29 जनवरी 2011

मन को नियन्त्रण में करना

मन बेहद उपयोगी लेकिन बेहद चंचल और खुरा्फ़ाती किस्म का उपकरण है । इसके उपयोगी पक्ष भी असंख्य हैं । और जीव की सभी सांसारिक गतिविधियाँ भी इसी के माध्यम से संचालित हैं । लेकिन आदिकाल से ही इसने मनुष्य क्या किसी भी जीव को शान्ति से नहीं बैठने दिया । यहाँ तक कि रात में सोते समय भी यह स्वप्न सृष्टि के माध्यम से सबको नचाता ही रहता है । इसलिये जैसा कि कहते हैं अति हर चीज की बुरी होती है ।

अति का भला न बोलना । अति की भली न चुप ।
अति का भला न बरसना । अति की भली न धूप ।

तो इस मन के सदैव भागते रहने की अति से अच्छे अच्छे धीर गम्भीर इंसान भी विचलित हो जाते हैं । फ़िर साधारण जन के लिये क्या कहा जाय । और तब इसका परिणाम क्रोध । चिङचिङापन । निराशा । जीवन से ऊब । बैचेनी आदि नकारात्मक पक्ष को लेकर आता है ।..पर वास्तव में मन क्या इतना शक्तिशाली है । जो किसी के काबू में आयेगा ही नहीं । क्या मन को लगाम नहीं लगायी जा सकती ?

सुरति शब्द योग में सबसे पहले इसी मन के ही पर काटे जाते है । आत्मा को जो इसने जङ प्रकृति से विषय वासनाओं की रस्सी से बाँध दिया है । उसी रस्सी को ही हमेशा के लिये काट दिया जाता है । लेकिन सुरति शब्द योग एक विधिवत गुरु धारण करने की क्रिया है । और इसके वास्तविक रहस्य दीक्षित ( दीक्षा लेने के बाद ) होने के बाद ही पता चलते हैं । अतः जब तक इंसान सुरति शब्द योग के इस स्कूल में एडमिशन न ले । यह उसके लिये ग्यानवर्धन के अलावा विशेष उपयोगी नहीं है । और स्कूल में तमाम कारणों के चलते सभी एडमिशन नहीं ले पाते फ़िर क्या किया जाय ?

मैं दो सरल यौगिक प्रयोग आपको बताता हूँ । जिनको करने में कोई कठिनाई नहीं होगी । लेकिन इससे पहले यह जान लें कि आखिर आपका मन किस तरह आपको अशान्त स्थिति में पहुँचा देता हैं । जिस प्रकार एक कुशल गृहिणी की यह इच्छा रहती है । उसके घर का सभी सामान यथास्थान व्यवस्थित सुसज्जित सलीके से रखा हो । लेकिन चंचल बच्चे तौलिया इधर । जूते उधर । स्कूल बैग किधर । ब्रुश कहीं । मंजन कहीं । झाङू यहीं । कपङे वहीं । मौजे मिले नहीं । घर के सामान को पजल गेम की तरह अस्तव्यस्त कर देते हैं । किसी किसी महिला के पतिदेव बच्चों से भी चार कदम आगे ही होते हैं ।

तो मन का अशान्त हो जाना स्वाभाविक ही है । इसी एक उदाहरण से ही जीवन के किसी भी पक्ष । किसी भी महिला । व्यक्ति । बालक आदि के बारे में विचार किया जा सकता है । जिसके मूल में एक कारण होता है । अव्यवस्था । अस्त व्यस्तता । यानी मन में उमङते घुमङते विचारों का अति दबाब में आकर नियंत्रण रहित हो जाना ।

इस स्थित को आप इस तरह समझें कि बीस लोग आपको घेरकर कोई इधर खींच रहा हो । कोई उधर खींच रहा हो । और वह इंसान बेबस सा ( बिना केन्द्रक के ) घिसट रहा हो । इस स्थिति को समझने के लिये डिस्कवरी चैनल पर हिंसक पशुओं के बीच घिरे उनके शिकार निरीह और कमजोर जानवर का भी उदाहरण ले सकते हैं । मनुष्य जीवन में बलात्कार व्यवहारी पुरुषों से घिरी असहाय महिला और गुंडा तत्वों से घिरा कोई सज्जन पुरुष आदि से भी समझा जा सकता है ।

आगे ध्यान से समझें । अशान्ति क्यों हो रही है ? दरअसल आपकी गाङी बिना स्टेयरिंग ( फ़ेल ) बिना ब्रेक ( फ़ेल ) के चल रही है । कह सकते हैं । केंद्रक यानी नियंत्रण हट चुका है । अब मान लीजिये । किसी तरह स्टेयरिंग और ब्रेक ठीक हो जाँय । तो क्या मजाल कि गाङी आपकी इच्छा के बिना इंच भर भी हिल सके । ऊपर के उदाहरणों में कोई बलबान राइफ़लधारी इंसान आकर फ़ायर कर दे । तो हिंसक पशु । बलात्कारी पुरुष । और गुंडा तत्व सभी भागकर तितर वितर हो जायेंगे । और पीङित इंसान को मजबूत सहारा रूपी केन्द्रक मिल जायेगा ।

पहली क्रिया बेहद सरल है । जो एक संत द्वारा मुझे बतायी गयी और जिसका प्रयोग भी करके मैंने देखा । एक दर्पण लें  और मुँह खोलकर गले में लटकते काग को देखें । बहुत अधिक आधा मिनट देखें ।.. ये दर्पण आपके हाथ में होना चाहिये । ना कि टायलेट बाथरूम बेडरूम आदि में फ़िक्स दर्पण । और इसकी कोई गूढ वजह नहीं है । बस हाथ के दर्पण में आप सहजता से ठीक तरह से नजदीक से देख पायेंगे ।.. बस इतने ही उपाय से उत्पन्न बैचैनी शान्त हो जायेगी ।

ये बहुत इम्पोर्टेंट है । ये भी एक यौगिक क्रिया है अतः इसको आप खेल न बना लें  कि बारबार दर्पण ही देखने लगें । जो चीज लाभ करती है गलत व्यवहार से हानि भी करती है । इसलिये इसका सही तरीका यही है कि कुछ क्षण ही देखें । कुछ देर बाद फ़िर देख सकते हैं लेकिन लगातार न देखें और राहत मिलने पर अगली बार दर्पण के बजाय कल्पना दृष्टि से देखें । मतलब वहाँ काग पर ध्यान ले जायँ ।

लेकिन विक्षिप्त अर्धविक्षिप्त जैसी स्थिति में पहुँच चुके महिला पुरुष बच्चे आदि यदि समझाने से इसको देखना सीख जाते हैं । तो वो एक घंटे भी देखते रहें । उनको लाभ ही होगा । दिन में बीस बार भी देखने पर उनको हानि नहीं होगी । जबकि सामान्य इंसान को हो जायेगी । कारण बहुत सीधा और सरल है । जिसको
डाक्टरी भाषा में सही डोज कहा जाता है । सामान्य इंसान की परेशानी साधारण सर्दी जुकाम वाले ज्वर की तरह है । अतः उसकी दवा की खुराक थोङी ही होगी । जबकि विक्षिप्त श्रेणी के इंसान असाध्य रोगी की श्रेणी में है । अतः उसका नियमित और लम्बा इलाज होगा ।

चाहे साधारण इंसान हो या विक्षिप्त । इस तरीके का एक ही बैग्यानिक कारण है । आपका मन जो अनेक विचारों में उलझकर अलग अलग जगह फ़ँस गया है । इससे केन्द्रित होकर संतुलन में आ जाता है । और आपकी विचार संरचना स्वस्थ शान्त इंसान की तरह पुनः व्यवस्थित हो जाती है ।

