15 जनवरी 2011

चोरी करना अच्छी बात है ??


जय गुरुदेव की । कैसे हो राजीव जी ? मेरी माँ का आपरेशन सकुशल पूर्ण हो गया है । और अब वो बिलकुल ठीक है । राजीव जी । आज मैं आपके सामने एक नयी समस्या लेकर आया हूँ ?? आशा है । समाधान करोगे । जय गुरुदेव की । राजीव जी । मेरा भाई जो कि एक कैफ़े में काम करता है । ( जिसे हम अमीरों का होटल भी कह सकते हैं । क्योंकि वहाँ सभी चीजें काफ़ी महँगी है । ) तो राजीव जी । वो कैशियर है । और उसकी पगार 6000 थाउजेंड पर मन्थ है । फ़िर भी वो रोज वहाँ से 200 - 300 रुपयों की चोरी करता है । और जो सामान होते हैं । खाने पीने के । वो भी लाता है । पर मेरे घरवाले उसे कुछ नहीं कहते । क्योंकि पैसा सबकी जबान बन्द कर देता है । पर अगर मैं उसे कुछ कहूँ । तो वो कहता है । मैंने पिछले जन्म में जो उधार दिया था । वो मुझे मिल रहा है । क्या उधार पाने के लिये चोरी करना जरूरी है । राजीव जी ?? और कब वो ये बात समझेगा कि ये गलत काम है ? क्योंकि वो तो पैसे के गरूर में अन्धा हो चुका है । उसे तो घमन्ड हो चुका है पैसों का । क्या वो कभी सुधर पायेगा ??? ( श्री विजय तिवारी जी । मुम्बई । ई मेल से । )
मेरी बात - आपकी बात सुनकर मुझे तीन लोगों की याद आती है । आपको याद होगा । वाल्मीकि पहले डाकू थे । जाने कब तक लोगों को लूटते रहे । कभी कोई बात नहीं हुयी । कभी नहीं लगा कि मैं सही कर रहा हूँ । या गलत कर रहा हूँ ? एक बार सच्चे साधुओं से टकरा गये । और बोले । निकालो जो कुछ माल पानी है । पास में । अब सच्चे संत को झेलना कोई मामूली बात तो होती नहीं ?? संत तुम्हें कुछ देते नहीं । उल्टे सब तुम्हारा ले लेते हैं । संशय रूपी असार संसार छीन लेते हैं । सार रूपी परमात्मा दे देते हैं । अब संतों ने कहा । तू सब ले ले भाई । उसकी फ़िकर नहीं । पर ये सब किसके लिये करता है ?? वाल्मीकि ने हैरत से कहा । परिवार के लिये । और किसके लिये ? संत बोले । फ़िर उनसे पूछकर आ । वे तेरे इस लूट में तो हिस्सेदार है । लेकिन क्या । भगवान के यहाँ जो दण्ड मिलेगा । उसमें भी हिस्सेदार होंगे या नहीं ?? वाल्मीकि ने कहा । बहुत सयाने बनते हो । इधर मैं पूछने जाऊँ । उधर तुम रफ़ूचक्कर हो जाओ । संतो ने कहा । हमें बांध जा भाई । तब पूछ के आ । हम लोगों को काल माया के बन्धन से छुङाते हैं । तू हमें बाँध जा ।..लौटकर डाकू वाल्मीकि महात्माओं के पैरों पर गिर पङा ।..बचा लो महाराज ।..बङी भूल में जी रहा था ?? अब तक । महात्माओं ने हँसते हुये पूछा । क्या हुआ ? क्या कहते हैं सब ? वाल्मीकि बोले । कहते हैं । हम तुम्हारे पाप में साझीदार क्यों होंगे ? हमारा पेट पालना तुम्हारा कर्तव्य है । अब तुम चोरी करो या डाका डालो । ये सोचना तुम्हारा काम है ।..बचा लो प्रभु । मेरा तो जीवन ही नष्ट हो जायेगा । संत बोले । उल्टा काम करता था । अब उलटा नाम जप ?? उसी से कल्याण होगा ।..उलटा नाम जपा जग जाना । वाल्मीकि भये बृह्म समाना ।..यहाँ मैं आप लोगों को बता दूँ कि वाल्मीकि ने उलटा नाम मरा मरा नहीं जपा था । बल्कि संतो द्वारा दिया जाने वाला । परमात्मा का वास्तविक नाम ढाई अक्षर का महामन्त्र जपा था । वाल्मीकि नारद घट जोनी । निज निज मुखन कही निज होनी ।
