13 अप्रैल 2011

सारी दुनिया पागलों से भरी है

1 - इब्राहीम सूफी फकीर हुआ । सम्राट था । 1 रात सोया था । नींद आती नहीं थी । सम्राट होकर नींद आनी मुश्किल ही हो जाती है । इतनी चिंताएं । इतने उलझाव । जिनका कोई सुलझाव नहीं सूझता । इतनी समस्याएं । जिनका कोई समाधान दिखाई नहीं पड़ता । सोए तो कैसे सो ? और तभी उसे आवाज सुनाई पड़ी कि - ऊपर छप्पर पर कोई चल रहा है । चोर होगा कि लुटेरा होगा कि हत्यारा होगा ? जिनके पास बहुत कुछ है । तो भय भी बहुत हो जाता है । आवाज दी जोर से कि - कौन है ऊपर ? ऊपर से उत्तर जो आया । उसने जिंदगी बदल दी इब्राहीम की । ऊपर से उत्तर आया । 1 बहुत बुलंद और मस्त आवाज ने कहा - कोई नहीं । निश्चित सोए रहें । मेरा ऊंट खो गया है । उसे खोज रहा हूं । छप्परों पर ऊंट नहीं खोते । मकानों के छप्परों पर । महलों के छप्परों पर ऊंट नहीं खोते । इब्राहीम उठा । सैनिक दौड़ाए कि - पकड़ो कौन आदमी है ? क्योंकि आवाज में 1 मस्ती थी । आवाज में 1 गीत था । 1 मादकता थी । आवाज जैसे किसी और लोक की थी । जैसे आवाज में 1 गहराई थी । जैसी गहराई इब्राहीम ने कभी किसी आवाज में नहीं देखी थी । आवाज इब्राहीम के भीतर कोई तार छेड़ गयी । बेबूझ भी थी । उलटबासी थी । महलों के छप्परों पर ऊंटों की तलाश आधी रात । या तो कोई पागल है । या कोई परमहंस है । पागल हो नहीं सकता । क्योंकि आवाज का जादू कुछ और कहता हैं । पागल हो नहीं सकता । क्योंकि आवाज का गणित कुछ और कहता है । पागल हो नहीं सकता । पागल तो इब्राहीम ने बहुत देखे थे । पागलों से ही घिरा था । सारा दरबार पागलों से भरा था । सारी दुनिया पागलों से भरी है । यह आदमी कुछ और ही ढंग का आदमी होगा । लेकिन नहीं पकड़ा जा सका । सिपाही भागे दौड़े । लेकिन वह आदमी हाथ आया तो नहीं आया । सुबह इब्राहीम उदास है । चिंतित है कि उस आदमी से मिलना न हो सका । जिसकी आवाज में जादू था । उसकी आंख में भी झांकने के इरादे थे । उसके पास 2 क्षण बैठ लेने की आकांक्षा जगी थी । और तभी द्वारपाल से कोई आदमी झगङा करने लगा । द्वारपाल से कोई आदमी उलझने लगा । आवाज पहचानी हुई लगी है । वही आवाज है । और वह जो कह रहा था । फिर उलटबासी थी । द्वारपाल कह रहा था - तुम पागल तो नहीं हो । यह सराय नहीं । सम्राट का निवास स्थल हैं । और वह आदमी कह रहा था कि - मेरी मानो । यह सराय है । यहां कौन सम्राट है । और किसके निवास स्थान हैं ? यह सारी दुनिया सराय है । ठहर जाने दो 4 दिन । देखो कहता हूं ठहर जाने दो 4 दिन । 4 दिन के लिए सराय से इनकार न करो । आवाज पहचानी सी लगी । और फिर बात में भी वही उलझाव था । बात में वही राज और रहस्य था । इब्राहीम भागा । बाहर आया । था आदमी अदभुत । उसे भीतर ले गया । और पूछा - शर्म नहीं आती । राजमहल को सराय कहते हो । यह सिर्फ उकसाने को पूछा । यह भड़काने को पूछा । वह आदमी खिलखिलाकर हंसने लगा । उसने कहा - राजमहल । तुम्हारा निवास स्थान ? तो तुम्हारा ही यह निवास स्थान है ? लेकिन कुछ वर्षों पहले मैं आया था । तब 1 दूसरा आदमी यही दावा करता था । इब्राहीम ने कहा - वे मेरे पिता थे । स्वर्गीय हो गये । और उस फकीर ने कहा - उसके पहले भी मैं आया था । तब 1 तीसरा आदमी यही दावा करता था । इब्राहीम ने कहा - वे मेरे पिता के पिता थे । मेरे पितामह थे । वे भी स्वर्गीय हो गये । वह फकीर कहने लगा - तो फिर जो मैं कहता हूं । ठीक ही कहता हूं कि यह निवास नहीं है । सराय है । तुम कब तक स्वर्गीय होने का इरादा रखते हो ? फिर भी मैं आऊंगा । फिर कोई चौथा आदमी कहेगा कि - यह मेरा निवास स्थान है । यहां लोग आते हैं । और जाते हैं । मानो मेरी । 4 दिन ठहर जाने दो । यह कोई महल नहीं है । न कोई निवास स्थान है । बात चोट कर गयी । किन्हीं क्षणों में बात चोट कर जाती है । कोई अपूर्व क्षण होते हैं । तब छोटी सी बात भी चोट कर जाती है । बात दिखाई पड़ गयी । जैसे किसी ने झकझोर कर जगा दिया । जैसे किसी ने जबर्दस्ती आंख खोल दी । इब्राहीम थोड़ी देर तो ठिठका रह गया । जवाब दे । तो क्या दे ? जवाब देने को कुछ था भी नहीं । और इस आदमी की मौजूदगी । और इस आदमी का आह्लाद । और इस आदमी की सचाई । और इस आदमी की वाणी की गहराई प्राणों के आरपार हो गयी । उसने कहा कि - आप सिंहासन पर विराजे । और इस सराय में जब तक ठहरना हो । ठहरें । मैं चला । इब्राहीम बाहर हो गया । महल छोड़ दिया । सराय में क्या रुकना ?