दूसरा उपाय बेहद प्रभावशाली है । और आप कितना भी क्यों न करो । इससे हानि नहीं होगी । लाभ ही लाभ होगा । हमारे शरीर में दो स्थानों पर चबन्नी अठन्नी के साइज के दो गोल गढ्ढे से होते है । एक मुँह के अंदर तालू में । दूसरा सिर में । इसको भी तलुआ ही बोलते हैं । हमारी तरफ़ तो यही बोलते हैं । कहीं और । कुछ और बोलते हों । इसका पता नहीं । इन दोनों तलुओं में एक बङा फ़र्क होता है । मुँह का गढ्ढा आजीवन ही पैदा होने के समय से मृत्यु तक उसी स्थिति में यानी कमजोर रहता है । इस स्थान की परत बेहद नाजुक होती है । जबकि सिर का तलुआ उमर बङने के साथ साथ । हड्डी बङने से संकुचित भी हो जाता है । और यह स्थान मजबूत भी हो जाता है । जबकि शिशु अवस्था में तलुआ लप लप करता रहता है । तब अम्मा देशी घी की मालिश करती है । आ गयी याद ? ये दोनों स्थान योग में बेहद रहस्यमय और शक्तिप्रदाता हैं । लेकिन इस प्रकरण में सिर्फ़ सिर के तलुए की ही बात है ।

यह क्रिया भी बेहद सरल है । और सुरति शब्द योग की तरह इसमें भी कुछ नहीं करना होता है । बस इसमें आपको ये सोचना है । कि नाभि से लेकर सिर के मध्य । तलुआ या उसके आसपास । ( वैसे तो सिर का मध्य एक तरह से चोटी वाला स्थान भी है । ) तक एक सीधी सरल रेखा आपके शरीर के अंदर बीचोबीच हैं । और आप उसी को देख रहें हैं । इसमें दिक्कत मालूम पङे । तो रेखा के स्थान पर बाँस यानी बाम्बू की कल्पना कर लें । कि इस स्थान पर एक बम्बू लगा हुआ है । और आप किसी नट की तरह उसी पर बार बार चढ रहे हैं । और उतर रहें हैं । इसमें भी परेशानी हो । तो आप ये कल्पना कर सकते हैं कि आप इसी बाँस के सहारे आराम से स्थिर होकर खङे हुये हैं ।..लेकिन कामी भावना के महिला पुरुषों के साथ इस उपाय में तब दिक्कत आ सकती है । जबकि उनका ध्यान बारबार यौनांगों पर ही जाता हो । और इस तरह के महिला पुरुष इस कदर मजबूर होते हैं कि वे कहाँ हैं । इसकी परवाह किये बिना कुछ कुछ देर बाद लिंग योनि के पास खुजाने जैसी क्रिया करते रहते हैं । उनके लिये इस अभ्यास में नाभि के बजाय गुदा से सिर तक कल्पना करनी होगी ।

किसी भी मंत्र तंत्र से रहित ये सरल उपाय शीघ्र लाभ करते हैं । अनुलोम विलोम भी मन को शान्त कर देता है । पर इसके साथ समस्या यही है । कि एक तो इसको हरेक कोई ठीक से कर नहीं पाता । दूसरे ये किसी भी समय कर सकें । ऐसा नियम नहीं है । खाना से पेट भरा होने पर । धूम्रपान आदि किये होने पर । किसी के सामने बैठा होने पर इसको नहीं कर सकते । यह केवल खाली पेट सुबह शाम करना ही ठीक होता है । जबकि ऊपर के दोनों उपाय किसी भी स्थिति में किये जा सकते हैं ।

25 जनवरी 2011

इसलिये मेरे भाई ये दोनों ही गलती पर हैं ।

Dear Sir..I am sorry I can't read Hindi , I like to know about my future and the soul.. how can you help me to get a reading of me. I trust you will help me..( मि. रंजन राने । ई मेल से । )
dear mr rane...how are you..i hope fine .
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स्वामी जी । एक बात का समाधान करें ।
ये पूजा-पाठ-ध्यान से तात्पर्य क्या है ? इसके निहितार्थ क्या हैं ? अगर कोई इंसान यह सब कुछ नहीं करता । न ही कभी मंदिर जाता है । मदिरापान भी करता है । लेकिन उसने कभी किसी से बदसलूकी नहीं की । किसी पराई स्त्री पर बुरी नजर नहीं डाली । किसी का रुपया नहीं हड़पा । किसी से छल-कपट नहीं किया । इसके ठीक विपरीत कोई इंसान ये सारे दुर्गुण संपन्न है । लेकिन पूजा-पाठ-ध्यान करता है । जैसा की आज के अधिकाँश साधू-सन्यासी करते हैं । तो आपकी नजर में कौन सही है । मोक्ष किसको मिलेगा ? अब बात को जलेबी न बनाईयेगा । सीधा जवाब चाहिए आपसे । बेनामी । पोस्ट । असली पूजा के रहस्य ??? । पर ।
मेरी बात..पूजा शब्द का गहन और गूढ अर्थ है । पूरा ( पू ) जानना ( जा ) । जानना और जाना का एक ही निहितार्थ है । मतलब कहीं जाने से ही उस जगह या चीज को जाना जा सकता है । पाठ का सामान्य वही अर्थ है । अध्ययन करना । ध्या का अर्थ दौङना या जाना न का अर्थ नहीं । यानी इसका गूढ अर्थ है । उस तरफ़ जाना । जहाँ जाने के बाद आपका भागना शान्त हो जाय । जो कि आप अनगिनत जीवन से भाग रहे हो । समस्त पूजा पद्धति का निष्कर्ष यही है । कि आप जो भटककर अपनी मूल पहचान भूल चुके हो । उसे फ़िर से जानने । प्राप्त करने का प्रयत्न । निहितार्थ के मायने यह है कि कालपुरुष ने सभी आत्माओं को अमरलोक से इस लोक के लिये बुलाया । और फ़िर काल और उसकी पत्नी माया ने इस महान शक्तिशाली अदभुत आत्मा को विभिन्न भोगों की विषय वासना में उलझाकर उसे तेजहीन करके बन्दी बना लिया । इसीलिये तमाम शास्त्र बन्धन मोक्ष की बात ही करते हैं ।
आपके मदिरापान वाले इंसान का उदाहरण के बारे में ..ये इंसान आपके दूसरे दुर्गुणी मगर पूजापाठ करने वाले से निसंदेह श्रेष्ठ है । आज के अधिकाँश साधु सन्यासी...नारी मरी गृह सम्पत्ति नासी । मूङ मुङाय भये सन्यासी । मेरी नजर में दोनों ही गलती पर है । इनमें मोक्ष किसी को नहीं मिलेगा । बात को जलेबी के बारे में..भाईसाहब हिन्दी भाषा और आध्यात्मिक मैटर को मैं अधिकाधिक सामान्य रूप से बताने की कोशिश करता हूँ । अगर मैं अपनी फ़ुल फ़ोर्म में विद्वान शैली में बताऊँ । तो इक्का दुक्का लोगों के पढने लायक ही ब्लाग रह जायेगा ।.. इसीलिये मैंने अपना परिचय सामान्य ही रखा । ताकि आप लोगों को मैं आपके बीच का ही इंसान नजर आऊँ । और आप अपने दिल की बात मुझसे सरलता से कह सको । ब्लाग में ज्यादातर चित्र मेरे गुरुदेव के हैं । कुछ और लोगों के हैं । मेरे मुश्किल से कुल आठ दस चित्र ही होंगे । ABOUT ME आदि सभी जगह गुरुदेव के ही चित्र हैं । मेरा तात्पर्य है कि इस अनमोल संत ग्यान को आप तक पहुँचाने के बाद भी मुझे सामान्य बने रहना ही सही लगता है । जबकि मैं चाहता । तो कोई हाईफ़ाई इमेज भी बना सकता था । इससे आप सहमत ही होंगे ?? या नहीं हैं ।..यह थी आपकी टू द प्वाइंट बात ।
आईये अब इस पर विस्तार से बातचीत करते हैं । एक स्कूल है । उसमें तीन तरह के छात्र हैं । एक आपके पहले इंसान जैसा..उसे किसी से कोई मतलब नहीं हैं । कुछ जानने सीखने की दिलचस्पी नहीं है । अपने में मस्त रहता है । ( एज मदिरापान ) । दूसरा..लापरवाह ढंग से पढाई कर रहा है । पढाई के नाम पर दिखावा कर रहा है आदि.. । ये दो आपके कमेंट के इंसान हैं । अब तीसरा इंसान मैं बता रहा हूँ । वह शिक्षा को सही ढंग से गृहण कर रहा है । नैतिक व्यवहार में भी ( शिक्षा के प्रभाव से ) श्रेष्ठ है । अब आप बताईये । परीक्षा में तीनों में किसका क्या रिजल्ट रहेगा ?? जाहिर है । आपके कमेंट वाले दोनों इंसान फ़ेल हो जायेंगे । तीसरा पास होकर जीवन को सफ़लता से जियेगा । अपनी मेहनत के बल पर आनन्द से जियेगा । जरा गहराई से सोचिये । स्कूल में ये तीन तरह के छात्र निश्चित होते हैं । जबकि तीनों के माँ बाप उसे अच्छी शिक्षा के लिये समान उद्देश्य के साथ सपने लिये स्कूल भेजते हैं । बिलकुल यही कहानी आपके प्रश्न औए पूजा को लेकर जीवन की है । आपने ग्यान द्वारा खुद को सफ़ल कर लिया । तो ठीक । वरना आपको 84 भुगतने जाना ही होगा । जिस प्रकार एक ही कक्षा के वे तीन छात्र । एक साहब । बन जाता है । और दूसरा मजदूरी करके जीवन बितायेगा । तीसरा धक्के खायेगा । जबकि स्कूल एक ही था । पढाई एक ही थी । इसलिये जीवन के इस स्कूल में हमने पशुवत समय गुजार दिया । तो निश्चय ही अगले जन्म में पशु बनकर बोझा ही ढोना होगा । आप इंटरनेट पर ब्लाग पढ लेते हो । इसका मतलब है । कुछ तो पढे लिखे हो । तब क्या आपने कक्षा सात आठ तक अनेको पाठयक्रमों में यह पाठ नहीं पढा ।..भोजन..नींद..मैथुन आदि यह तो पशु भी सफ़लता से कर लेते हैं । फ़िर मानव को सभी योनियों में सर्वश्रेष्ठ क्यों कहा गया है ??


