्ध की अनुभूति होती है । यहाँ तक कि परफ़्यूम के इस्तेमाल की भांति बाद में भी आपके वस्त्रों से आती रहती है ।
कर अस्नान मगन होय बैठे । चढत शबद के रग । सीधी सी बात है । इस आसमानी शबद के रंग में रंगते हुये इस स्नान द्वारा कौन ऐसा है । जो मगन नहीं हो जायेगा ? ऐसा कोई मूर्ख ही होगा ।
पियत सुधा रस लेत नाम रस । चुवत अगर के बूँद । नाम रसायन के साथ सुधा यानी अमृत रस का आनन्द लेते हुये चन्दन ( अगर ) की बौछारों का स्नान । रोम रोम सब अमृत भीजे । परस परसत अंग । शरीर का रोम रोम मानों नहीं बल्कि वास्तव में अमृत से भीग उठता है - सतगुरु हमसे रीझ कर कहया एक प्रसंग । बरस्या बादल प्रेम का भीज गया सब अंग । इस शब्द का स्पर्श ( परस ) होते ही ।
स्वांसा सार रचे मोरे साहिब । जहाँ न माया मोहंग । ये सार आनन्द परमात्मा ( साहेब ) ने कहाँ रचा है ? स्वांस में । सारा रहस्य छुपा है - स्वांस में । सिर्फ़ यह ही एकमात्र वो जगह ( शरीर में ) है । जहाँ माया मोह नहीं है । माया मोह ( माया महा माया आदि प्रेरित ) कहाँ से होगा । जब माया का हसबैंड ही स्वांस जाप से काबू में हो जाता है । उसकी नकेल ही हाथ में आ जाती है ।
कहें कबीर सुनो भाई साधो । जपो सोहंग सोहंग । यहाँ 1 खास बात कहना चाहूँगा । आप हिन्दू । मुसलमान । सिख । ईसाई । अंग्रेज । दुनियाँ के किसी भी जाति धर्म देश आदि से कुछ भी हों । 4 सेकेंड में पूरी होने वाली 1 स्वांस - सो ( अन्दर जाना = 2 सेकेंड ) हंग ( बाहर आना = 2 सेकेंड ) लेकर देखिये । यही अजपा जप संसार के प्रत्येक मनुष्य के अन्दर स्वयं हो रहा है । और इसी में सभी रहस्य । अमरता । जीवन सार । अलौकिक ज्ञान । मोक्ष आदि सब कुछ है । बाकी तो आप कूङा ही बटोर रहे हो । इसलिये कबीर साहब कह रहे हैं - जपो सोहंग सोहंग । मतलब इसी स्वांस पर पूरा ध्यान लगा दो । फ़िर देखो मजा । थम्स अप ! टेस्ट द थंडर । यही साखी ( साक्षी ) नाम ( निर्वाणी नाम या शब्द ) जगत में भगवान से मिलाने वाला है । गुरु करे बोध संसार । ( सच्चे ) गुरु ( ही ) इसका बोध कराते हैं । इस नाम को परमात्मा के वचन  का प्रताप है । भवजल में कङिहार । इस संसार सागर में कङिहार या बन्दी छोर गुरु द्वारा । साहेब ।

30 मई 2012

मुझे क्या शर्म सॉरी


मैं -  हेलो ..हेलो  मैं कुलश्रेष्ठ आगरा से बोल रहा हूँ । आप भगवान जी ही बोल रहे हैं ? मैं आपका भक्त बोल रहा हूँ ।
भगवान -  हेलो । हाँ  मैं भगवान ही बोल रहा हूँ । परंतु अपना पूरा परिचय तो दो । मेरे मोबाइल मैं तुम्हारा फोन नंबर फीड नहीं है । बताओ तो । मेरे तो असंख्य भक्त हैं ।
मैं - अरे भूल गए क्या ? महाराज जी भगवान जी । ऐन वही भक्त जो आफिस आगरा में काम करता था । तब आपने ही मुझे फोन मिलाया था । और आपने तमाम शंकाओं का निवारण किया था । उस समय मैं रिटायरमेंट के करीब था । अब रिटायरमेंट हुए करीब 2 वर्ष हो गए हैं । अब मैं आफिस के तमाम कार्यों और टेंसनों से फ्री हूँ । मैंने 1 बार और भी आपको फोन मिलाया था । परंतु बार बार यही मैसेज आ रहा था - द फोन नंबर टू विच यू वांट टू टाक इज करंटली स्विच आफ । जिस वोडा फ़ोन से आप बात करना चाहते हैं । उनसे अभी बात नहीं हो सकती । आज बङी मुश्किल से मिला है । मैं रिटायरमेंट के बाद आगरा में ही रह रहा हूँ । मेरी पत्नी केंसर से बीमार हुई । और 1 साल बाद उसे आपने अपने पास बुला लिया । अर्थात उसका निधन हो गया । इसे दुर्घटना कहें । या घटना । कुछ समझ नहीं आता है । हाँ 1 खालीपन सा आ गया है । उसमें तमाम विचार आए गए । और आ भी रहें हैं । 
तमाम  जिज्ञासाएँ इकट्ठी हो गयी । तो  सोचा । आपसे पूछ कर कुछ ज्ञान प्राप्त करूँ । आपको याद है कि मेरी छोटी सी रोजाना की पूजा से प्रसन्न होकर पिछली बार आपने फोन किया था । और अब और अधिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए मैंने मिलाया है ।
भगवान - ओह आई एम सॉरी फॉर योअर ट्रबुल । इतना समझ लो कि - जो भी मैंने संसार में भेजा है । उसे संसार छोडना तो पड़ता ही है । यह रीति है कि पति और पत्नी में से किसी को भी पहले छोडना पड़ता है । मैंने तो गीता मैं पहले ही अर्जुन के माध्यम से शंकाओं का सभी तरह से निबारण कर दिया है । तुम प्राप्त ही न करना चाहो । तो मैं क्या करूँ ?
मैं - भगवान गीता में जो कुछ भी ज्ञान अपने दिया है । वह तो बहुत कठिन है । मेरी समझ में तो क्या विद्वानों की भी समझ से परे है । यह बात अलग है कि अलग अलग विद्वानों ने अपने विचार से आपकी बात को अपनी अपनी तरह से कहा है ।
भगवान - अच्छा ! तो कहो । तुम्हें और क्या क्या पूछना है ? क्या घूम रहा है । तुम्हारे मन में ?
