29 मई 2011

त्रिदेव द्वारा प्रथम समुद्र मंथन

तब निरंजन ने गुप्त ध्यान से अष्टांगी को याद करते हुये समझाया । और कहा - बताओ समुद्र मथने में किसलिये देर हो रही है ? बृह्मा विष्णु और महेश हमारे तीनों पुत्रों को समुद्र मथने के लिये शीघ्र ही भेजो । और मेरे वचन दृढता से मानों । और अष्टांगी इसके बाद तुम स्वयँ समुद्र में समा जाना ।
तब अष्टांगी ने समुद्र मंथन हेतु विचार किया । और तीनों बालकों को अच्छी तरह समझा बुझाकर समुद्र मथने के लिये भेजा । उन्हें भेजते समय अष्टांगी ने कहा - समुद्र से तुम्हें अनमोल वस्तुयें प्राप्त होंगी । इसलिये तुम जल्दी ही जाओ । यह सुनकर बृह्मा विष्णु और महेश तीनों बालक चल पङे । और जाकर समुद्र के पास खङे हो गये । और उसे मथने का उपाय सोचने लगे ।
फ़िर तीनों ने समुद्र मंथन किया । तीनों को समुद्र से तीन वस्तुयें प्राप्त हुयीं । बृह्मा को वेद । विष्णु को तेज और शंकर को हलाहल विष की प्राप्ति हुयी । ये तीनों वस्तुयें लेकर वे अपनी माता अष्टांगी के पास आये । और खुशी खुशी तीनों वस्तुयें दिखायीं । अष्टांगी ने उन्हें अपनी अपनी वस्तु अपने पास रखने की आग्या दी । अष्टांगी ने कहा - अब फ़िर से जाकर समुद्र मथो । और जिसको जो प्राप्त हो । वह ले लो ।
उसी समय आदि भवानी ने एक चरित्र किया । उसने तीन कन्यायें उत्पन्न की । और अपनी उन अंश को समुद्र में प्रवेश करा दिया । जब इन तीनों कन्याओं को समुद्र में प्रवेश कराने के लिये भेजा । इस रहस्य को अष्टांगी के तीनों पुत्र नहीं जान सके । अतः उन्होंने जब समुद्र मंथन किया । तो समुद्र से तीन कन्यायें निकलीं । उन्होंने खुशी से तीनों कन्याओं को ले लिया । और अष्टांगी के पास आये ।
तब अष्टांगी ने कहा - पुत्रो तुम्हारे सब कार्य पूरे हो गये । अष्टांगी ने उन तीन कन्याओं को तीनों पुत्रों को बाँट दिया । बृह्मा को सावित्री । विष्णु को लक्ष्मी । और शंकर को पार्वती दी ।
तीनों भाई कामिनी स्त्री को पाकर बहुत आनन्दित हुये । और उन कामनियों के साथ काम के वशीभूत होकर उन्होंने देव और दैत्य दोनों प्रकार की संताने उत्पन्न की ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! तुम यह बात समझो कि जो माता थी  । वह अब स्त्री हो गयी । अष्टांगी ने फ़िर से अपने पुत्रों को समुद्र मथने की आग्या दी ।
इस बार समुद्र में से 14 रत्न निकले । उन्होंने रत्न की खान निकाली । और रत्न लेकर माता के पास पहुँचे ।
तब अष्टांगी ने कहा - हे पुत्रो । अब तुम सृष्टि रचना करो । अण्डज खान की उत्पत्ति स्वयँ अष्टांगी ने की । पिण्ड खाने को बृह्मा ने बनाया । ऊष्मज खान को विष्णु तथा स्थावर खाने को शंकर ने बनाया । उन्होंने 84 लाख योनियों की रचना की । और उनके अनुसार आधा जल आधा थल बनाया । स्थावर खान को एक तत्व का समझो । और ऊष्मज खान को दो तत्व । तीन तत्वों से अण्डज और चार तत्वों से पिण्डज का निर्माण हुआ । पाँच तत्वों से मनुष्य को बनाया । और तीन गुणों से सजाया संवारा ।
इसके बाद बृह्मा वेद पढने लगे । वेद पढते हुये बृह्मा को निराकार के प्रति अनुराग हुआ । क्योंकि वेद कहता है । पुरुष एक है । और वह निराकार है । और उसका कोई रूप नहीं है । वह शून्य 0 में ज्योति दिखाता है । परन्तु देखते समय उसकी देह दृष्टि में नहीं आती । उस निराकार का सिर स्वर्ग है । और पैर पाताल है । इस वेद मत से बृह्मा मतवाला हो गया ।
बृह्मा ने विष्णु से कहा - वेद ने मुझे आदि पुरुष को दिखा दिया है । फ़िर ऐसा ही उन्होंने शंकर से भी कहा । वेद पङने से पता चलता है कि - पुरुष एक है । और सबका स्वामी केवल एक निराकार पुरुष है । यह तो वेद ने बताया । परन्तु उसने ऐसा भी कहा कि - मैंने उसका भेद नहीं पाया ।
तब बृह्मा अष्टांगी के पास आये । और बोले - हे माता ! मुझे वेद ने दिखाया । और बताया कि सृष्टि की रचना करने वाला । हम सबका स्वामी कोई और ही है ? अतः हे माता ! हमें बताओ कि तुम्हारा पति कौन है ? और हमारा पिता कहाँ है ?
अष्टांगी बोली - हे बृह्मा सुनो । मेरे अतिरिक्त तुम्हारा अन्य कोई पिता नहीं है । मुझसे ही सब उत्पत्ति हुयी है । और मैंने ही सबको संभारा है ।
तब बृह्मा ने कहा - हे माता ! सुनो । वेद निर्णय करके कहता है कि पुरुष केवल एक है । और वह गुप्त है ।
अष्टांगी बोली -  हे पुत्र बृह्म कुमार ! मुझसे न्यारा सृष्टि रचियता और कोई नहीं है । मैंने ही स्वर्गलोक प्रथ्वीलोक और पाताललोक बनाये हैं । और सात समुद्रों का निर्माण भी मैंने ही किया है ।
यह सुनकर बृह्मा ने कहा - मैंने तुम्हारी बात मानी कि तुमने ही सब कुछ किया है । परन्तु पहले से ही पुरुष को गुप्त कैसे रख लिया ? जबकि वेद कहता है कि पुरुष एक है । और वह अलख निरंजन है । हे माता ! तुम कर्ता बनो । आप बनो । परन्तु पहले वेद की रचना करते समय यह विचार क्यों नहीं किया । और उसमें पुरुष को निरंजन क्यों बताया ? अतः अब तुम मेरे से छल न करो । और सच सच बात बताओ ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! जब इस तरह बृह्मा ने जिद पकङ ली । तो अष्टांगी ने अपने मन में विचार किया कि बृह्मा को किस प्रकार समझाऊँ । जो यह मेरी महिमा को..बङाई को नहीं मानता । जो यह बात निरंजन से कहूँ । तो यह किस प्रकार ठीक से समझेगा ?
निरंजन राव ने मुझसे पहले ही कहा था कि मेरा दर्शन कोई नहीं पायेगा । अब जो बृह्मा को अलख निरंजन के बारे में कुछ नहीं बताया । तो किस प्रकार उसे दिखाया जाये । ऐसा विचार कर अष्टांगी ने कहा - अलख निरंजन अपना दर्शन नहीं दिखाता ।
बृह्मा बोले - माता ! तुम मुझे सही सही स्थान बताओ । आगे पीछे की उल्टी सीधी बातें करके मुझे न बहलाओ । मैं ये बातें नहीं मानता । और न ही मुझे अच्छी लगती हैं ।
पहले तुमने मुझे बहकाया कि मैं ही सृष्टिकर्ता हूँ । और मुझसे अलग कुछ भी नहीं है । और अब तुम कहती हो कि अलख निरंजन तो है । पर वह अपना दर्शन नहीं दिखाता । क्या उसका दर्शन पुत्र भी नहीं पायेगा । ऐसी पैदा न होने वाली बात क्यों कहती हो । हे माता ! इसलिये मुझे तुम्हारे कहने पर भरोसा नहीं है । अतः इसी समय उस कर्ता का दर्शन करा दीजिये । और मेरे संशय को दूर कीजिये । इसमें जरा भी देर न करो ।
अष्टांगी बोली - हे पुत्र बृह्मा सुनो । मैं तुमसे सत्य ही कहती हूँ कि उस अलख निरंजन के सात स्वर्ग ही माथा है । और सात पाताल चरण हैं । यदि तुम्हें उसके दर्शन की इच्छा हो । तो हाथ में फ़ूल ले जाकर उसे अर्पित करते हुये प्रणाम करो । यह सुनकर बृह्मा बहुत प्रसन्न हुये ।
अष्टांगी ने अपने मन में विचार किया - ये बृह्मा मेरा कहा मानता नहीं है । ये कहता है कि वेद ने मुझे उपदेश किया है कि एक पुरुष निरंजन है । परन्तु कोई उसके दर्शन नहीं पाता है ।
अतः वह बोली - अरे बालक सुन । अलख निरंजन तुम्हारा पिता है । पर तुम उसका दर्शन नहीं पा सकते । यह मैं तुमसे सत्य वचन कहती हूँ ।
यह सुनकर बृह्मा ने व्याकुल होकर माँ के चरणों में सिर रख दिया । और बोले - मैं पिता का शीश स्पर्श व दर्शन करके तुम्हारे पास आता हूँ । यह कहकर बृह्मा उत्तर दिशा को चले गये ।
 अपनी माता से आग्या मांगकर विष्णु भी अपने पिता के दर्शनों हेतु पाताल चले गये । केवल शंकर का मन इधर उधर नहीं भटका । और वह माता की सेवा करते हुये कुछ नहीं बोले ।

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