अब यहाँ थोङा रहस्य है । कोई भी ये तर्क दे सकता है कि पशुओं की तुलना में मनुष्य आराम से सुख सुविधायें जुटाकर जीवन जीता है । इसलिये श्रेष्ठ है ।..लेकिन नहीं । बात इतनी ही नहीं है । मनुष्य को सभी योनियों ??? मतलब । देवता । राक्षस । यक्ष । किन्नर । गन्धर्व जैसी शक्तिशाली योनियों से भी श्रेष्ठ कहा गया है । इस तरह आपका ये तर्क फ़ेल हो जाता है । क्योंकि सुख । सुविधा । शक्ति । भोग । ऐश्वर्य आदि में ये लोग बहुत आगे होते हैं । फ़िर भी मनुष्य को इनसे भी श्रेष्ठ बताया गया है ।..बङे भाग मानुष तन पावा । सुर दुर्लभ सद गृन्थन गावा । साधन धाम मोक्ष का द्वारा । जेहि न पाय परलोक संवारा ।..तो सुर दुर्लभ यानी देवताओं के लिये भी दुर्लभ है । ये शरीर । वे भी लालसा करते हैं कि एक बार मनुष्य शरीर मिल जाय । क्यों ?? इसलिये क्योंकि केवल इसी शरीर में मोक्षप्राप्ति का दसवां द्वार है । देवताओं का मष्तिष्क अलग तरह का । केवल बृह्मान्ड सरंचना वाला ही होता है । जबकि मनुष्य के मष्तिष्क में पारबृह्म तक की बात होती है । केवल इसी शरीर के द्वारा परमात्मा की प्राप्ति और खुद की ID जानी जा सकती है । WHO AM I ?
ये तो साधारण चिंतन से ही सोचा जा सकता है कि.. ( अगर कोई इंसान यह सब कुछ नहीं करता । न ही कभी मंदिर जाता है । मदिरापान भी करता है । लेकिन उसने कभी किसी से बदसलूकी नहीं की । किसी पराई स्त्री पर बुरी नजर नहीं डाली । किसी का रुपया नहीं हड़पा । किसी से छल-कपट नहीं किया । )..अगर ऐसे इंसान का मोक्ष हो सकता है । तो मोक्ष से सरल कुछ है ही नहीं । यानी एक वक्त की रोटी कमाने से भी सरल मोक्ष हो गया ?? और... ( इसके ठीक विपरीत कोई इंसान ये सारे दुर्गुण संपन्न है । लेकिन पूजा-पाठ-ध्यान करता है । जैसा की आज के अधिकाँश साधू-सन्यासी करते हैं । तो आपकी नजर में कौन सही है ? )...ऐसे लोगों को भी मोक्ष मिलने लगे । तो फ़िर सभी को ही मोक्ष मिल जायेगा । वास्तव में मोक्ष इतना आसान सौदा नहीं है । अगर ऐसा होता । तो ग्यान की समृद्ध परम्परा नहीं बनी होती । उसकी आवश्यकता ही क्या थी ? इसलिये मेरे भाई ये दोनों ही गलती पर हैं ।
वास्तव में प्रभु की कृपा समान रूप से सबके लिये बरस रही है । पर इंसान अपने व्यवहार में बरसात में रखे इन चार घङों के समान है । 1 साबुत और सीधा रखा हुआ घङा । 2 साबुत मगर तिरछा रखा हुआ । 3 सीधा मगर तली में फ़ूटा हुआ । 4 उल्टा रखा हुआ । अब बरसात का पानी किसमें भरेगा । 1 वाला पूरा आराम से भर जायेगा । 2 कुछ छीटों आदि के द्वारा थोङा ही पानी आयेगा । 3 पानी तो पूरी तरह आयेगा । मगर सब बह जायेगा । 4 इसके भरने का तो कोई सवाल ही नहीं ।..मनुष्य की अलग अलग सोच और भक्ति का मामला भी ठीक ऐसा ही है ।.. धन्यवाद । यदि आप किसी बिन्दु पर संतुष्ट न हुये हों । तो फ़िर से पूछ सकते हैं । अगर मैं आपकी शंका समाधान कर सका । तो मुझे खुशी ही होगी ।

24 जनवरी 2011

मृत्यु के आगे बेवश


1998 को मेरी बड़ी बेटी जन्म 15 । 2 । 1998 । का देहांत हुआ था  घटना इस प्रकार है ।
 अक्टूबर 1997 को अचानक बुखार आया । डा. के पास ले गए तो उसने बताया कि मलेरिया हुआ है । इलाज किया ठीक हो गई । करीब 15 दिन बाद स्कूल से वापस आई कि बुखार आ रहा है । हम फिर डा. के पास ले गए । उसे मलेरिया वापस आया था । लेकिन इस बार बुखार उतरा ही नहीं उतरता फिर चढ जाता । धीरे धीरे उसका खाना बंद हो गया । एक खूबसूरत चेहरा काला पड़ता जा रहा था ।

दिसम्बर आते ही उसने खाट पकड ली । इस दौरान हमने होम्योपैथी से भी इलाज करवाया । पर कुछ नही हुआ । हमारी दुकान में काम करने वाले सज्जन एक आदमी को लाए । जिसने कुछ मंत्र पड़े और तकिए के नीचे कुछ रखा । पर कुछ फायदा नही हुआ ।

वो बोले कि मेरे बस का कुछ नही है मेरे गुरु से करवाओ । हम गुरु के पास गए  उन्होंने भी किया पर कुछ फायदा नजर नही आया । कोई कहता मुठमारी ( मूठ चलाना ) । है । कोई कहता उनघाला हुआ है । कोई कहता नजरा गई है ? आखिर 25 दिसंबर को हमने हास्पिटल में भर्ती करवाया । पर कोई फायदा न हुआ । उसका बुखार उतरता ही नहीं था ।