मैं -  मैं तो इस दुनियाँ में देखता हूँ कि - 1 नहीं करोड़ों व्यक्ति कहते हैं कि आप 1 नहीं अनेकों हैं । यह कैसे संभव है ? अब देखो । उस दिन भी आप ही बात कर रहे थे । और आज भी आप ही बात कर रहे हैं । इस तरह मैं तो
समझता हूँ कि आप 1 ही हैं । फिर भी लोग कहते हैं कि यह मंदिर शिवजी का है । यह मस्जिद अल्लाह की है । यह मंदिर राम जी का है । यह चर्च लार्ड क्रिष्ट का है । यह मंदिर देवी जी का है । । आखिर कार आप कितने हैं ?
भगवान -  सच तो यह है कि मैं तो 1 ही हूँ । पृथ्वी पर अनेकों रूप अनेकों भगवान तो आप लोगो ने बना दिये । रखे  हैं । तुम लोगों ने मेरे बारे में जितनी भी कल्पनाएं कर रखीं हैं । बे सब निराधार हैं ।
मैं - मैं ऐसा कैसे मान लूँ ? प्राचीन पुस्तकों पुराणों में लिखा है कि - देवता अनेकों हैं । यह सब क्या चक्कर है ? क्यों आपने हम सबको चक्कर में डाल रखा है ? कभी सोचता हूँ कि आप 1 ही हैं । तो कहीं और मंदिरों में जहाँ कई कई नाम के देवता विराजमान होना बताए जाते हैं । मैं क्यों जाऊँ ? क्यों भटकूँ ? और जब सोचता हूँ कि आप राम भी हैं । आप कृष्ण भी हैं । आप दुर्गाजी भी हैं । आप हनुमान भी है । आप जीसस क्रिष्ट भी हैं । तो सबको पूजने मनाने के लिए कभी मंदिर । कभी मस्जिद । कभी चर्च । कभी गुरु द्वारा जाता हूँ । और आपको देखने के लिए जाता हूँ । लेकिन मिलते कहीं भी नहीं हैं । हमारी तो बुद्धि ही चक्कर खा जाती है ।
भगवान -  कोई चक्कर नहीं है । केवल भृम है । मति भृमित हो गए हो । सच बात जान लो कि मैं 1 हूँ । और केवल 1 हूँ । अनेक नहीं । पहले तो ईश्वर और देवता में अंतर समझो । भृम तो तुम लोगों ने खुद पैदा किए हैं । क्योंकि अपने को बहुत ज्यादा बुद्धिमान होशियार समझते हो । और लोगों को दिखाना चाहते हो कि - मैं बहुत होशियार हूँ । तभी तो सरल बात को भी क्लिष्ट बनाते रहे हो । और दोष मुझे देते हो कि मैं मिलता नहीं हूँ । क्या कभी सुबह सुबह बाग में गए हो । वहाँ - घास की ओस में । ठंडी हवा के झो्कों में । चिड़ियों के चहचहाने में ।
नदी झरनों के कल कल करके बहने में । मुझे देखने का प्रयत्न किया ? नहीं किया । देवता का अर्थ है । वह व्यक्ति जिसमें दिव्य गुण हों । यदि कोई व्यक्ति अपने अबगुणों को अपनी भूलों को देखे न कि औरों के अबगुणों को । तो उस व्यक्ति के समस्त अबगुण धीरे धीरे समाप्त हो जाएंगे । और वह “ देवता ” बन जाएगा । देवता का अर्थ है - महा पुरुष । लेकिन महा पुरुष भी पुरुष ही होते हैं । लेकिन “ पुरुष ” कभी भी “ ईश्वर " नहीं हो सकता  है । ईश्वर 1 ही है । और वह मैं ही हूँ । ईश्वर अर्थात मैं 1 शक्ति हूँ  । अब मेरे बारे में जान लो । मेरा न कोई रूप है । न कोई रंग है । न गुण है । न अवगुण । न पुरुष । न स्त्री हूँ । मैं 1 शक्ति हूँ । जो निश्चित नियमों के तहत तुम्हारी पृथ्वी ही नहीं । बल्कि सम्पूर्ण अंतरिक्ष का नियंत्रित करती है । तुम लोग देख ही नहीं पाते हो । वह शक्ति तो मैं तुम्हारे अंदर ही हूँ । इस संसार में लोभ । मोह । भृष्ट आचरण । शोक । झूठी खुशी से मिलकर तुम्हारी आँखों में बने “ मोतिया बिंदु ” ने तुम लोगों की दृष्टि पर ऐसी गन्दी पर्त जमा दी है । जिससे तुम लोगों को मेरी परम शक्ति का ज्ञान ही नहीं होता है । तुम लोग “ देवता ” शब्द का अर्थ “ ईश्वर ” से लगाते हो । मैं तो इस संसार मैं व्याप्त होकर नियंता हूँ । सनातन हूँ । सर्व व्यापी हूँ । सर्व शक्तिमान । सर्व ज्ञानी हूँ ।
मैं - भगवान जी आप कहते है कि - आप सर्व व्यापक हैं । सर्व विधमान हैं । आप दुनियाँ के सैकड़ों देशों में 1 साथ कैसे विधमान रहते हैं ?
भगवान -  हाँ मैं कह तो रहा हूँ कि - मैं व्यापक हूँ  । मेरे लिए कोई देश परदेश नहीं है । महा द्वीप ।  देश । प्रदेश । जिले । तहसील । गली । मोहल्ले तुम लोगों ने बनाए है । मैंने नहीं । मैंने तो तुम सबको 1 दुनियाँ प्यार से रहने के लिए दी थी । नदियां दिये । पहाड़ दिये । झरने दिये थे । तुम लोगो ने धरती के टुकड़े टुकड़े करके उनके नाम रख लिए । और अभी भी नाम रखना बंद नहीं किया । रोज नए देश बना रहे हो । और इसके लिए खून खराबा भी करते हो । मेरे लिए दुनियाँ का हर प्राणी । चाहे वह इंसान हो । चाहे वह जानवर हों । पक्षी हो । कीट पतंगा हो । सभी 1 समान हैं । सभी मेरे हैं । और मैं सभी के अंदर हूँ । तुमको तो केवल इतना करना है कि मुझे अपने अंदर देखो । 1 शक्ति के रूप में । चूंकि मैं 1 शक्ति हूँ । इसलिए सर्व विधमान हूँ । सर्व व्यापक हूँ । कुछ समझे ?
