28 मई 2011

राम नाम की उत्पत्ति

कबीर साहब बोले - धर्मदास भवसागर की ओर चलते हुये मैं सबसे पहले बृह्मा के पास आया । और बृह्मा को आदि पुरुष का शब्द उपदेश प्रकट किया । तब बृह्मा ने मन लगाकर सुनते हुये आदि पुरुष के चिह्न लक्षण के बारे में बहुत पूछा । उस समय निरंजन को संदेह हुआ कि बृह्मा मेरा बङा लङका है । और वह ग्यानी जी की बातों में आकर उनके पक्ष में न चला जाय । तब निरंजन ने बृह्मा की बुद्धि फ़ेरने का उपाय किया । क्योंकि निरंजन मन के रूप में सबके भीतर बैठा हुआ है । अतः वह बृह्मा के शरीर में भी विराजमान था । उसने बृह्मा की बुद्धि को अपनी ओर फ़ेर दिया । ( सव जीवों आदि के भीतर मन स्वरूप निरंजन का वास है । जो सबकी बुद्धि अपने अनुसार घुमाता फ़िराता है । )
बुद्धि फ़िरते ही बृह्मा ने मुझसे कहा - वह ईश्वर निराकार निर्गुण अविनाशी ज्योति स्वरूप और शून्य का वासी है । उसी पुरुष यानी ईश्वर का वेद वर्णन करता है । वेद आग्यानुसार ही मैं उस पुरुष को मानता और समझता हूँ ।
जब मैंने देखा कि काल निरंजन ने बृह्मा की बुद्धि को फ़ेर दिया है । और उसे अपने पक्ष में मजबूत कर लिया है । तो मैं वहाँ से विष्णु के पास आ गया । मैंने विष्णु को भी वही आदि पुरुष का शब्द उपदेश किया । परन्तु काल के वश में होने के कारण विष्णु ने भी उसे गृहण नहीं किया ।


विष्णु ने मुझसे कहा - मेरे समान अन्य कौन है ? मेरे पास चार पदार्थ यानी फ़ल हैं । धर्म अर्थ काम मोक्ष मेरे अधिकार में है । उनमें से जो चाहे । मैं किसी जीव को दूँ ।
तब मैंने कहा - हे विष्णु सुनो । तुम्हारे पास यह कैसा मोक्ष है ? मोक्ष अमरपद तो मृत्यु के पार होने से यानी आवागमन छूटने पर ही प्राप्त होता है । तुम स्वयँ स्थिर शांत नहीं हो । तो दूसरों को स्थिर शांत कैसे करोगे ? झूठी साक्षी.. झूठी गवाही से तुम भला किसका भला करोगे ? और इस अवगुण को कौन भरेगा ?
मेरी निर्भीक सत्य वाणी सुनकर विष्णु भयभीत होकर रह गये । और अपने ह्रदय में इस बात का बहुत डर माना । उसके बाद मैं नागलोक चला गया । और वहाँ शेषनाग से अपनी कुछ बातें कहने लगा ।
मैंने कहा - आदि पुरुष का भेद कोई नहीं जानता है । और सभी काल की छाया में लगे हुये हैं । और अग्यानता के कारण काल के मुँह में जा रहे हैं । हे भाई ! अपनी रक्षा करने वाले को पहचानो । यहाँ काल से तुम्हें कौन छुङायेगा । बृह्मा विष्णु और रुद्र जिसका ध्यान करते हैं । और वेद जिसका गुण दिन रात गाते हैं । वहीं आदि पुरुष तुम्हारी रक्षा करने वाले हैं । वहीं तुम्हें इस भवसागर से पार करेंगे । रक्षा करने वाला और कोई नहीं है । विश्वास करो । मैं तुम्हें उनसे मिलाता हूँ । साक्षात्कार कराता हूँ ।
लेकिन विष खाने से उत्पन्न शेषनाग का बहुत तेज स्वभाव था । अतः उसके मन में मेरे वचनों का विश्वास नहीं हुआ ।
जब बृह्मा विष्णु और शेषनाग ने मेरे द्वारा सत्यपुरुष का संदेश मानने से इंकार कर दिया । तब मैं शंकर के पास गया । परन्तु शंकर को भी सत्यपुरुष का यह संदेश अच्छा नहीं लगा । शंकर ने कहा - मैं तो निरंजन को मानता हूँ । और बात को मन में नहीं लाता ।
तब वहाँ से मैं भवसागर की ओर चल दिया ।
कबीर साहब आगे बोले - हे बुद्धिमान धर्मदास सुनो । जब मैं इस भवसागर यानी मृत्युमंडल में आया । तब मैंने यहाँ किसी जीव को सतपुरुष की भक्ति करते नहीं देखा । ऐसी स्थिति में सतपुरुष का ग्यान उपदेश किससे कहता ? जिससे कहूँ । वह अधिकांश तो यम के वेश में दिखायी पङे । विचित्र बात यह थी कि जो घातक विनाश करने वाला काल निरंजन है । लोगों को उसका तो विश्वास है । और वे उसी की पूजा करते हैं । और जो रक्षा करने वाला है । उसकी ओर से वे जीव उदास हैं । उसके पक्ष में न बोलते हैं । न सुनते हैं । जीव जिस काल को जपता है । वही उसे धरकर खा जाता है । तब मेरे शब्द उपदेश से उसके मन में चेतना आती है । जीव जब दुखी होता है । तब ग्यान पाने की बात उसकी समझ में आती है । लेकिन उससे पहले जीव मोहवश कुछ देखता समझता नहीं ।
तब ऐसा भाव मेरे मन में उपजा कि काल निरंजन की शाखा वंश संतति को मिटा डालूँ । और उसे अपना प्रत्यक्ष प्रभाव दिखाऊँ । यम निरंजन से जीवों को छुङा लूँ । तथा उन्हें अमरलोक भेज दूँ । जिनके कारण मैं शब्द उपदेश को रटते हुये फ़िरता हूँ । वे ही जीव मुझे पहचानते तक नहीं । सब जीव काल के वश में पङे हैं । और सत्यपुरुष के नाम उपदेश रूपी अमृत को छोङकर विषय रूपी विष गृहण कर रहे हैं ।