5 जनवरी 1998 को सुबह मेरे पति किसी मजार से धागा और गेंहू लाए । मैं उसे बाँध ही रही थी कि उसने कहा । मुझे बाथरूम जाना है । धागा वही रख के मैं उसे बाथरुम ले गई । वो बैठी ही थी कि चिल्ला पड़ी । मम्मी ।

मैंने पलटकर देखा तो वो बेहोश थी । कुछ लोग उठाकर उसे पलंग पर लाए  वो तडप रही थी । थोड़ी देर बाद वो कोमा में चली गई । 6 जनवरी को सुबह सवेरे 7 । 30 बजे उसकी मृत्यु हो गई । उसका जन्म भी सुबह 7 । 30 का ही था ।

 क्या उस पर कोई क्रिया हुई थी क्या उसका टाइम आ गया था  मुझे सच्चाई से अवगत कराएँ ?
मेरी विनती है मेरा नाम न छापें ।


मेरी बात..इनकी बात का एक लाइन का उत्तर है मेरे पास । जिसकी डोर ऊपर से टूट गयी उसे कोई नहीं जोङ सकता और वास्तव में यही बात थी । इनकी दिवंगत पुत्री अल्पायु लेकर आयी थी । उसे कोई क्रिया नहीं कराई गयी थी और उसे कोई बीमारी भी नहीं थी । पर मृत्यु भी कोई न कोई बहाना लेकर आती है ।

इनकी पुत्री जिस दिन बीमार हुयी । उसी दिन ऊपर से उसकी चेतना आपूर्ति खत्म कर न्यूनतम ( सांस चलती रहे इतनी) आपूर्ति की सप्लाई रह गयी । जीवन तत्व प्रकृति ने वापस खींच लिये और शरीर की गर्माहट बनी रहे । इस हेतु बस उसे नाममात्र जीवित रखा गया । इस तरह की ये अकेली मृत्यु नहीं थी । बल्कि ज्यादातर मृत्यु इसी तरह से होती हैं । बीमारी से लेकर मृत्यु तक का टाइम शिफ़्टिंग टाइम होता है । अर्थात जीवात्मा कहाँ शिफ़्ट होनी है । इस प्रकार के डाक्यूमेंट पर चित्रगुप्त आफ़िस में कार्य चल रहा होता है । और प्रत्येक क्षण करोङों जीवात्माओं का चलता ही रहता है । इसलिये इन क्रियाओं में स्वाभाविक इतना समय लग ही जाता है । उसके द्वारा टायलेट की इच्छा व्यक्त करते समय । ऊपर से उसके फ़ाइनल आदेश जारी हो गये थे ।

ये एक बङी बात थी कि इन्होंने मृत्यु को करीब से देखा था । जिस समय वह बेतरह तङप रही थी । उसके पिंडी चक्र टूट रहे थे । टायलेट के समय.. मम्मी चिल्लाते समय उसके गृन्थियों के लाक्स आटोमेटिक खुल चुके थे । और वह नयी नयी डरावनी छायाओं को देख रही थी । और बेहद भयभीत थी । वास्तव में मृत्यु के समय पिंडी चक्रों के टूटने का कष्ट और विकराल डरावनी छायाओं के भय से आदमी हतप्रभ सा हो जाता है । शरीर में ऊर्जा होती नहीं । और दिमाग निष्क्रिय हो जाता है । बेहोशी या कोमा जैसी स्थिति । शरीर में रहते हुये भी । शरीर से सभी सम्पर्क टूट जाना होता है । और आखिरकार उसकी मृत्यु हो गयी । और नये सफ़र । नये शरीर । नयी योनि । नये जीवन की आवश्यक कार्यवाही हेतु वह यमदूतों के साथ यमपुरी या यमलोक रवाना हो गयी । इसी के साथ आपसे । उसके इस जन्म के संस्कार समाप्त हो गये ।

लेकिन किसी भी बात का अंतिम सत्य यही नहीं है । मानव जीवन के अनगिनत रहस्यों की ये दास्तान बहुत लम्बी है । इसलिये ये बात यहीं समाप्त नहीं होती । बल्कि मेरे विचार से तो ये मौत ही है । जो जीवन के पार सोचने के लिये चिंतन के नये नये अध्याय खोलती है ।

आप बङे से बङे ग्यानी के पास चले जायँ । उपरोक्त घटना को इतना ही और सबसे बङा सत्य बतायेगा । यानी इसके आगे हम बेवश हैं । ईश्वर के आगे हम बेवश हैं । मौत के सामने किसी का वश नहीं चलता । यही सुनने को मिलेगा । पर दरअसल ये आधा भी नहीं चौथाई सत्य ही है । शेष 75 % सत्य कुछ अलग ही कहता हैं । क्या आप सावित्री सत्यवान । यमराज नचिकेता । कोढी ब्राह्मण की पतिवृता पत्नी और मांडव्य ऋषि । स्वरूपानन्द । कबीर । नानक । खिज्र साहब आदि तमाम संतों का इतिहास भूल गये । जिन्होंने मृत्यु का मुँह मोङकर उसे बैंरंग वापस कर दिया । यहाँ यह प्रश्न भी तो है कि अल्पायु आखिर क्यों मिली ?

आईये आगे की बात से पहले । कुछ अरब साल पहले । आपको बृह्ममंडल की बात बताते हैं । जब पहली बार सृष्टि का निर्माण हो रहा था और 33 करोङ देवताओं में निचले मगर प्रमुख स्तर के लोगों के पद और उनके अधिकारों का निर्धारण हो रहा था । तब इसमें मृत्युकन्या का लाखों सदस्यों वाला विशाल परिवार भी मौजूद था । रूप बदलने में माहिर । काली विकराल मृत्युकन्या नग्न अवस्था में अपने परिवार के साथ खङी आदेश की प्रतीक्षा कर रही थी ।  विशाल स्तनों और लम्बे केशों वाली ये देवी अपने कार्य के बारे में जानना चाहती थी । अपने कई रूपों के बारे में जानना चाहती थी । जो उसे मिलने वाले थे ।

( पर वह एकदम अलग और विस्त्रत विषय है)

मृत्युकन्या के इस विशाल परिवार में ज्वर । यक्ष्मा । कास । वृण । घात । शूल आदि लाखों छोटे बङे पुत्र आदि थे ।..तब इन कई देवताओं को जो वृतियों पर आरूढ हो सकते थे । वृतियों पर आश्रित थे । इंसान की प्रवृतियों द्वारा खुराक दी गयी । क्योंकि उस समय ये सब बेहद भूख से भूख भूख चिल्ला रहे थे । इस तरह 33 करोङ में 33 प्रमुख और 33 में भी 3 प्रमुख । और तब 33 करोङ में 33 के अलावा जब सभी निम्न स्तर वालों का कार्य आदि निर्धारण हो गया । इसी के साथ सृष्टि में जन्म मरण का चक्र गतिमान हो गया ।


लेकिन..जैसा कि मैंने ऊपर कहा । यही अंतिम सत्य नहीं है । मृत्युकन्या का यह परिवार किन नियमों में बँधा है । इसको बताने से बात बहुत लम्बी हो जायेगी । जो गलती इन महिला से हुयी । या उस किंकर्तव्यविमूढ परिस्थितियों में अक्सर सभी से हो ही जाती है । वो है । परमात्मा से आस्था हटकर भटकाव का शुरू हो जाना । दरअसल सुख की जिन्दगी में । मौजमस्ती की जिन्दगी में हम परमात्मा का कोई ख्याल ही नहीं करते । इसीलिये ये कहा जा सकता है कि दुख के समय फ़िर वो भी हमारा ख्याल क्यों करे ?