मैं - क्या कहा । सभी आपको प्रिय हैं ? क्यों आडंबर पूर्ण बात करते हो । भगवान होकर ? मैं मानता हूँ कि आप सर्व शक्तिमान हैं । परंतु आपका यह कहना कि हम सब आपके हैं । सभी आपको प्रिय हैं । ऐसा तो नहीं हैं । आप ही देखिएगा । कोई बच्चा जन्म लेता है । नेत्र हीन के रूप में । कोई पैदा होते ही - लूला । लंगड़ा । ,कोई 2 सिर वाला । कोई 1 बच्चा चाहता है स्वस्थ । लेकिन पैदा होते हैं - दो । तीन । चार । पाँच । लेकिन अस्वस्थ । उनमें या तो सब मर जाते हैं । या 1-2 जिंदा रह पाते हैं । कोई उभय लिंगी पैदा होता है । जो जीवन भर न जीता है । न मरता है । अपमान की जिंदगी जीता है । मैं जब डाकघर का इंस्पेक्टर था । और  1 गाँव में इंस्पेक्सन करने गया । तो देखा कि एक दरबाजे पर 1 छोटी लड़की जिसकी गोद में उसका उससे छोटा भाई था को खि्ला रही थी । मुझे यह ख्याल आया कि यह लड़की अपने भाई को नहीं  देख सकती है कि उसका भाई गोरा है । या काला है । कैसा है ? सुंदर है कि नहीं । वह खुद भी शीशे में नहीं देख सकती है कि वह खुद कैसी है ? सुंदर है । या नहीं ? कहीं देखने को मिलता है कि लड़की की शादी हुए महीने 2 महीने नहीं हुये । और उसका पति मर गया । लड़की अभिशाप का जीवन गुजार रही है । और समाज उसे ताने देता है । जो सास उसको घर की लक्ष्मी कहती थी । वही यह कहकर घर से निकाल देती है कि तूने मेरा बेटा खा लिया । डायन । निकल जा घर से ।,किसी  बूढ़े  माँ बाप का आँखों का तारा कैंसर से मर गया । जबकि वह  स्कूल में पढ़ता था । कहाँ तक गिनाऊँ । दुखद मामले । फिर भी आप कहते हैं कि - आप दयालु हैं । आप न्याय प्रिय हैं । न्याय करते हैं । आपको सब प्रिय हैं । यह सब क्या है ? मुझे तो कुछ भी समझ नहीं आता है ।
भगवान -  मैं दयालु भी हूँ । और न्यायकारी भी हूँ ।
मैं - हद हो गयी भगवान जी । चोरी और सीना जोरी । नव विबाहिता का पति उठा लिया । बूढ़े माँ बाप का लाड़ला छीन लिया । किसी बच्चे को अंधा पैदा किया । कई गर्भवती औरतें एक्सीडेंट में मर जाती है । आपने 1 बच्चे के नए जीवन की शुरुआत की । लेकिन जीवन शुरू होने से पहले ही उसे पेट में ही मार दिया । आसाम में बृह्मपुत्र नदी में नाव पलटी । तो सैकङों लोग बच्चे डूव गए । उनमें 1 बालक के माँ बाप मर गए । और वह बच्चा जिसका कोई नहीं रहा । वह आकाश में निहार रहा था । यह तो कुछ उदाहरण हैं । फिर भी आप दयालु और न्यायकारी हैं ? लगता है । आपके ऊपर कोई नहीं है । अतः आप भी निरंकुश हो गए हैं । जबर मारे । और रोने भी न दे ।
भगवान -  लगता है । नौकरी से रिटायर हो गए ।  इतना अनुभव पाया । लेकिन रिटायरमेंट के साथ ही ऑफिस का जो चार्ज सौंपा । उसी में अक्ल भी दे आए । इसीलिए तो अक्ल से सोच नहीं सकते हो । और जो चाहे । बोल देते हो । जो चाहे । कहे जा रहे हो । मत भूलो । आखिर मेरी भी बर्दाश्त करने की कोई सीमा है कि नहीं ? पहले सॉरी बोलो । तब बताऊँगा ।
मैं - अरे ! आपसे सॉरी बोलने में क्या जाता है । मैं अगर महसूस करूँ कि मेरी गलती है । तो मैं इंसान के सामने कान पकड़ कर सॉरी बोल देता हूँ । तो आपके सामने मुझे क्या शर्म ? लो बोल दिया - सॉरी । सॉरी । सॉरी । लेकिन बताना ऐसे । जो मेरे पल्ले पड़ जाये ।
भगवान - तो समझो । न्याय और दया में बहुत मामूली सा फर्क है । हालांकि दोनों से प्रयोजन तो 1 ही सिद्ध होता है । जिसे तुम मेरे द्वारा दी गयी तकलीफें गिना रहे हो । बे मेरे द्वारा दिये गए दंड हैं । समझो कैसे । दंड क्यों दिया जाता है ? इसलिए ताकि तुम लोग । जो तकलीफ़ें पाये हैं । बे दंड के डर से पुनः  अमानवीय कर्म न करें । ये दण्ड अलार्म हैं कि अब आगे दूसरों को दुख देने से बचो । मैं अगर 1 को दण्ड देता हूँ । तो हजारों के लिए सबक होता है । यदि 1 को कठोरतम दण्ड देने से लाखों लोगों के कष्टों को बचाया जा सके । तो यह दया ही तो हुई । जिसने बुरे कार्य अपराध किए । उसको दंड न दिया जाय । तो दया का दुरुपयोग होगा । सैंकड़ों निरपराध लोग उस अपराधी से दुखी रहेंगे । जैसे कि - रावण । कंस । दादा ईदी अमीन उगांडा का । सद्दाम हुसैन ईराक का  । पल पोत कंबोडिया का आदि । 1 डाकू के मार दिये जाने से लाखों लोग भय मुक्त हो जाते हैं । तो क्या यह न्याय नहीं है ? क्या ऐसों के साथ दया करनी चाहिए ?
मैं - आपकी बात कुछ समझ तो आई । परन्तु यह बात समझ नहीं आयी कि जिन्होंने इस संसार में आने के बाद जुल्म अपराध किए । तो उन्हें दंड दिया गया । लेकिन जो इस संसार में आए ही नहीं । जबकि आपकी मर्जी से ही उसे दुनियाँ में आना था । फिर दुनियाँ में आने से पहले ही मार दिया गया । क्यों ?