दो मित्र दूसरे देश में व्यापार के लिये रास्ते में जा रहे थे । उसी रास्ते से वापस आता एक आदमी मिला । बोला । उधर मत जाओ । एक बङी खतरनाक डायन बैठी हुयी है..आगे । पहले तो उसकी बात सुनकर कुछ डरे । फ़िर सोचा । चलते हैं । डायन से हमारा क्या लेना देना ? ये भी इच्छा हुयी । डायन कैसी है ? क्या कर रही है ?? चलो देखें । आगे पहुँचे । तो देखा । सोने चाँदी के जेवरात की पूरी पोटली ही खुली पङी थी । बङे खुश हुये । हमें बेबकूफ़ बना रहा था ।..अब तो व्यापार के लिये भी जाने की आवश्यकता नहीं । यहीं मालामाल जो हो गये ? चलो आधा आधा बाँट लेंगे । खुशी का कोई पारावार ही न था । धन मिल गया । अब पेट की भूख लग आयी । एक उसकी रक्षा के लिये बैठा । दूसरा खाना लाने गया । जो माल यों ही पङा था । उसके मालिक बन गये । अब रक्षा करने की सूझ गयी । यही माया है ।..अब माया असर डालने भी लगी । दोनों ही सोचने लगे कि किसी तरह पूरा ही माल अकेले हमको ही मिल जाय । तब भोजन लाने वाले ने सोचा कि उसके हिस्से में जहर मिलाकर ले चलता हूँ । खाकर मर जायेगा । फ़िर पूरा माल ही मेरा होगा । सिर्फ़ मेरा ।..मैं और मोर तोर तैं माया । दूसरा भी कुछ इसी तरह का सोच रहा था..?..खाना लेकर वापस पहुँचा । दोस्त को जहर वाला खाना दे दिया । दोनों खाने लगे । धन की रक्षा करने वाला भी सोचे बैठा था । मौका देखकर उसने खाना खाते दोस्त के सिर पर पत्थर पटककर मार डाला । और विष का भोजन खा लेने से कुछ ही देर में स्वयँ भी मर गया ।
एक आदमी जो चोरी करता था । एक साधु के पास गया । बोला । हर उपदेश सुनूँगा । हर बात सुनूंगा । पर ये मत कहना । चोरी बुरी बात है । इसीलिये मैं कोई सतसंग नहीं सुनने जाता । सभी साधु कहते है । चोरी मत करो । चोरी करना बुरी बात है । इसलिये केवल ये बात मत कहना । साधु ने कहा । मैं कब कहता हूँ । चोरी करना बुरी बात है ? चोरी करना तो अच्छी बात है । पर जो भी करना..ध्यान से करना । सतर्क होकर करना । सतर्क होने से कोई चूक नहीं होती ।..कुछ दिन बाद चोर फ़िर आया । बोला । ये क्या मुसीबत लगा दी । सतर्क रहना ?? सतर्क रहने से अब चोरी नहीं कर पाता । हर वक्त यही लगा रहता है । कोई देख न ले । कोई देख रहा है । अब तो चोरी करना ही मुश्किल है । अब मुझसे चोरी होती ही नहीं ।
एक और कहानी है । एक शिक्षक ने छोटे बच्चों को पाठ पढाया । परमात्मा हर जगह है । वो हमें हर समय देखता है । हर जगह देखता है ।..दूसरे ही दिन शिक्षक ने उदास होकर कहा । आज सब बच्चे अपने अपने घर से पैसे चुरा लाओ । मुझे बङी जरूरत आन पङी है ।..पर ध्यान रखना । चुपचाप लाना । तुम्हारे घर वाले या दूसरा कोई देखे नहीं । अगले दिन सब बच्चे कुछ न कुछ पैसे लेकर पहुँच गये । एक बच्चा नहीं ला सका । उससे पूछा । तुम क्यों नहीं लाये ? उसने कहा । आपने ही कहा था कि कोई देख रहा हो । तो मत लाना । शिक्षक ने पूछा । कौन देख रहा था ? उसने कहा । परमात्मा..आपने ही कहा था कि वो हर समय हर जगह हमें देखता है । तब कैसे लाता । गुरुजी ने उसे गले से लगा लिया ।..पुत्र तू मेरी शिक्षा ठीक समझा । चोरी की बात कहने के पीछे मेरी यही तो मंशा थी ।
एक और बात याद आती है । एक आदमी रोज सतसंग सुनने जाता था । घर में पैसा अच्छा था । मजे में जीवन कट रहा था । लेकिन उसका पङोसी कभी नहीं जाता था । एक दिन पङोसी की बीबी ने सतसंगी की बीबी से बात की । तो उसने कहा । हमारी सुख समृद्धि का रहस्य सतसंग ही है ।..अब तो उस पङोसी की बीबी ने ठेल ठेलकर अपने मियाँ को सतसंग के लिये भेजा । जब सतसंग में पहुँचा । तो ये लाइन कही जा रही थी । भगवान जिसको देता है । घर बैठे देता है । छप्पर फ़ाङकर देता है ।..बस हो गया सतसंग । सतसंग से धन कैसे मिले ? इसीलिये गया था । जब एक मिनट में ही नतीजा पता चल गया कि जिसको देता है । घर बैठे देता है । छप्पर फ़ाङकर देता है ।..