मेरा आपसे बारबार यही कहना है । कोई तांत्रिक मांत्रिक भले ही सच्चा हो । आप उससे कोई इलाज न करायें । और इस तरह के जगह जगह भटकाव से बचें । तथा इसके स्थान पर परमात्मा से अविरल अट्टू आस्था रखें । तो 99 % होनी भी टल जायेगी । अकाल मृत्यु टल जायेगी । अगर किसी तंत्र से भी इलाज होना आवश्यक होगा । तो आप सिर्फ़ परमात्मा से निरंतर प्रार्थना करें । पीङित से भी परमात्मा का सुमरन पूर्ण विश्वास से करायें । यकीन मानिये । जिस तरह के भी इलाज की जरूरत होगी । वो इलाज चलकर आपके घर खुद आयेगा । ऐसे हालात खुद बन जायेंगे । जिससे भला ही भला होगा । और तब कबीर को ये नहीं कहना होगा । सुख में सुमरन ना किया । दुख में करता याद । कह कबीर उस दास की कौन सुने फ़रियाद ।..यहाँ सिर्फ़ आपकी ही बात नहीं है । ज्यादातर लोग बात लाइलाज होने पर संतों से उपाय पूछते हैं । और उन्होंने जीवन में सही तरीके से पुण्य संचय भी नहीं किया होता । जो कोई उलटफ़ेर की सिफ़ारिश भी ऊपर की जाय । अगर मेरी बात मानों । तो सच्चे संतो को तलाश करना सीखो । इसके लिये परमात्मा से प्रार्थना करो । वह आपको सच्चे संत से मिलवाने की स्वतः युक्ति कर देगा । तब संत की तन मन धन से सेवा करते हुये । उससे परमात्मा का वास्तविक नाम जानें । उस नाम की भक्ति करें । तब आपके जीवन में ऐसी दुखद घटना दूर दूर तक नहीं हो सकती । यही किसी माँ बाप के लिये अपनी औलाद के प्रति सच्चा फ़र्ज है । यही किसी समर्थ औलाद का भी अपने माँ बाप के प्रति सच्चा कर्तव्य है । एक सच्चा रामभक्त अपनी पूर्व और आनेवाली मिलाकर 21 पीङियों का उद्धार कर देता है । और लाखों जन्म तक यश और ऐश्वर्य का भागी होता है ।

23 जनवरी 2011

मनुष्य के लिए आनंद का मार्ग


नवसंन्यास क्या ? संन्यास मेरी दृष्टि में । पूरब की श्रेष्ठतम देन - संन्यास । मनुष्य है 1 बीज । अनंत संभावनाओं से भरा हुआ । बहुत फूल खिल सकते हैं । अलग अलग प्रकार के । बुद्धि विकसित हो मनुष्य की । तो विज्ञान का फूल खिलता है । और हृदय विकसित हो तो काव्य का । और पूरा मनुष्य ही विकसित हो जाए । तो संन्यास का ।
संन्यास है - समग्र मनुष्य का विकास । और पूरब की मनीषा ने । पूरब की प्रतिभा ने जगत के विकास को जो दान दिया है । वह संन्यास है ।
संन्यास का अर्थ है । जीवन को 1 काम की भांति नहीं । वरन 1 खेल की भांति जीना । जीवन नाटक से ज्यादा न रह जाए । बन जाए 1 अभिनय । जीवन में कुछ भी इतना महत्वपूर्ण न रह जाए कि चिंता को जन्म दे सके । दुख हो या सुख । पीड़ा हो । संताप हो । जन्म हो । या मृत्यु ।
संन्यास का अर्थ है इतनी समता में जीना । हर स्थिति में कि भीतर कोई चोट न पहुंचे । अंतरतम में कोई झंकार भी पैदा न हो । अंतरतम ऐसा अछूता रह जाए जीवन की सारी यात्रा से । जैसे कमल के पत्ते पानी में रहकर भी पानी से अछूते रह जाते हैं । ऐसे अस्पर्शित । ऐसे असंग । ऐसे जीवन से गुजरते हुए भी जीवन के बाहर रहने की कला का नाम संन्यास है । यह कला बहुत विकृत भी हुई । जो भी इस जगत में विकसित होता है । उसकी संभावना विकृत होने की भी होती है । संन्यास विकृत हुआ । संसार के विरुद्ध खड़े हो जाने के कारण, संसार की निंदा, संसार की शत्रुता के कारण । संन्यास खिल सकता है वापस । फिर मनुष्य के लिए आनंद का मार्ग बन सकता है । संसार के साथ संयुक्त होकर । संसार को स्वीकृत करके । संसार का विरोध करने वाला । संसार की निंदा और संसार को शत्रुता के भाव से देखने वाला संन्यास । अब आगे संभव नहीं होगा । उसका कोई भविष्य नहीं है । है भी रुग्ण वैसी दृष्टि ।
यदि परमात्मा है । तो यह संसार उस परमात्मा की ही अभिव्यक्ति है । इसे छोड़कर, इसे त्याग कर परमात्मा को पाने की बात ही नासमझी है । इस संसार में रहकर ही इस संसार से अछूते रह जाने की । जो सामर्थ्य विकसित होती है । वही इस संसार का पाठ है । वही इस संसार की सिखावन है । और तब संसार 1 शत्रु नहीं । वरन 1 विद्यालय हो जाता है । और तब कुछ भी त्याग करके । सचेष्ट रूप से त्याग करके । छोड़कर भागने की पलायनवादी वृत्ति को प्रोत्साहन नहीं मिलता । वरन जीवन को उसकी समग्रता में, स्वीकार में, आनंदपूर्वक, प्रभु का अनुग्रह मानकर जीने की दृष्टि विकसित होती है । भविष्य के लिए मैं ऐसे ही संन्यास की संभावना देखता हूं । जो परमात्मा और संसार के बीच विरोध नहीं मानता । कोई खाई नहीं मानता । वरन संसार को परमात्मा का प्रकट रूप मानता है । और परमात्मा को संसार का अप्रकट छिपा हुआ प्राण मानता है । संन्यास को ऐसा देखेंगे । तो वह जीवन को दीनहीन करने की बात नहीं । जीवन को और समृद्ध और संपदा से भर देने की बात है ।
असल में जब भी कोई व्यक्ति जीवन को बहुत जोर से पकड़ लेता है । तभी जीवन कुरूप हो जाता है । इस जगत में हम जो भी जोर से पकड़ेंगे । वही कुरूप हो जाएगा । और जिसे भी हम मुक्त रख सकते हैं । स्वतंत्र रख सकते हैं । मुट्ठी बांधे बिना रख सकते हैं । वही इस जगत में सौंदर्य को, श्रेष्ठता को, शिवत्व को उपलब्ध हो जाता है । जीवन के सब रहस्य ऐसे हैं । जैसे कोई मुट्ठी में हवा को बांधना चाहे । जितने जोर से बांधी जाती है मुट्ठी । हवा मुट्ठी के उतने ही बाहर हो जाती है । खुली मुट्ठी रखने की सामर्थ्य हो । तो मुट्ठी हवा से भरी रहती है । और बांधी मुट्ठी कि हवा से खाली हो जाती है । उलटी दिखाई पड़ने वाली । उलटबांसी सी यह बात, कि मुट्ठी खुली हो । तो भरी रहती है । और बंद की गई हो । बंद करने की आकांक्षा हो । तो खाली हो जाती है । जीवन के समस्त रहस्यों पर लागू होती है । कोई अगर प्रेम को पकड़ेगा । बांधेगा । प्रेम नष्ट हो जाएगा । कोई अगर आनंद को पकड़ेगा । बांधेगा । आनंद नष्ट हो जाएगा । और कोई अगर जीवन को भी पकड़ना चाहे । बांधना चाहे । तो जीवन भी नष्ट हो जाता है । संन्यास का अर्थ है । खुली हुई मुट्ठी वाला जीवन । जहां हम कुछ भी बांधना नहीं चाहते । कुछ भी रोकना नहीं चाहते । प्रवाह । और सतत नये की स्वीकृति । और कल जो दिखाएगा । उसके लिए भी परमात्मा को धन्यवाद का भाव । बीते हुए कल को भूल जाना है । क्योंकि बीता हुआ कल । अब स्मृति के अतिरिक्त और कहीं भी नहीं । जो हाथ में है । उसे भी छोड़ने की तैयारी रखनी है । क्योंकि इस जीवन में सब कुछ क्षणभंगुर है । जो अभी हाथ में है । क्षण भर बाद हाथ के बाहर हो जाएगा । जो स्वांस अभी भीतर है । क्षण भर बाद बाहर होगी । ऐसा प्रवाह है जीवन । इसमें जिसने भी रोकने की कोशिश की । वही गृहस्थ है । और जिसने जीवन के प्रवाह में बहने की सामर्थ्य साध ली । जो प्रवाह के साथ बहने लगा - सरलता से । सहजता से । असुरक्षा में । अनजान में । अज्ञात में । वही संन्यासी है ।
संन्यास के 3 बुनियादी सूत्र खयाल में ले लेने जैसे हैं ।
पहला - जीवन 1 प्रवाह है । उसमें रुक नहीं जाना । ठहर नहीं जाना । वहां कहीं भी घर नहीं बना लेना है - 1 यात्रा है । और जीवन में पड़ाव हैं बहुत । लेकिन मंजिल कहीं भी नहीं । मंजिल जीवन के पार परमात्मा में है । दूसरा - जीवन जो भी दे । उसके साथ पूर्ण संतुष्टि । और पूर्ण अनुग्रह । क्योंकि जहां असंतुष्ट हुए हम । तो जीवन जो देता है । उसे भी छीन लेता है । और जहां संतुष्ट हुए हम । जीवन जो नहीं देता । उसके भी द्वार खुल जाते हैं । और तीसरी बात - जीवन में सुरक्षा का मोह न रखना । सुरक्षा संभव नहीं है । तथ्य ही असंभावना का है । असुरक्षा ही जीवन है । सच तो यह है । सिर्फ मृत्यु ही सुरक्षित हो सकती है । जीवन तो असुरक्षित होगा ही । इसलिए जितना जीवंत व्यक्तित्व होगा । उतना असुरक्षित होगा । और जितना मरा हुआ व्यक्तित्व होगा । उतना सुरक्षित होगा । सुना है मैंने । 1 सूफी फकीर मुल्ला नसरुद्दीन ने अपने मरते वक्त वसीयत की थी कि मेरी कब्र पर 1 दरवाजा बना देना । और उस दरवाजे पर कीमती से कीमती, वजनी से वजनी, मजबूत से मजबूत ताला लगा देना । लेकिन 1 बात ध्यान रखना । दरवाजा ही बनाना । मेरी कब्र के चारों तरफ दीवार मत बनाना । कब्र पर दरवाजा बना है । आज भी नसरुद्दीन की कब्र पर दरवाजा खड़ा है - बिना दीवारों के । ताले लगे हैं जोर से । मजबूत । चाबियां समुद्र में फेंक दी गईं । ताकि कोई उन्हें खोज न ले । नसरुद्दीन की यह मरते वक्त आखिरी मजाक थी । 1 संन्यासी की मजाक संसारियों के प्रति ।
हम भी जीवन में कितने ही ताले डालें । सिर्फ ताले ही रह जाते हैं । चारों तरफ जीवन असुरक्षित है सदा । कहीं कोई दीवार नहीं है । जो इस सत्य को स्वीकार करके जीना शुरू कर देता है कि जीवन में कोई सुरक्षा नहीं है । असुरक्षा के लिए मैं राजी हूं । मेरी पूर्ण सहमति है । वही संन्यासी है । और जो असुरक्षित होने को तैयार हो गया । निराधार होने को । उसे परमात्मा का आधार उपलब्ध हो जाता है ।