भगवान -  तुम लोगों ने जो फिजिक्स । केमिस्ट्री । मैथ्स आदि विषय बना लिए हैं । मगर मेरे मैथ्स और अकाउंटेंसी तुम लोग नहीं जान सकते हो । क्योंकि मेरे यहाँ जो चित्रगुप्त जी जो हैं । वो कंप्यूटर सिस्टम मैंनेजर है । वह M C A और C A दोनों की मास्टर डिग्री होल्डर है । और दुनियां के सभी प्राणियों के अच्छे और बुरे कर्मों का लेजर रखते हैं । उनको यह निर्देश हैं कि अच्छे कार्यों और बुरे कार्यों के विवरण की टिप्पणी  सहित ही पर्सनल फाइल मेरे सामने रखा करें । हर किसी को अच्छे कार्यों के लिए सुख के रूप में इनाम और बुरे कार्यों के लिए दंड का प्राबधान है । हमारे यहाँ समायोजन नहीं होता है । इस बात को ऐसे समझो कि - फूलन देवी ।  A  राजा को ही ले लिया जाय । उन्होने जो अच्छे  कार्य किए । उनके लिए उन्हें M P जैसा सम्मान जनक पद मिला । और जो उन्होने बुरे कार्य किए । उनके लिए उन्हें जेल भी जाना पड़ा । जो कि अति असम्मान जनक जगह है । यहाँ रहना पड़ा । क्या अभी भी पल्ले नहीं पड़ा ?
मैं -  हाँ ! पल्ले पड़ा तो है । पर आपने तो अपने को इतना उलझा कर रखा है कि आप तो बस ऊन की उलझी लच्छी की तरह हैं । जितना सुलझाओ । उतना ही उलझते जाते हैं । अच्छा ये बताईये कि आप साकार है ? या निराकार ? क्योंकि कोई कहता है कि - आप साकार हैं । बहुत से कहते हैं कि आप निराकार हैं । सही क्या है ? जब आप मुझसे  मोबाइल पर बात कर रहे हैं । तो मुझे लगता है कि आप साकार हैं । पिछली बार भी आपने  मोबाइल पर बात की थी । तो साकार हुये । लेकिन हर किसी ने खूब कोशिश कर ली । आपको देखने को पाने के लिए । परन्तु आज तक देखा किसी ने नहीं । तो फिर आप निराकार हुये ।  C ++ तथा जावा जैसी कठिन भाषाओं की तरह न समझाएँ । कृपया सरल भाषा में बतायें ।
भगवान -  1 बात समझ लो कि जहाँ तुम लोगों की सारी शक्ति मुझे  समझने में समाप्त हो जाती है ।  सारे विश्लेषण सारे तर्क समाप्त हो जाते है । वहीं से मैं शुरू होता हूँ । तुम सबको लगता है कि मैं साकार हूँ । परन्तु सच यह है कि मेरा कोई आकार नहीं । मैं तो 1 परम शक्ति हूँ । क्या वायु को तुमने शरीर रूप में देखा है । क्या वर्षा को शरीर रूप में देखा है ? क्या गर्मी को शरीर रूप में देखा है ?
मैं - नहीं ।
भगवान - तो फिर तुम लोगों ने क्यों - वायु वर्षा  गर्मी आदि को देवता मानकर । इनको मुझे मानकर और इनके पवनदेव सूर्यदेव इंद्रदेव आदि नाम देकर मुझे साकार मान लिया है और मान लेने में ही तो सब  गडबङ है । आँख बंद कर सब कुछ मान लेने की बजाय तर्क से जानने की कोशिश करते नहीं हो तो मैं क्या करूँ । हरियाली बसंत में तरह तरह के फूल  । शीतल वायु । पछियों के कलरव । अच्छे लगते हैं और आँधी । तूफान । वाढ आदि तुमको दुखी कर देते हैं । ये सब मेरी ही शक्तियाँ हैं । जो मेरे ही बनाए परम शाश्वत नियमों के आधार पर दिन रात कार्य करते रहते है । यह सोचे विना कि इनसे किसी का नुकसान होगा । या लाभ । ये सब उसी तरह होती हैं । जैसे 1 साकार व्यक्ति करता है । इसीलिए तुम सबको लगता है कि - मैं साकार हूँ । क्योंकि मेरे बारे में प्रथ्वी पर तमाम लोगों ने मेरे बारे में बहुत सी कल्पनाएं की । और उन कल्पनाओं को पत्थर । कागज । लकड़ी आदि पर चित्रों के माध्यम से शरीर रूप दे दिया ।

28 मई 2012

बंधन और मोक्ष मन के धर्म हैं आत्मा के नहीं

प्रिय राजीव जी । नमस्कार । एक प्रश्न है । यदि उपयुक्त समझें । तो उतर दें । अन्यथा छोड़ दें । क्योंकि हर प्रश्न के प्रत्युतर में फिर से बहुत सारे प्रश्न मुँह बाये खड़े हो जाते हैं । प्रश्न ये है कि - जब मैं स्वयं ( आत्मा रूप में ) ही चेतन हूँ । और इस मल विक्षेप के शरीर से मेरा कुछ समय का ही बंधन है । और यह बंधन भी मुझ पर ही निर्भर करता है कि कब तक । अगर चाहूँ । तो अभी बंधन से मुक्त हो जाऊँ ( मृत्यु का वरन करके ) और मै हमेशा से था । और रहूँगा भी । चाहे प्रलय आ जाये । या महा प्रलय आ जाये । मेरा अस्तित्व तो हमेशा ही रहेगा । मै कर्ता नहीं हुँ । भोक्ता भी नहीं हूँ । न ही कार्य । और न ही कारण । और सबसे मुक्त हूँ ।( अद्वैत रूप में या आत्मा रूप में ) तो फिर कैसा बंधन ? बूंद हमेशा ही जल रूप रहेगी । चाहे वह वर्षा की एक बूंद हो । नदी हो । झील हो । या समुद्र हो । कैसा बंधन कैसी मुक्ति ? कैसा सुख ? कैसा दुख ? न इन सुखों में शांति । न दुखों मैं अशांति । क्योंकि ये कभी मुझे ( आत्म ) छुते मात्र भी नहीं ( ये कैसा भाव है । जो यदा कदा सांसारिक नियमो के विरुद्ध मुझे खड़ा कर देता है ? )
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हर प्रश्न के प्रत्युतर में फिर से बहुत सारे प्रश्न - देखिये । मैं जब छोटा था । तबसे जाने किस प्रेरणा से लोगों से कहता था - आप बिज्ञान को देखकर चमत्कृत होते हो । पर मैं खास नहीं होता । क्योंकि मेरी दृष्टि में कुछ ही आविष्कार हुये हैं । जिनसे पूरा बैज्ञानिक विकास