अब क्या सुनना । लौटने लगा घर को । रास्ते में एक जगह लघुशंका की जरूरत महसूस होने पर बैठा । तब उसके मूत्रधार वेग से जमीन की थोङी रेत खुल गयी । और कुछ तेज चमक सी दिखाइ दी । लकङी से खुरचकर देखा । तो हीरे मोती गङे थे..उस जगह । लेकिन उसने फ़िर सोचा । जब घर बैठे ही देता है । तो यहाँ से क्या लादकर ले जाना । कौन मेहनत करे । घर आकर बीबी को बताया । तो उसने करम ठोंक लिया । पर आदमी निश्चिंत था । कथा वाला बाबा जब कह रहा था कि घर बैठे देता है । इसका मतलब घर बैठे ही देगा । अगर रास्ते में मिलने की बात होती । तो बाबा जरूर ये बात भी बताता ।..उधर उसका सतसंगी पङोसी अपनी बीबी के साथ दीवाल से कान लगाये पूरी बात सुन रहा था । अब सतसंगी की बीबी ने ठेलकर भेजा । तुम भी यही उपाय कर देखो । ये तो एक नम्बर का बेबकूफ़ निकला ।
लालची सतसंगी पङोसी भी वही कपट भाव लेकर सतसंग सुनने गया । प्रभु की लीला । आज फ़िर वही लाइन महात्मा बोला..जिसको भी देता..। भले ही कुछ देर में बोला । उसका भी हो गया सतसंग । रास्ते में पेशाब लगी भी नहीं..फ़िर भी जबरदस्ती करने बैठ गया । जबरदस्ती मूतने लगा । फ़िर से कुछ रेत खुला । हीरे मोती दिखे..। इसी की तो तलाश थी । इसी के लिये तो पहले से ही चादरा तैयार करके ले गया था । उसी में फ़टाफ़ट भर लिये । और खुशी खुशी घर के कमरे में बीबी को ले जाकर चादरा खोल दिया । ढेरों कांतर । बिच्छू । बर्र जमीन पर फ़ैल गये । बीबी की तो चीख ही निकल गयी । अरे ये क्या लाये हो तुम ? अब सोच में पङ गया । लगता है । देखने में धोखा हुआ था..और ये बात वो कमीना पङोसी जानता था । इसीलिये उसने जानबूझकर झूठी कहानी सुनाई । बेहद गुस्से में झाङू से उसने बर्र । बिच्छू । कांतर को फ़िर से चादरे में इकठ्ठा किया । और पङोसी को सबक सिखाने हेतु उसके आँगन में उलट दिया ।..गहराती शाम को पङोसी आंगन में बैठा खाना खा रहा था । अचानक हीरे मोती की बरसात होने लगी । उसने निश्चित होकर औरत से कहा । मैंने तुझसे पहले ही कहा था कि बाबाजी कह रहे थे । जिसको भी देता है । घर बैठे देता है । देख दिया कि नहीं ??
अब निष्कर्ष....तो जिस तरह शेर से कहो कि भाई घास खा लिया कर ? क्यों फ़ालतू में हत्या करता है । हिरन से कहो कि तू माँस खा लिया कर । दूसरे बहुत जानवर भी तो खाते हैं । तब न शेर कभी घास खा पायेगा । और न हिरन कभी माँस खा पायेगा । फ़िर आदमी कहाँ से आता है ? वो इन्हीं योनियों से तो निकलकर आता है । और अपने साथ अपने कई जन्मों के कर्म स्वभाव लाता है । क्या अच्छा है ? क्या बुरा है ? ये उसे तय करना है । उसे खुद ही भोगना है ।..ये माया है भाई । अच्छे अच्छों की बुद्धि फ़ेरकर नरक का सामान कर देती है । अच्छा बुरा क्या है ? ये हम मन बुद्धि से नहीं जान सकते । इसके लिये परमात्मा से जुङा उसका असली नाम ही ( ढाई अक्षर का महामन्त्र ) हमें सही गलत बताता है । जिसके लिये कबीर साहब ने कहा है । साधु ऐसा चाहिये । जैसा सूप सुभाय । सार सार को गहि रहे । थोथा देय उङाय । फ़िर परत्र सिर धुनहि । फ़िर पाछहि पछताय । कालहि कर्महि ईश्वरहि । मिथ्या दोष लगाय ।..जब बुरे कर्मों का फ़ल मिलना शुरू होता है । तब वह इंसान स्वयँ और उसके घरवाले कहते हैं ।.. हमारा समय खराब है । हमारे कर्म खराब रहे होंगे । ये ईश्वर हमारे साथ बङा अन्याय कर रहा है ।..इसीलिये तो कहते हैं कि वो चींटी का भी हिसाब रखता है । आप सबका । बहुत बहुत धन्यवाद ।

2 टिप्‍पणियां:

मनोज कुमार ने कहा…

संदेशप्रद रचना।

vandana gupta ने कहा…

बिल्कुल सही बात कही है………………बहुत सुन्दर और शिक्षाप्रद आलेख्।