20 जनवरी 2011

मून्दहूँ आँख कितहू कछु नाहीं ।


जहाँ पर पोंगापंथी विचार होते हैं । वहां ज्ञान का क्या काम ? जहाँ पर अंधी आस्था होती है । वहां पर तर्क का क्या काम ? जब दिमाग में लबालब कबाड़ भरा हो । तब नया कुछ जानने और समझने की गुंजाईश ही कहाँ बचती है ? काहे का विमर्श ?  आपने लिखा है - " दो महीने मेरे नेट पर अनुपस्थित रहने पर बहुत लोगों को बैचेनी रही । "
आपने देखा होगा । देश के सारे आश्रम । मंदिर और बाबा हाउसफुल हैं । दरअसल यह भी एक तरह का नशा होता है । मेरे मोहल्ले में एक त्रिपाठी जी हैं । महापाजी । धूर्त । कपटी । हद दर्जे के चरित्रहीन । रोज ही किसी न किसी प्रवचन में जाते हैं । शहर में कब कौन से संत आ रहे हैं । कहाँ किसका प्रवचन है । त्रिपाठी जी को सब पता रहता है । कई वर्षों से उनका यही रूटीन है । अच्छी खासी पेंशन मिल रही है । इसलिए कोई चिंता नहीं । शायद ही आज तक किसी के दुःख में उन्होंने मदद की हो । अब बताईये इतने प्रवचन सुनने और संतों की संगत का क्या असर पड़ा उन पर ? यह सिर्फ एक ख़ास तरह का नशा है बस ।
जिन चीजों की आप विस्तृत व्याख्या करते हैं । उसे कोई भी जरा सा तर्कवान व्यक्ति जो मनोविज्ञान को समझता हो । असलियत समझ आ जायेगी । लेकिन आप जैसे महाप्रभु । बृह्मा के डायरेक्ट एजेंट धन्य हैं । ये सब न करें तो स्वमहिमा कैसे बयान की जाए ।..मून्दहूँ आँख कितहू कछु नाहीं । बेनामी । पोस्ट दुनियाँ होशियार । मैं पागल । पर ।
मेरी बात..वास्तव में मैं इन सज्जन से काफ़ी हद तक सहमत हूँ । कहा जाता है कि एक मछली सारे तालाब को गन्दा कर देती है । लेकिन जब ऐसी मछलियाँ बहुत सारी हों । तब स्थिति वाकई चिंताजनक हो जाती है । और सत्य को लेकर तो ये स्थिति अक्सर बनी ही रहती है । और तब अच्छे लोग भी इसके दायरे में आ जाते हैं । जो हमेशा ही बेहद गिने चुने ही रहे । कबीर आदि के समय में तो यह स्थिति बेहद विकट थी ।
बहुत पुराने समय से ही विद्वानों का ये मानना रहा है कि आपका समर्थन करने वाले जहाँ आपका हौसला बङाते है । वहीं मीन मेख निकालने वाले चिंतन को नयी दिशा देते हैं । नये आयाम बनबाने में सहायक की भूमिका अदा करते हैं । इसीलिये वास्तव में ईमानदारी की बात कही जाय । तो जीवन में दोस्त से अधिक सहायक दुश्मन होता है । क्योंकि वो आपको हर पल । हर स्तर पर मजबूती रखने की प्रेरणा सी देता है ।
पर यहाँ एक बात ग्यात अग्यात की भी तो महत्वपूर्ण है । आप है कौन ? अपना परिचय क्यों नहीं देते । आपको एतराज है । तो किस बात पर ? इस तरह का कोई उल्लेख न होने पर पूरी आलोचना ही व्यर्थ और महत्वहीन हो जाती है । यह ठीक है कि धार्मिक भावनाओं का अधिक फ़ैलाव होने से तार्किक ग्यान की जगह अंधश्रद्धा अंधविश्वास का बोलबाला ही अधिक दिखता है । लेकिन अध्यात्म सम्पदा के नाम पर भारत विश्व में हमेशा ही सर्वश्रेष्ठ रहा है । तब सबके दिमाग में लबालब कबाङ ही भरा है । ये कहना कितना उचित है ? आपके कथन से अस्पष्ट ही सही इस बात की टोन निकल रही है कि ये अध्यात्म आदि सब बेकार ही है । तब हमारा पूरा धार्मिक इतिहास ही चौपट हो जाता है । अब तक के इतिहास की सभी महान हस्तियाँ ही नगण्य हो जाती हैं । किसी एक त्रिपाठी जी से समस्त समाज कलंकित की श्रेणी में नहीं आ सकता ।..जिसको जो आता है । वो अपने माध्यम के द्वारा समाज से शेयर ही करता है । फ़िर आप किसी शिक्षक के लिये भी कहोगे कि वो ग्यान बघारता हुआ । अपनी महिमा बखान करता है । यहाँ जितने भी ब्लाग हैं । साइटस हैं । वो अपने विचार ही तो रख रहें हैं । मगर आप सिर्फ़ किसी को गलत तो बता रहे हो । मगर वो क्या गलत कर रहा है ? और आपके विचार में सही क्या होना चाहिये ? इस विषय में आपका अनुसंधान क्या है ? ( जब आपको इसका गलत पक्ष पता है । तो सही क्या है । ये भी पता होगा । ) बस इतना कह देने से कि ये गलत है । कोई बात हल नहीं हो जाती है ।..दूसरी बात । महिमा बखान करने से किसी को क्या हासिल हो सकता है ? आपके जिक्र पर मैं ये बात कह रहा हूँ । हमारे पास विदाउट इंटरनेट भी लोग आते हैं । और इस ब्लाग के माध्यम से भी लोग आते हैं । 100 किमी दूरी से भी आया हुआ इंसान रुकता है । ( जबकि 500 और 700 किमी वाला तो हर हाल में रुकेगा । तब उसके रुकने । खानपान की व्यवस्था करनी होती है । और तमाम लोग ऐसे होते हैं । जो 100 या 51 रुपये चलते समय किसी संत को दे जाते हैं । यानी ये प्राफ़िटेविल बिजनेस ही नहीं है । सोचिये दो तीन दिन रुके मेहमान के लिये समय और उसकी अन्य व्यवस्थायें कितनी मुश्किल होती हैं । अब इसी ब्लाग से । आपको मालूम होगा कि इससे कोई आमदनी तो होती नही । उल्टे समय और इंटरनेट का खर्चा अलग से होता है । यहाँ मैं ये भी स्पष्ट कर दूँ कि ब्लाग की बजाय जब हम मौखिक रूप से सतसंग करते हैं । तो धन । जय जयकार । पाँय लागन । कई गुना होता है । पर किसी भी सच्चे संत को इन चीजों से लेना देना नहीं होता । उसका उद्देश्य अधिक से अधिक लोगो को चेताना । ग्यान बाँटना होता है । अब जैसा देश । वैसा भेस । जैसा पानी । वैसी वानी । की तर्ज पर ।