हुआ है । जिसमें सबसे मुख्य था । पहिया चक्का या wheel पुरानी किताबों में ऐसा कहा है । कोई व्यक्ति ढलान पर वृक्ष की गोल पिण्डी पर बैठा हुआ फ़िसल रहा था । और हठात उसके दिमाग में आया । लकङी को गोल गोल काटकर बना पहिया गति के क्षेत्र में क्रांति कर सकता है । और फ़िर वही हुआ । हालांकि मेरे विचार से क्रांति कुछ ज्यादा ही हो गयी । पहिये में तो हवा फ़ुल हो गयी । पर पहिया बनाने वालों की सब हवा निकल गयी । पिंचर हो गये । भस्ट तक हो गये । तो आप - पहिया । मोटर ( यहाँ मोटर से अर्थ घुमाने की तकनीक से है । जैसे - पंखा । बाइक आदि तमाम चीजों में प्रयुक्त मोटर ) रजिस्टेंस कंडेसर ( विधुत प्रवाह को निश्चित वेग में निकालना ) आदि गिनी चुनी कुछ ही चीजें पायेंगे । जिनके आधार पर सभी चीजों का निर्माण हुआ है । लेकिन प्रत्येक बिज्ञान का विकास देख कर चकाचौंध है । सोचो । ये विकास ( विनाश ) न हुआ होता । तो आज शुद्ध रोटी तो खाने को मिलती । जो कम्प्यूटर मोबायल से अधिक जरूरी है ।
बस बात यही है । द्वैत या संसार वृक्ष ऐसा ही है कि इसमें शाखायें निकलती ही जाती हैं । यदि आप - ये क्या है ।
ये क्या है ? प्रश्न करते हैं । तो प्रश्न कभी खत्म होने वाले नहीं हैं । अनन्त हैं । लेकिन यदि आप ये प्रश्न करते हैं - मैं क्या हूँ ? मैं कौन हूँ ? तो फ़िर कृमशः इसको जानते ही सभी प्रश्न समाप्त हो जायेंगे । क्योंकि सभी प्रश्न आपके अन्दर ही उठ रहे हैं । और आपकी कोशिश से ही हल हो रहे हैं । अद्वैत में कहीं कुछ नहीं है । और द्वैत का कोई पार नहीं है ।
चेतन में एक गुण है । इसमें निरंतर कल्पना विचार रूपी तरंगे उठती रहती हैं । इसमें ये शक्ति है कि - ये अपने विचारों को मूर्त रूप दे सकता है । अतः परमात्मा ( स्थिति ) की आदि सृष्टि ( चौंकिये मत । अभी भी ये स्थिति होती है ) से लेकर । चेतन के अनगिनत शक्ति स्तर ( अनुसार ) पर अनगिनत सृष्टि प्रलय निरंतर होती ही रहती है । चेतन की इस प्रकृति का विशेष गुण है कि - ये निरंतर परिवर्तन शील है ।
यदि आप एक वीडियो कैमरा लेकर बाजार से एक तरफ़ से शूट करते हुये 1 किमी भी निकल जायें । और दोबारा
उसी रास्ते का तुरन्त वीडियो शूट करें । तो उतनी ही देर में उसी स्थान पर चित्र में बहुत सा परिवर्तन हो चुका होगा । इसलिये प्रश्न कभी खत्म ही न होंगे । क्योंकि तब तक ( उत्तर मिलने तक ) स्थितियों में परिवर्तन हो जाता है ।
वास्तव में बंधन और मोक्ष मन के धर्म हैं । आत्मा के नहीं । आत्मा तो सदा सर्वदा मुक्त और आनन्दमय ही है । वह कभी बंधन में आयी ही नहीं । जो मुक्त होगी । लेकिन आपने जिस आसानी से ? इसको अपनी इच्छा से मुक्त होना कह दिया । वह अज्ञान है । यह बात सदियों से तप करते तमाम तपस्वी भी सिद्धांत रूप में जानते थे । त्यागी वैरागी ज्ञानी भी थे । लेकिन बंधन मुक्त नहीं हो पाये - कोटि जन्म मुनि जतन कराहीं । अन्त राम कह आवत नाहीं ।
मल विक्षेप का आवरण सिर्फ़ यही शरीर नहीं है । आपके अविनाशी जीव पर इच्छाओं के आवरण रूप अनगिनत सूक्ष्म और कारण शरीर आपके अन्दर हैं । जिनके बीज सिर्फ़ ज्ञान की अग्नि से भुनकर निर्बीज होते हैं । तब छुटकारा मिलता है । और इसके लिये आपको अपने ही आवरण की गहन पर्तों को नष्ट करना होगा । जब आत्मा से सभी जीव आवरण उतर जायेंगे । तब बात बनेगी । इसलिये जेल ( शरीर ) से भाग कर तोङ कर ( स्व मृत्यु करना ) मुक्त होना । मुक्त होना नहीं है । आपको फ़िर गिरफ़्तार कर जेल ( दूसरे शरीर ) में डाल दिया जायेगा । कानून के नियम अनुसार मुक्त होना ही असली मुक्त होना है ।
ठीक है । आप हमेशा से हो । हमेशा ही रहोगे । पर प्रश्न वही है । इस अनन्त जीवन काल में आपकी विभिन्न स्थितियाँ क्या हैं ? श्रीकृष्ण रहस्यमय ढंग से हँसते हुये अपनी पत्नी से कहते हैं - ये चींटा ( जो नीचे जमीन पर 
चल रहा था को देखकर ) 16 बार इन्द्र बन चुका । और अपने कर्म और अज्ञान से आज फ़िर इस स्थिति में है । सोचिये । उस जीव ने कितने प्रयास उत्थान के किये होंगे ? और नहीं हो पाया ।
सामान्यतः 1 मनुष्य के ही देखिये । कितने अनगिनत स्तर हो जाते हैं । हैं । हमारे सामने तमाम दुखी हैं । अशिक्षित है । निर्धन हैं । रोगी हैं । और सबका उपाय भी है - अरे ! ये कर दिया जाये । समस्या खत्म हो जायेगी । पर ये करना क्या इतना आसान है ?? 1 form से दूसरे form में जाना बहुत कठिन है भाई ।
कहीं कहीं तो असंभव जैसा । 1 उदाहरण देता हूँ । एक मकान बनाने वाला राज मिस्त्री कम मेहनत और बेलदार मजदूर से दोगुने पैसे लेता है । मजदूर उसको सालों से काम करते देख रहा है । जानता है । मेहनत कम और पैसा अधिक है । फ़िर भी वह अपनी भूमिका को बदल नहीं पाता । सोचिये ये स्थूल जगत की बात है । और बहुत साधारण सा गणित है । साधारण सा ज्ञान है तब । फ़िर सूक्ष्म और कारण जगत के खेल इतने आसान नहीं है ।
आपने बूँद का उदाहरण भी गलत दिया । आत्मा ( मूल रूप ) बूँद रूप नहीं है । बल्कि सागर रूप है । बूँद से सागर के बीच जो तमाम स्थितियाँ परिवर्तन हैं । वह आत्मा की विभिन्न जीव भावों स्थितियों में शक्ति क्षीणता ही है । 1 बूँद किसी की प्यास नहीं बुझा सकती । पर एक झील हजारों की प्यास बुझा सकती है । और फ़िर कृमशः जल स्तर पर सागर सबको जल दे रहा है । तब इन सभी स्थितियों में बहुत अन्तर है । मनमोहन
सिंह और बराक ओबामा नाम के और वैसे ही ( मनुष्य ) शरीर वाले लाख तो होंगे ही । पर सोचिये । इन 1 और उन लाख में कितना अन्तर है ?