2 - रवींद्रनाथ ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि जब गीताजलि, उनकी प्रसिद्ध कृति, प्रकाशित हुई । जिसमें उन्होंने ठीक वैसे अमृत वचन लिखे हैं । जैसे उपनिषदों के वचन हैं । तो 1 पड़ोस का व्यक्ति 1 बूढ़ा आदमी सुबह सुबह घूमते उन्हें पकड़ लिया । दोनों कंधे हिलाकर बोला - ईश्वर को देखा है ? उसकी आखें बड़ी पैनी थीं कि भेद जाएं भीतर तक । और जिस ढंग से उसने पूछा । और जिस बेवक्त पकड़कर पूछा । रवींद्रनाथ न कह सके कि - देखा है । चुप खड़े रह गए । वह आदमी खिलखिलाकर हंसने लगा । उसकी खिलखिलाहट छाती में छुरी की तरह चुभ गयी । और फिर वह आदमी जब भी मिलता । और अक्सर मिल जाता । पड़ोस में ही था । कहीं भी आते जाते मिल जाता । तो वह छोड़ता नहीं था मौका । पकड़ लेता - ईश्वर को देखा है ? ईमान से बोलो । ईश्वर को देखा है ?  रवींद्रनाथ ने 1 दिन उससे कहा - भई, यह प्रश्न मुझसे बारबार क्यों पूछते हो ? उसने कहा - गीताजलि क्या लिखी ? अगर ईश्वर को देखा नहीं है । तो क्यों ये गीत लिखे ? कैसे ये गीत लिखे ? ये सब गीत झूठे हैं । रवींद्रनाथ बचते थे । अगर उनको निकलना भी होता । तो चक्कर मारकर जाते । उसके घर के आसपास से न निकलते । तो वह आदमी उनके घर आने लगा । दरवाजा खटखटाने लगा । सुबह से ही आकर बैठ जाता । जब तक मिल न ले । तब तक जाता नहीं । और मिलता । तो वही सवाल । वही तीखी आखें । जिनके सामने झूठ न बोला जा सके ।
लेकिन 1 सुबह रवींद्रनाथ सागर तट पर गए थे । वहां उन्होंने सूरज को सागर पर चमकते देखा । सुबह होती थी । और सूरज निकलता था । और सूरज की लालिमा आकाश में भी फैल गयी थी । और सागर में भी । रात वर्षा हुई थी । रास्ते के किनारे गड्डों में जल भर गया था । जब झलक रहा था । विराट सागर में । और रास्ते के किनारे गंदे डबरों में भी चमक रहा था । उतना ही सुंदर । कुछ भेद न था डबरों में । और सागर में । सूरज के लिए कोई भला न था । डबरे भी वैसे ही थे । जैसे सागर । गंदे थे डबरे । और सागर स्वच्छ था । लेकिन सूरज का जो प्रतिबिंब बन रहा था । यह न तो गंदा होता है । और न स्वच्छ होता है । गंदगी प्रतिबिंब को कैसे छुएगी ? प्रतिबिंब तो अछूता रहता है । प्रतिबिंबों संन्यासी है । उसे कुछ भी नहीं छूता ।
यह भाव बोध । और जैसे 1 द्वार खुल गया । अब तक जो मन में ख्याल था । बुरे आदमी और अच्छे आदमियों का । सज्जन का । दुर्जन का । साधु का । असाधु का । गिर गया । 1 क्षण में गिर गया । और आज पहली बार उस आदमी पर क्रोध नहीं आया । उल्टा रवींद्रनाथ आगे बढ़े । और उस आदमी को गले लगा लिया । और वह आदमी हंसने लगा । तो उसने कहा कि - फिर, दर्शन हुआ । तो लगता है । दर्शन हुआ । तो लगता है । झलक मिली । अब बात ठीक हुई । अब तुम गीताजलि के गीत गाने योग्य हुए । क्या हो गया उस दिन ? बुरे भले का भेद मिट गया । पदार्थ परमात्मा का भेद मिट गया । संसार संन्यास का भेद मिट गया । भेद मिट गया । जिस दिन तुम्हारे भीतर अहंकार गिर जायेगा । उस दिन तुम्हारे भीतर से सारे भेद मिट जायेंगे । क्योंकि सारे भेदों का निर्माता अहंकार है । जिस दिन अहंकार गया । तुलना गयी । फिर तुम तौलोगे नहीं - कौन अच्छा । कौन बुरा । कौन ऊपर । कौन नीचे ।