आज इंटरनेट अपनी बात पहुँचाने का सशक्त माध्यम है । आपको बता दूँ कि 16 की आयु से लेकर । 80 की आयु वाले तक मेरा ब्लाग पढते हैं । आफ़िस में बैठे लोग । मोबाइल यूजर । हाउस वाइफ़ । प्राइवेट कम्पनी आफ़िस वाले लोग आदि सभी । और इसका एक ही कारण है । आत्मा और भगवान के बारे में कोई कुछ जानता हो । या न जानता हो । यह सबका विषय है । सबसे जुङा हुआ विषय है । किसी को कहानी । कविता । लेख । अपने अपने स्तर पर पसन्द नापसन्द हो सकते हैं । पर इसमें सबकी जिग्यासा अधिकतर होती ही है । एक नास्तिक जब पूरे जोर से यह बात कहता है कि भगवान नहीं है । तब क्यों नहीं है । इसकी एक ही ठोस वजह उसके पास होती है । जब है । तो दिखता क्यों नहीं है ? जबकि दिखता तो आस्तिक को भी नहीं हैं । पर उसका पूरा विश्वास पूरी श्रद्धा होती है । नास्तिक के पास । दिखता नही..इस बात के अलावा अपनी बात साबित करने का कोई चारा नहीं । जबकि आस्तिक के पास करोंङो साल पुरानी परम्परा है । बहुमत है । भले ही उसे इस विषय में अधिक जानकारी नहीं है । चलो ये बात मान लेते हैं कि देश के सभी मन्दिर आश्रम बाबा हाउसफ़ुल हैं । लेकिन क्या आपने विचार किया है । कि TV इंटरनेट की तरह इनमें भी आदमी का बहुत सा समय गुजर जाने से कितनी बीमारियाँ शान्त रहती हैं । वरना खाली होने पर करोङों की ये जनसंख्या क्या उत्पात खङा कर सकती है । इसका कोई अन्दाजा है । क्योंकि खाली दिमाग शैतान का घर होता है । तो कहीं न कहीं । कोई सहारा लेकर इंसान टिका तो है ।
अब आपके कथन में..मून्दहूँ आँख कितहू कछु नाहीं । मुझे यही सबसे इम्पोर्टेंट लगा । जिसकी वजह से प्रत्युत्तर में ये लेख लिखा । महान संत सहजो बाई ने कहा है ।.. तीनों बन्द लगाय कर । अनहद सुनो टंकोर । सहजो सुन्न समाधि में । नहिं सांझ नहिं भोर ।..शायद आप इसका अर्थ न समझ पाँय । इसलिये बता रहा हूँ । तीनों बन्द । यानी । कान । आँख । मुँह को उंगलियों से योग की एक मुद्रा द्वारा बन्द करना । अनहद ध्वनि । मतलब लगातार अखन्ड होने वाली ध्वनि । ररंकार । जो घट ( शरीर ) आकाश में गूंज रही है । इसको दस मिनट एकाग्रता से सुनने पर सहज समाधि ( चेतन समाधि ) लग जाती है । और व्यक्ति आनन्द ही आनन्द में पहुँच जाता है । नहिं सांझ नहिं भोर..यानी इसके लिये कोई समय । कोई नियम नहीं है । जब मौज आये समाधि का आनन्द कभी भी कहीं भी ले सकते हैं । यानी आप जो.. मून्दहूँ आँख कितहू कछु नाहीं.. । कह रहे हैं । संतों का मामला बिलकुल उलट है । इसमें संसार की ओर से आँख मूंदने पर ही सच्चाई पता चलती है । और बृह्म सत्य । जगत मिथ्या । शास्त्र सूत्र सिद्ध हो जाता है । यानी अंतर्दृष्टि खुलती है । अब अंत में..आप यही कह सकते हो । इन बातों का प्रमाण क्या ? कैसे साबित हो ? शीघ्र और सरल तरीके से जानने हेतु मेरे पास आना होगा । अपने अहम के कारण न भी आना चाहो । तो क्रिया में बता रहा हूँ । खुद करके देखना ।
अंगूठे के पास वाली दोनों उंगली । दोनों कानों में इस तरह टाइट घुसाना । कि बाहरी आवाजें सुनाई देना बन्द हो जायें । अब अंगूठे से दो नम्बर वाली उंगली । आंखों की पलकों पर टाईट । मगर सहनीय रखकर दबाते हुये आंखे मूंद लेना । शेष बची दोंनों उँगलियाँ मुँह बन्द कर । उस पर रखते हुये । आरामदायक अवस्था में बैठकर ।अन्दर जो भी आवाज सुनाई दे । उसको सुनना । पहले घङघङाहट की आवाज सुनाई देगी । मानों रथ दौङ रहा हो । फ़िर कुछ अभ्यास के बाद । बहुत सी चिङियों की चहचहाहट सुनाई देगी । फ़िर ये सूक्ष्म होती जायेगी । और ररंकार ध्वनि शुरू होने लगेगी । जो असली राम का नाम है । और जिसको जानने से । इंसानी समझ के बजाय । संतो वाली रमझ जाग्रत हो जाती है । बस इससे ज्यादा । मेरे पास कहने को कुछ नहीं है । क्योंकि हाथ कंगन को आरसी क्या । पढे लिखे को फ़ारसी क्या । अब तो आप स्वयं प्रयोग करके देख सकते हैं । और ये मैं आपको निशुल्क ही दे रहा हूँ ।