ये कैसा भाव है । जो यदा कदा सांसारिक नियमो के विरुद्ध मुझे खड़ा कर देता है - आपका ये वाक्य बहुत ही महत्वपूर्ण है । यही ऊब है । यही अपने निज की याद आना है - क्या झंझट है साला । मैं कहाँ फ़ँस गया । वो भी बे मतलब । बे प्रयोजन । जैसे कभी बेहद रुचि से खेलता हुआ बच्चा ऊब कर अपने ही खेल को बिगाङ देता है । खिलौने को तोङ देता है । लगन से खुद बनाये घरौंदे को फ़ोङ देता है । क्योंकि कभी न कभी तो इस खेल से ऊबना ही है । जिसको मोह माया का खेल कहते हैं ।
कैसा अदभुत खेल बनाया । मोह माया में जीव फ़ँसाया ।
दुनियाँ में फ़ँसकर वीरान हो रहा है । खुद को भूल कर हैरान हो रहा है ।
माया महा ठगिनी हम जानी । त्रि गुन फ़ाँस लिये कर डोले । बोले मधुरी वानी ।

20 मई 2012

तभी आवाज आई - यही काल पुरुष है ??

जय जय श्री गुरुदेव । प्रणाम राजीव भईया ! मेरे मन में स्वपन से जुड़े कुछ प्रश्न हैं । मुझे वैसे तो बहुत ही कम स्वपन आते हैं । पर जब आते हैं । तब बड़े ही अजीब स्वपन होते हैं । पर मैं इन पर कोई ज्यादा ध्यान नहीं देता । क्योंकि अधिकतर स्वपन ऐसे होते थे । जैसे कोई एक अजीब सी घटना बार बार दोहराई जा रही हो । जिसका मेरे आस पास से कोई लेना देना नहीं है । या कभी कभी स्वपन में उड़ना । फिर जैसे ही निर्धारित स्थान पर पहुँचने वाला रहता । वैसे ही ये लगता कि - अरे मैं कैसे उड़ रहा हूँ ? और नीचे आने लगता । पर फिर अचानक से लगता । अरे नहीं । अभी तक तो मैं उड़ रहा था । फिर अब कैसे नीचे आ रहा हूँ । और फिर से उड़ने लगता । ये सब बड़ा ही मूर्खता पूर्ण लगता था । इसलिए मैं इन सब पर
ध्यान नहीं देता था । पर कुछ समय से कभी कभी ऐसे सपने आ रहे थे । जैसे अगर किसी स्वपन में कोई कार्य हो रहा हो । तो उसके अगले दिन स्वपन में उसके आगे का कार्य होता रहता । जैसे किसी चलचित्र को किसी ने थोड़े समय के लिए रोक कर फिर आगे बढ़ा दिया हो । कभी कभी ऐसे स्वपन दिखे । जिन्हें मैं अपने अनुसार नियंत्रित कर सकता था । कभी कभी स्वपन में ही सोते समय स्वपन दिखे इत्यादि । पर इन्हें भी मैं नकारता रहा । यह सोच कर कि - सब कल्पनाये हैं । अस्थिर मन की । ये सब स्वपन मुझे कभी याद नहीं रहते । क्योंकि मैं इन पर ज्यादा ध्यान नहीं देता । पर अगर थोड़ा सोचता कि - क्या स्वपन था ? तो याद आ जाते हैं । या फिर अगर उनसे मिलती जुलती कोई घटना घटे । या कुछ लेख पढ़ने को मिले । तब याद आते हैं । पर आज मैं आपका
ब्लॉग रोज की तरह ही पढ़ रहा था कि - तभी मुझे कल रात का स्वपन याद आया । मैंने आपको पिछले मेल में बताया था कि - मैं जब ध्यान करता था । तब किसी जगह आँखों के मध्य में अंदर जाने का आभास होता था । और मैं भयभीत हो जाता था । ठीक वैसा ही आज स्वपन में हुआ । पर इस बार मैं अंदर जाता गया । और एक काला बिंदु मुझे दिखाई दिया । मैं जैसे ही उसके एकदम नजदीक पहुंचा । वैसे ही पीछे से या कही से आवाज आई - यही काल पुरुष है ?? और मैं बहुत ही ज्यादा भयभीत हो गया । और मेरी नींद खुल गयी । फिर मैंने सोचा - लगता है । मैं इस बारे में कुछ ज्यादा ही कल्पना कर रहा हूँ । और पुनः सो गया । मैं इस बारे में आपको बताते हुए मन ही मन अपने आप पर बहुत हँस रहा हूँ  कि - मेरा नाम लगता है । स्वपनिल ठीक ही रखा गया है । राजीव भईया ! ये बताईये । क्या ये व्यर्थ के स्वपन कुछ मतलब के 
हैं ?