अवल गरीबी अंग बसै । सीतल सदा सुभाव ।
पावस बूढ़ा परेम रा । जी सूं सींचो जाव ।
3 - ऐसा हुआ । बुद्ध की मृत्यु हुई । तो जब तक बुद्ध जीवित थे । किसी ने फिक्र भी न की थी कि उनके वचनों का संग्रह हो जाए । बुद्ध जीवित थे । किसी को याद भी न आया । फिर अचानक होश हुआ । जैसे 1 सपना टूटा । इतने बहुमूल्य वचन खो जाएंगे ऐसे ही । तो संग्रह ही करो । तो जो जाग चुके थे । बुद्ध के समय में । बुद्ध के बहुत शिष्य । जो बुद्धत्व को पा चुके थे । उनसे प्रार्थना की गई । उन्होंने कहा - हमने कुछ सुना ही नहीं कि बुद्ध ने क्या कहा । यह बकवास बंद करो । बुद्ध कभी बोले ही नहीं । इनका तो उनके मौन से संबंध जुड़ गया था । तो उन्होंने कहा - हमने तो सुना ही नहीं । तुम भी क्या बात कर रहे हो ? बुद्ध और बोले ? कभी नहीं । बुद्धत्व के बाद 40 साल चुप रहे । हमने तो चुप्पी सुनी । बड़ी मुश्किल खड़ी हो गई । जिन पर भरोसा किया जा सकता था । जो जाग गए थे । जिनकी वाणी का मूल्य होता । जिनकी रिपोर्ट सही होने की संभावना थी । वे कहते हैं - हमने सुना ही नहीं । कहां की बात कर रहे हो ? सपने में हो ? उनमें जो परम ज्ञानी था 1 - महाकाश्यप । उसने तो कहा - बुद्ध कभी हुए ही नहीं । किसकी बात उठाते हो ? कोई सपना देखा होगा । यह तो द्वार बंद हो गया । जो सर्वाधिक कीमती व्यक्ति था - महाकाश्यप । जिसको बुद्ध ने कहा था - जो मैं शब्द से दे सकता हूं । वह मैंने दूसरों को दे दिया महाकाश्यप । और जो शब्द से नहीं दिया जा सकता । वह मैं तुझे देता हूं । उस आदमी ने तो कह दिया । बुद्ध कभी हुए ही नहीं । कौन बोला ? किसने सुना ? कहां की बातें करते हो ?
तब आनंद का सहारा लेना पड़ा । आनंद बुद्ध के समय में ज्ञान को उपलब्ध नहीं हुआ । वह अज्ञानी ही रहा । वह अंधेरे में ही रहा । उसने शून्य को नहीं सुना । उसने शब्द को सुना । लेकिन उसके पास पूरा संग्रह था । उसकी स्मृति ने सब सम्हालकर रखा था । उसने सब बोल दिया । सब संगृहीत कर लिया गया । अब सवाल यह है कि अगर आनंद भी ज्ञान को उपलब्ध हो गया होता बुद्ध के जीते । तो बुद्ध के संबंध में तुम्हें कुछ पता भी नहीं हो सकता था । रेखा भी न छूट जाती । क्योंकि महाकाश्यप तो यह भी मानने को राजी नहीं कि यह आदमी कभी हुआ । अज्ञानी आनंद की ही अनुकंपा है कि बुद्ध के वचन संगृहीत हैं । 
तो मेरे मौन को जो समझ सकते हैं । वे तो 1 दिन कह देंगे कि यह आदमी कभी हुआ ? कहां की बात कर रहे हो ? यह कुर्सी सदा से खाली थी । सपना देखा है । लेकिन जो नहीं मेरे मौन को समझ पा रहे हैं । मेरे शब्द को ही समझ सकते हैं । उनका भी उपयोग है । शायद वे ही उस शब्द की नौका को दूसरों तक पहुंचा देंगे । शब्द की नौका का प्रयोजन तो शून्य के तट पर लगना है । लक्ष्य तो शून्य है । लेकिन लक्ष्य तो मिलेगा । तब मिलेगा । आज तो नौका भी मिल जाए । तो काफी है । ओशो 

कोई टिप्पणी नहीं: