29 मई 2011

अष्टांगी कन्या और काल निरंजन

सहज के द्वारा सत्यपुरुष के ऐसे वचन सुनकर निरंजन प्रसन्न होकर अहंकार से भर गया । और मानसरोवर चला आया । फ़िर जब उसने सुन्दर कामिनी अष्टांगी कन्या को आते हुये देखा । तो उसे अति प्रसन्नता हुयी । अष्टांगी का अनुपम सौंदर्य देखकर निरंजन मुग्ध हो गया । उसकी सुन्दरता की कला का अन्त नहीं था । यह देखकर काल निरंजन बहुत व्याकुल हो गया ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! काल निरंजन की क्रूरता सुनो । वह अष्टांगी कन्या को ही निगल गया । जब अन्यायी काल निरंजन अष्टांगी का ही आहार करने लगा । तब उस कन्या को काल निरंजन के प्रति बहुत आश्चर्य हुआ । जब वह उसे निगल रहा था । तो अष्टांगी ने सत्यपुरुष को ध्यान करके पुकारा कि काल निरंजन ने मेरा आहार कर लिया है ।
अष्टांगी की पुकार सुनकर सत्यपुरुष ने सोचा कि यह काल निरंजन तो बहुत क्रूर और अन्यायी है । इस कन्या की तरह ही पहले कूर्म ने ध्यान करके मुझे पुकारा था कि काल निरंजन ने मेरे तीन शीश खा लिये हैं । हे सत्यपुरुष ! आप मुझ पर दया कीजिये ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! काल निरंजन का ऐसा क्रूर चरित्र जानकर सत्यपुरुष ने उसे शाप दिया कि वह प्रतिदिन लाख जीवों को खायेगा । और सवा लाख का विस्तार करेगा । फ़िर सत्यपुरुष ने ऐसा भी विचार किया कि इस कालपुरुष को मिटा ही डालें । क्योंकि अन्यायी और क्रूर काल निरंजन बहुत ही कठोर और भयंकर है । यह सभी जीवों का जीवन बहुत दुखी कर देगा ।
लेकिन अब वह मिटाने से भी नहीं मिट सकता था । क्योंकि एक ही नाल से वे सब 16 सुत उत्पन्न हुये थे । अतः एक को मिटाने से सभी मिट जायेंगे । और मैंने सबको अलग लोक दीप देकर जो रहने का वचन दिया है । वह डांवाडोल हो जायेगा । और मेरी ये सब रचना भी समाप्त हो जायेगी । अतः इसको मारना ठीक नहीं है । सत्यपुरुष ने विचार किया कि कालपुरुष को मारने से उनका वचन भंग हो जायेगा । अतः अपने वचन का पालन करते हुये उसे न मारकर यह कहता हूँ कि अब वह कभी हमारा दर्शन नहीं पायेगा ।
यह कहते हुये सत्यपुरुष ने योगजीत को बुलवाया । और सब हाल कहा कि किस तरह काल निरंजन ने अष्टांगी कन्या को निगल लिया । और कूर्म के तीन शीश खा लिये ।
उन्होंने कहा- हे योगजीत ! तुम शीघ्र मानसरोवर दीप जाओ । और वहाँ से निरंजन को मारकर निकाल दो । वह मानसरोवर में न रहने पाये । और हमारे देश सत्यलोक में कभी न आने पाये । निरंजन के पेट में अष्टांगी नारी है । उससे कहो कि वह मेरे वचनों का संभालकर पालन करे । निरंजन जाकर उसी देश में रहे । जो मैंने पहले उसे दिये हैं । अर्थात वह स्वर्गलोक मृत्युलोक और पाताल पर अपना राज्य करे । वह अष्टांगी नारी निरंजन का पेट फ़ाङकर बाहर निकल आये । जिससे पेट फ़टने से वह अपने कर्मों का फ़ल पाये । निरंजन से निर्णय करके कह दो । वह अष्टांगी नारी ही अब तुम्हारी स्त्री होगी ।
योगजीत सत्यपुरुष को प्रणाम करके मानसरोवर दीप आये ।
काल निरंजन उन्हें वहाँ आया देखकर भयंकर रूप हो गया । और बोला - तुम कौन हो ? और किसने तुम्हें यहाँ भेजा है ।
योगजीत ने कहा - अरे निरंजन ! तुम नारी को ही खा गये । अतः सत्यपुरुष ने मुझे आग्या दी कि तुम्हें शीघ्र ही यहाँ से निकालूँ ।