असल में मुझे गुरूजी से दीक्षा लेनी हैं । और इस विषय को लेकर मैं बहुत चिंतित हूँ । मुझे पता नहीं है कि मुझे घर से अनुमति मिलेगी । या नहीं ? क्योंकि मैंने बहुत समय पहले अपने माता पिता से पुछा था । तो उन्होंने मुझे कहा था कि - किसी व्यर्थ के बाबा के चक्कर में न फँसना । राजीव भईया ! कृपया मुझे इस विषय में मार्गदर्शन दीजिये ।
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कुलदीप प्रकरण पर सभी की शंकाओं जिज्ञासाओं के त्वरित समाधान हेतु मुझे लेख आदि में 2-3 दिन का समय लग सकता है ।  उसके बाद आपकी जिज्ञासा का समाधान इसी पेज पर नीचे जोङा जायेगा ।

चाहे प्रलय या महाप्रलय आ जाये

हमारे मन में कुछ शंका है कृपया उसका समाधान करें ।
1 हमारे माताजी और पिताजी ने एक बृह्मचारी महाराज जी से गुरु मंत्र लिया हुआ है । महाराज जी हनुमान जी के परम भक्त है । माताजी और पिताजी चाहते है कि घर के सभी लोग उन्ही को गुरु मानें । लेकिन मैने अपने बड़े भाई डॉ. संजय कुमार केशरी के द्वारा बताये जाने पर आपका ब्लॉग पढ़ा । जिससे मुझे सत्य जानने की चाह बढ़ गयी है । मैं भी सद्गुरु की शरण में आना चाहता हूँ । क्या मै ऐसा कर सकता हूँ ?
2 मेरी उमृ लगभग 30 की होगी । और मै C. A. फाइनल की पढ़ाई भी कर रहा हूँ । मैं इस समय गोरखपुर जिले में Indusind Bank में काम कर रहा हूँ । अभी शादी नहीं हुई है । इस साल शादी करने की बात घर में कर रहे है । शादी के बाद दीक्षा लिया जाय । या शादी के पहले ? दीक्षा के बाद शादी क्या विघ्न डालते है ?
3 आपका कुछ ब्लॉग पढ़ा । और इससे काफी जानकारी मिली । और अद्वैत की तरफ झुकाव हुआ । आपके विचार और मजाकिया अंदाज में रहस्यमई बाते बताना बहुत अच्छा लगता है । क्या - नौकरी । काम । पढाई । शादी । घर । परिवार । माता । पिता सबको देखते हुए । मै साहिब जी के शरण में जा सकता हूँ ।
उपरोक्त  कही गयी बाते मेरी अपनी भाषा में है । किसी त्रुटि को माफ़ करियेगा । कृपया मेरे प्रश्नों का जवाब जरुर दें । मन में अभी प्रश्न बहुत हैं । बाद में फिर आपसे जरुर पूछूँगा । प्रणाम ।
आपका छोटा भाई - मनोज कुमार केशरी ।
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एक प्रश्न है । यदि उपयुक्त समझें तो उतर दें अन्यथा छोड़ दें । क्योंकि हर पश्न के प्रत्युतर में फिर से बहुत सारे प्रश्न मुह बाये खड़े हो जाते हैं । प्रश्न ये है कि जब मैं स्वयँ ( आत्मा रूप में ) ही चेतन हूँ । और इस मल विक्षेप के शरीर से मेरा कुछ समय का ही बंधन है और यह बंधन भी मुझ पर ही निर्भर करता है कि कब तक । अगर चाहूँ  तो अभी बंधन से मुक्त हो जाऊँ ( मृत्यु का वरन कर के ) और मै हमेशा से था और रहूँगा भी । चाहे प्रलय आ जाये या महा प्रलय आ जाये । मेरा अस्तित्व तो हमेशा ही रहेगा । मै कर्ता नहीं हुँ भोक्ता भी नहीं हूँ । न ही कार्य  और न ही कारण । और सबसे मुक्त हूँ ।( अद्वैत रूप में या आत्मा रूप में ) तो फिर कैसा बंधन ? बूंद हमेशा ही जल रूप रहेगी । चाहे वह वर्षा की एक बूंद हो । नदी हो । झील हो । या समुद्र हो । कैसा बंधन कैसी मुक्ति ? कैसा सुख ? कैसा दुख ? न इन सुखों में शांति । न दुखों मै अशांति । क्योंकि ये कभी मुझे ( आत्म ) छुते मात्र भी नहीं ( ये कैसा भाव है । जो यदा कदा सांसारिक नियमो के विरुद्ध मुझे खड़ा कर देता है ? )
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1 आपके माता पिता ने किन्हीं बृह्मचारी ? महाराज से गुरु मंत्र न लेकर 1 आम परम्परागत पुजारी टायप  उद्देश्यहीन साधारण पुजारी इंसान ( इंसान शब्द पर गौर करें ) से अंधभक्ति ज्ञान ? लिया हुआ है । जिसका कोई मतलब नहीं । कभी कोई अर्थ फ़ल नहीं निकलना । सिवाय कुछ आचरण शुद्ध होने या भक्ति भावना में कुछ रुचि हो जाने के । ये बात मैं दावे से इसलिये कह सकता हूँ कि - यदि वो महाराज वाकई बृह्मचारी होते । तो आपके भाई डा. संजय हमारे पास आते ही क्यों ? उनके जीवन में भटकाव और तमाम प्रश्न होते ही क्यों ? जो हमारे पास आते ही 80% खत्म हो गये । और मनुष्य जीवन का लक्ष्य मिलने के प्रति पूरी तरह निश्चितता आ गयी ।
यदि वो महाराज वाकई बृह्मचारी होते तो आप मुझसे ये मामूली शंकाये लेकर न आये होते । बल्कि उच्च स्तर के गूढ प्रश्न कर रहे होते । विश्वास नहीं होता । आगरा आईये । हमारे 10 साल के शिष्य आपके इन प्रश्नों का जबाब 10 मिनट से भी कम समय में दे देंगे ।
बृह्मचारी का सही मतलब होता है । बृह्म का आचारी । आचरण करने वाला । यानी बृह्माण्ड और बृह्म गतिविधियों को प्रत्यक्ष जानने वाला । प्रत्यक्ष देखने वाला । प्रत्यक्ष दखल रखने वाला । और उससे जुङे लोग सामान्य मनुष्य की श्रेणी में नहीं आते । उनका आंतरिक बौद्धिक ज्ञान स्तर साधारण मनुष्यों से काफ़ी ऊपर होता है ।
2 सत्य यही है कि पुजारी सिर्फ़ स्थूल अर्थों में ही हनुमान को जानते हैं । हनुमान का सही - मतलब । स्थिति । सत्य । परिचय आदि  विवरण उन्हें दूर दूर तक नहीं पता होगा ।
