05 जून 2011

कबीर साहब की वाणी में काल निरंजन के धोखे का वर्णन

धर्मदास यह जग बौराना । कोइ न जाने पद निरवाना ।
यहि कारन मैं कथा पसारा । जग से कहियो एक राम नियारा ।
यही ज्ञान जग जीव सुनाओ । सब जीवों का भरम नशाओ ।
अब मैं तुमसे कहों चिताई । त्रय देवन की उत्पति भाई ।
कुछ संक्षेप कहों गुहराई । सब संशय तुम्हरे मिट जाई ।
भरम गये जग बेद पुराना । आदि राम का भेद न जाना ।
राम राम सब जगत बखाने । आदि राम कोइ बिरला जाने ।
ज्ञानी सुने सो हिरदै लगाई । मूर्ख सुने सो गम्य ना पाई ।
मां अष्टंगी पिता निरंजन । वे जम दारुण वंशन अंजन ।
पहिले कीन्ह निरंजन राई । पीछे से माया उपजाई ।

माया रूप देख अति शोभा । देव निरंजन तन मन लोभा ।
कामदेव धर्मराय सताये । देवी को तुरत ही धर खाये ।
पेट से देवी करी पुकारा । हे साहेब मेरा करो उबारा ।
टेर सुनी तब हम तहाँ आये । अष्टंगी को बंद छुड़ाये ।
सतलोक में कीन्हा दुराचारि । काल निरंजन दिन्हा निकारि ।
माया समेत दिया भगाई । सोलह संख कोस दूरी पर आई ।
अष्टंगी और काल अब दोई । मंद कर्म से गए बिगोई ।
धर्मराय को हिकमत कीन्हा । नख रेखा से भगकर लीन्हा ।
धर्मराय किन्हाँ भोग बिलासा । माया को रही तब आसा ।
तीन पुत्र अष्टंगी जाये । बृह्मा विष्णु शिव नाम धराये ।
तीन देव विस्तार चलाये । इनमें यह जग धोखा खाये ।
पुरुष गम्य कैसे को पावै । काल निरंजन जग भरमावै ।
तीन लोक अपने सुत दीन्हा । सुन्न निरंजन बासा लीन्हा ।
अलख निरंजन सुन्न ठिकाना । बृह्मा विष्णु शिव भेद न जाना ।
तीन देव सो उसको धावें । निरंजन का वे पार ना पावें ।

अलख निरंजन बड़ा बटपारा । तीन लोक जिव कीन्ह अहारा ।
बृह्मा विष्णु शिव नहीं बचाये । सकल खाय पुन धूर उड़ाये ।
तिनके सुत हैं तीनों देवा । आंधर जीव करत हैं सेवा ।
अकाल पुरुष काहू नहिं चीन्हां । काल पाय सबही गह लीन्हां ।
बृह्म काल सकल जग जाने । आदि बृह्म को ना पहिचाने ।
तीनों देव और औतारा । ताको भजे सकल संसारा ।
तीनों गुण का यह विस्त्तारा । धर्मदास मैं कहों पुकारा ।
गुण तीनों की भक्ति में । भूल परो संसार ।
कहै कबीर निज नाम बिन । कैसे उतरैं पार ।

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