लेकिन सत्यपुरुष का आदेश ऐसा नहीं है । यही सोचकर मैंने अपने मन में निश्चय किया कि अमरलोक उसी जीव को लेकर पहुँचाऊँ । जो मेरे सार शब्द को मजबूती से गृहण करे ।
हे धर्मदास ! इसके आगे जैसा चरित्र हुआ । वह तुम ध्यान लगाकर सुनो । मेरी बातों से विचलित होकर बृह्मा विष्णु शंकर और बृह्मा के पुत्र सनकादिक सबने मिलकर शून्य 0 में ध्यान समाधि लगायी । समाधि में उन्होंने प्रार्थना की - हे ईश्वर ! हम किस नाम का सुमरन करें ? और तुम्हारा कौन सा नाम ध्यान के योग्य है ?
हे धर्मदास ! जैसे सीप स्वाति नक्षत्र का स्नेह अपने भीतर लाती है । ठीक उसी प्रकार उन सबने ईश्वर के प्रति प्रेमभाव से शून्य 0 में ध्यान लगाया । उसी समय निरंजन ने उनको उत्तर देने का उपाय सोचा । और शून्य 0 गुफ़ा से अपना शब्द उच्चारण किया । तब इनकी ध्यान समाधि में रर्रा यानी रा शब्द बहुत बार उच्चारित हुआ । उसके आगे म अक्षर उसकी पत्नी माया यानी अष्टांगी ने मिला दिया । इस तरह रा और म दोनों अक्षरों को बराबर मिलाने पर राम शब्द बना । तब राम नाम उन सबको बहुत अच्छा लगा । और सबने राम नाम सुमिरन की ही इच्छा की । बाद में उसी राम नाम को लेकर उन्होंने संसार के जीवों को उपदेश दिया । और सुमिरन कराया । काल निरंजन और माया के इस जाल को कोई पहचान समझ नहीं पाया । और इस तरह राम नाम की उत्पत्ति हुयी । हे धर्मदास ! इस बात को तुम गहरायी से समझो ।
तब धर्मदास बोले - आप पूरे सदगुरु हैं । आपका ग्यान सूर्य के समान है । जिससे मेरा सारा अग्यान अंधेरा दूर हो गया है । संसार में माया मोह का घोर अंधेरा है । जिसमें विषय विकारी लालची जीव पङे हुये हैं । जब आपका ग्यान रूपी सूर्य प्रकट होता है । और उससे जीव का मोह अंधकार नष्ट हो जाये । यही आपके शब्द उपदेश के सत्य होने का प्रमाण है । मेरे धन्य भाग्य जो मैंने आपको पाया । आपने मुझ अधम को जगा लिया ।

4 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

बकवास

Unknown ने कहा…

Ye blog kisne rakha hai

बेनामी ने कहा…

तो राम नाम परमेश्वर का है या श्री राम व काल का है। पूरा क्लियर नही है

बेनामी ने कहा…

Tum to bahut jyada moorkh ho yaar. Kuch pata to hai nahi Tujhe khali peeli ka gyan pel raha hai. Asli agyani Tu hai kuch padh le. Tum saale anpadh log ho jo bhagwan ke baare mein kuch nahi jaante. Or tumne apna alag hi bhagwan bana rakha hai. Tum bhi anpadh Or tumhara jo guru hai vo bhi anpadh