3 माताजी और पिताजी चाहते है कि घर के सभी लोग उन्ही को गुरु मानें - जीवन में 2 दिन का मेला जुङा । हँस जब भी उङा । तब अकेला उङा । जब आपके मरने का समय ( और बाद में ) आयेगा । तब न आपके माताजी । न पिताजी । न भाई । न बहन । न पत्नी । न बच्चे । न मित्र । न अन्य । ये सब ( मरने के बाद ) वहाँ कोई नहीं होगा । वहाँ होंगे - भयंकर यमदूत । और उनके हाथ में होगा । वह वारंट । जो आपके कर्मों और भक्ति के आधार पर लिखा गया होगा कि - इस बन्दे को मारते घसीटते हुये लाना है । या बाइज्जत सुख सुविधा से वाहन से - आया है सो जायेगा । राजा रंक फ़कीर । एक सिंहासन चढ चले । एक बंधे जंजीर । और ये सिर्फ़ मृत्यु के बाद यमपुरी में पेशी होने तक की स्थिति है । अभी  तो आपको लाक अप में बन्द होना है । मुकद्दमा सुना जायेगा । फ़िर जजमेंट सुनाया जायेगा ।  ऐसा ही आपके पिताजी माताजी सबके साथ होगा ।
कौन होते हैं ये माताजी पिताजी - अपने माता पिता से यही प्रश्न पूछना । हनुमान के भक्त पुजारी के शिष्य हैं वो । इन्हीं हनुमान गाथा सम्बन्धित तुलसी रामायण में स्पष्ट लिखा है - मात पिता भगिनी सुत दारा । ये सब माया कर परिवारा । भगिनी - बहन को । सुत - पुत्र को । दारा - पत्नी को कहा जाता है । माता पिता आप जानते ही हैं । अब बताईये । कौन हुये ये सब ? माया के रचे हुये । असत्य । आप उनके लिये माया सम्बन्ध । वो आपके लिये । ये संस्कार और कर्म फ़ल रूपी कर्ज है । जो विभिन्न सृष्टि सम्बन्धों का सृजन करता है । जैसे ही ये कर्ज खत्म हुआ । लोग जीते जी भी घनिष्ट से घनिष्ट सम्बन्धों से अलग हो जाते हैं । मरना तो बहुत अलग चीज है ।
एक और बात है । आपके भाई डा. बने । आप C. A. फाइनल की पढ़ाई कर रहे हैं । ये सब सलाह भी क्या आपके माता पिता ने दी थी ? सच ये है कि - वो इन सबकी A B C D भी नहीं जानते होंगे । तब अधिक ज्ञानवान कौन हुआ ? आप या आपके माता पिता ? यहाँ उन्होंने लपक कर कह दिया होगा - बन जा बेटा C. A. और कर ले जीवन में मौज । और आप भी पूरी कोशिश से जुट गये होंगे । है ना लालच । आपके माता पिता को भी । और आपको भी । उन्होंने आपको ये सलाह क्यों नहीं दी । आप खेती करो । आप भी किसी पुजारी की तरह भक्ति में जीवन गुजारो । जिसका वो श्रद्धा से चरण स्पर्श करते हैं । जाहिर है । उसका स्तर आपसे और आपके माता पिता से ऊँचा है ना । मैं आपको स्पष्ट बताता हूँ । जब तक जीव को ज्ञान नहीं होता । वह सभी आपसी सम्बन्धों के प्रति कालदूत की भूमिका में होता है और वैसी ही सलाह देता है । यदि आपकी  घर में चलती होती और आप ज्ञान में नहीं होते तो आप भी उन्हें तक ऐसी ही सलाह देते । जीव स्थिति में सभी सांसारिक सम्बन्ध यम सम्बन्ध हैं । लेकिन आत्मज्ञान का छात्र भी हो जाने पर यही सम्बन्ध प्रेम सम्बन्ध या आत्मिक सम्बन्ध कहलाते हैं या कहिये वास्तविकता के धरातल पर इनमें संरचनागत परिवर्तन ही हो जाता है । अनिरुद्ध रामकृष्ण आदि आत्मज्ञानियों के उदाहरण हैं । उन्होंने ज्ञान ( की ऊँची स्थिति ) के बाद अपनी पत्नी को बहन मानना व्यवहार करना शुरू कर दिया । इसलिये आप अपने अभिभावकों से पूछिये - उन्हें अभी तक अपने गुरु या गुरुमंत्र से क्या प्राप्त हुआ ? जो ऐसी अंधी सलाह देते हैं । और अपने भाई से पूछिये उन्हें ऐसा क्या प्राप्त हो गया जो अद्वैत की सलाह देते हैं ।
मैं भी सदगुरु की शरण में आना चाहता हूँ । क्या मै ऐसा कर सकता हूँ - जब जागो । तभी सवेरा । आप तो बहुत सही और शिक्षित स्थिति में हैं । मैं सिर्फ़ 1 साल के वालक को भी दीक्षा कराने की सलाह देता हूँ । क्योंकि मुझे पक्का पता है कि - असली  हँस दीक्षा हो जाने पर अगला मनुष्य जन्म और भक्ति युक्त सार्थक जीवन निश्चित हो जाता है । ज्ञान किसी भी अवस्था स्थिति में लाभदायी ही होता है । शुकदेव और अभिमन्यु को गर्भ के ज्ञान से लाभ हुआ था । कोई गर्भवती स्त्री यदि दीक्षा लेती है । तो उसके गर्भस्थ बालक को भी लाभ प्राप्त होता है । एक तरह से उसका दीक्षा संस्कार उसी समय बन जाता है । इसलिये आप सदगुरु की शरण में आ सकते हैं । बुरे कार्य के लिये 100 बार सोचना चाहिये । अच्छे कार्य में क्षण की देर न करनी चाहिये । 
शादी के बाद दीक्षा लिया जाय या शादी के पहले ? 
दीक्षा के बाद शादी क्या विघ्न डालते है - योगस्य कर्म कौशलम । 
योगी के कर्मों में कौशल आ जाता है । इसका सबसे बेहतर और प्रसिद्ध उदाहरण हैं । महाभारत के युद्ध में श्रीकृष्ण पर आवेशित स्थिति में आत्मदेव द्वारा आत्म ज्ञान देना । और कहना - हे अर्जुन युद्ध कर और भजन कर । ये भजन ऐसा ही है जब अर्जुन युद्ध करते हुये कर सकता है तो साधारण गृहस्थ जीवन कोई ज्यादा बङा हौवा नहीं है । आप दीक्षा बाद में पहले कभी भी ले सकते हो । पर मेरा सुझाव हरेक को यही रहता है । ये दीक्षा यथा संभव तुरन्त लेनी चाहिये । क्योंकि - खबर नहीं पल की । तू बात करे कल की ।
हाँ आप - नौकरी । काम । पढाई । शादी । घर । परिवार । माता । पिता सबको देखते हुए भी साहिब जी के शरण में जा सकता हैं । और जो भी शेष प्रश्न हैं । पूछ सकते हैं ।