योगजीत ने निरंजन के पेट में समायी हुयी अष्टांगी से कहा - अरे अष्टांगी ! तुम वहाँ क्यों रहती हो । तुम सत्यपुरुष के तेज का सुमिरन करो । और पेट फ़ाङकर बाहर आ जाओ ।
योगजीत की बात सुनकर निरंजन का ह्रदय क्रोध से जलने लगा । और वह योगजीत से भिङ गया । योगजीत ने सत्यपुरुष का ध्यान किया । तो सत्यपुरुष ने आग्या दी कि वह निरंजन के माथे के बीच में जोर से घूंसा मारे । योगजीत ने ऐसा ही किया । फ़िर योगजीत ने निरंजन की बाँह पकङकर उसे उठाकर दूर फ़ेंक दिया । तो वह सत्यलोक के मानसरोवर दीप से अलग जाकर दूर गिर पङा ।
सत्यपुरुष के डर से वह डरता हुआ सँभल सँभलकर उठा । फ़िर अष्टांगी कन्या निरंजन के पेट से निकली । वह काल निरंजन से बहुत भयभीत थी । वह सोचने लगी कि अब मैं वह देश न देख सकूंगी । मैं न जाने किस प्रकार यहाँ आकर गिर पङी । यह कौन बताये ।
वह निरंजन से बहुत डरी हुयी थी । और सकपका कर इधर उधर देखती हुयी निरंजन को शीश नवा रही थी ।
तब निरंजन बोला - हे आदि कुमारी ! सुनो । अब तुम मेरे डर से मत डरो । सत्यपुरुष ने तुम्हें मेरे काम के लिये रचा है । हम तुम दोनों एकमति होकर सृष्टि रचना करें । मैं पुरुष हूँ । और तुम मेरी स्त्री हो । अतः तुम मेरी यह बात मान लो ।
अष्टांगी बोली - तुम यह कैसी वाणी बोलते हो । मैं तो तुम्हें बङा भाई मानती हूँ । हे भाई ! इस प्रकार जानते हुये भी तुम मुझसे ऐसी बातें मत करो । जब से तुमने मुझे पेट में डाल लिया था ।  और उससे उत्पन्न होने पर अब तो मैं तुम्हारी पुत्री भी हो गयी हूँ । बङे भाई का रिश्ता तो पहले से ही था । अब तो तुम मेरे पिता भी हो गये हो । अब तुम मुझे साफ़ दृष्टि से देखो । नहीं तो तुमसे यह पाप हो जायेगा । अतः मुझे विषय वासना की दृष्टि से मत देखो ।
तब निरंजन बोला - हे भवानी सुनो । मैं तुम्हें सत्य बताकर अपनी पहचान कराता हूँ । पाप पुण्य के डर से मैं नहीं डरता । क्योंकि पाप पुण्य का मैं ही तो कर्ता ( कराने वाला ) हूँ । पाप पुण्य मुझसे ही होंगे । और मेरा हिसाब कोई नहीं लेगा । पाप पुण्य को मैं ही फ़ैलाऊँगा । जो उसमें फ़ँस जायेगा । वही मेरा होगा । अतः तुम मेरी इस सीख को मानों । सत्यपुरुष ने मुझे कह समझाकर तुझे दिया है । अतः हे भवानी ! तुम मेरा कहना मानों ।
निरंजन की ऐसी बातें सुनकर अष्टांगी हँसी । और दोनों एकमति होकर एक दूसरे के रंग में रंग गये । अष्टांगी मीठी वाणी से रहस्यमय वचन बोली । और फ़िर उस नीच बुद्धि स्त्री ने विषय भोग की इच्छा प्रकट की ।  उसके रति विषयक रहस्यमय वचन सुनकर निरंजन बहुत प्रसन्न हुआ । और उसके भी मन में विषय भोग की इच्छा जाग उठी । निरंजन और अष्टांगी दोनों परस्पर रति क्रिया में लग गये । तब कहीं चैतन्य सृष्टि का विशेष आरम्भ हुआ ।
हे धर्मदास ! तुम आदि उत्पत्ति का यह भेद सुनो । जिसे भृमवश कोई नहीं जानता । उन दोनों ने तीन बार रतिक्रिया की । जिससे बृह्मा विष्णु तथा महेश हुये । उनमें बृह्मा सबसे बङे । मंझले विष्णु और सबसे छोटे शंकर थे । इस प्रकार अष्टांगी और निरंजन का रति प्रसंग हुआ । उन दोनों ने एकमति होकर भोग विलास किया । तब उससे आदि उत्पत्ति का प्रकाश हुआ ।

3 टिप्‍पणियां:

Patali-The-Village ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना| धन्यवाद|

बेनामी ने कहा…

ye sab sach nahi hai

बेनामी ने कहा…

jhuthi bate mat banao ye sach nahi hai