19 जनवरी 2011

गुङ का गोबर कभी नहीं होता


बातें तो अच्छी कर लेते हैं ।...क्योंकि हो सकता है ?? आपने सभी गृन्थ और शास्त्र अच्छी तरह से पढ लिये हैं..जिनका इनडायरेक्टली इशारा आपकी इस बात की तरफ़ है कि आपको ग्यान प्राप्त हो गया है ।..लेकिन एन्ड में सब गुङ गोबर कर दिया..?..( पर आप लोग सिर्फ़ बातें करना जानते हैं । बङी बङी बातें । आओ मेरे पास । और सीखो । इस अमूल्य ग्यान को । इस अमूल्य परम्परा को । मैं मर गया । फ़िर आपको कौन बतायेगा ? और कौन सिखायेगा । ये सब ?? )..ग्यान है । तो लोग खुद ही खिंचे चले आयेंगे । आपको बुलाने की क्या जरूरत है ?...आपने पढ पढकर ग्यान तो ले लिया । मगर आपकी । मैं । अभी खत्म नहीं हुयी है ।..और जब तक वो है । तब तक सब ग्यान व्यर्थ है । किताबी है । अगर कुछ बुरा लगा हो । तो सारी । पर मुझे जो लगा । मैंने कहा । Harman । पोस्ट । पराये पुरुष से बच्चे पैदा करना नियोग या संभोग ? । पर ।
मेरी बात..मुझे ये कहावत ही बङी अटपटी सी लगती है । दरअसल गुङ जैसे श्रेष्ठ पदार्थ में कोई भी क्रिया क्यों न हो । वो गोबर कभी नहीं हो सकता ?..आपकी बात से मुझे एक साधु की बात याद हो आयी । जो उन दिनों सहज समाधि क्रिया सीखने के लिये मेरे पास रुका हुआ था । और बात इसी मैं पर चल रही थी । तो मैंने ( अब यहीं बताईये । मैंने या हमने के अलावा कौन सा शब्द यूज करूँ ? ) सतसंग वार्ता में इसी मैं रूपी अहम को पचासों जगह परमात्म प्राप्ति में बाधक बताया । और उसके उदाहरण भी दिये ।..इसके बाद सामान्य विषयों पर बात होने लगी । तब वह मुझसे घर परिवार आदि के वारे में पूछने लगे । तब मैंने ( हा हा हा ) बताया कि ये मेरा घर है । एक घर उस शहर में है । आश्रम वहाँ है आदि..। इस पर वह साधु रहस्यमय अन्दाज में मुस्करा उठे । और बोले । क्षमा करना । महाराज । सतसंग के समय पर आप मैं को त्यागने पर बेहद बल दे रहे थे । यहाँ हर बात में मैं ही मैं कर रहे हैं । साधु की कथनी और करनी में ये अंतर कैसा ?? इस बात पर मुझे नान स्टाप हँसी आयी ।..मैंने कहा । बाबाजी आप अपने से जुङी हुयी किसी बात को व्यक्त करिये । जैसे कि आप इस समय ऋषिकेष से आये हैं । तो किस तरह मुझे बतायेंगे । मैं ऋषिकेश से आया हूँ । या हम ऋषिकेष से आये हैं । यदि आप हम का प्रयोग करते हैं । तो हम और भी बहुवचन का बोधक है । यानी दो या फ़िर अनेकों मैं का बोध कराता है । मैं भले ही अहम का बोधक है । पर कोई भी इसके प्रयोग से बच नहीं सकता । हाँ किसी ग्यानी । किसी साधु संत का मैं कहते हुये अलग भाव होता है । और किसी संसारी का एकदम अलग । साधु जानता है । सिर्फ़ एक वही है । वही है । मैं का झूठा व्यवहार तो । झूठे संसार के लिये है । पर संसारी इसको सत्य मानते हुये मैं मैं कहता है । याद करें । श्रीकृष्ण पूरी गीता में । मैं राजा हूँ । वृक्षों में मैं पीपल हूँ । देवताओं में मैं इन्द्र हूँ । आदि कहकर..तुम सब त्यागकर मुझ एकमात्र परमात्मा की शरण में आ जाओ । ऐसा कहते हैं । और वैसे मैं को त्यागने को कहते हैं ।


अब..जैसा कि लोग समझ लेते हैं कि साधु तो मोम का पुतला होना चाहिये । उसे न भूख लगे । न प्यास लगे । न सर्दी लगनी चाहिये । न गर्मी लगनी चाहिये । न उसमें कामवासना की जरा भी उत्तेजना होनी चाहिये । मतलब ये कि साधु से अमूल्य ग्यान सीखने के बजाय उसकी रहनी सहनी । कथनी करनी आदि के मापदन्ड आप तय करते हो । कबीर कहते हैं । कहे हूँ । कह जात हूँ । कहूँ बजाकर ढोल । स्वांसा खाली जात है । तीन लोक का मोल ।..कांकर पाथर जोर के । मस्जिद लयी बनाय । या चढ मौला बांग दे । क्या बहरा हुआ खुदाय ।..दुनियाँ ऐसी बाबरी । पाथर पूजन जाय । घर की चाकी कोई ना पूजे । जिसका पीसा खाय ।..तो ये कुछ उदाहरण हैं । जिनसे सिद्ध होता है । संत में विनमृता ही नहीं होती । बल्कि सभी भाव होते हैं । किसी भी ग्यान का प्रचार करना । आदिकाल से परम्परा रही है । मथुरा के बाबा जय गुरुदेव । शुरूआत में हल चलाते किसान के साथ साथ चलते हुये सतसंग देते थे । शुरूआत में ही हँस महाराज ( सतपाल जी के पिता ) ने प्रचार हेतु काफ़ी मेहनत की । राधा स्वामी के प्रवर्तक की तो लोग झोंपङी ही बारबार तोङ देते थे । कबीर साहेब ने जीवन भर देश में घूमकर प्रचार किया । उनके घर के सामने रहने वाली वैश्या के ग्राहकों ने तो उनके घर में आग ही लगा दी । विवेकानन्द जी । स्वामी रामतीर्थ । ईसामसीह । मुहम्मद साहब । गौतम बुद्ध । नानक जी कितने नाम गिनाऊँ । जिन्होंने घूम घूमकर प्रचार नहीं किया । और ये नहीं कहा कि आओ मैं बताता हूँ । परमात्मा से मिलने की विधि क्या है ?? आपको एक सामाजिक उदाहरण बताऊँ । सरकार स्कूल खोल देती है । फ़िर भी तमाम लोग अपने बच्चों को शिक्षा हेतु भर्ती नहीं करवाते । तब सरकार शिक्षामित्रों आदि के द्वारा उन्हें घर घर से बुलवाती है । और वजीफ़ा । मिड डे मील । मुफ़्त शिक्षा । मुफ़्त किताबें आदि तक देती है । तो आपके अनुसार तो स्कूल खुल जाने पर । जिसको पढना होगा । अपने आप पहुँच जायेगा ।
अब..थोङी देर के लिये आप मैं को लाठी और विनमृता को रस्सी मान लें । या किसी लता का तना मान लें । तो क्या रस्सी या लता । लाठी के स्थान पर इस्तेमाल हो जायेगी ? या रस्सी की जगह लाठी इस्तेमाल हो जायेगी । इसलिये हर चीज का इस्तेमाल अपनी जगह है । और उचित है । ये जीव अग्यान निद्रा में सो रहा है । संतों ने इसको चेताने हेतु समय समय पर बहुत प्रयास किये । कबीर साहब ने कहा है ।.. स्वांस स्वांस पर हरि जपो । वृथा स्वांस न खोय । ना जाने जा स्वांस को । आवन होय न होय ।
अब सबसे महत्वपूर्ण बात । ये ग्यान शास्त्र पढने से नहीं । बल्कि संतो की संगति । उनके सतसंग । उनकी कृपा । और नाम साधना से प्राप्त होता है । जिस प्रकार किसी पेज पर लिखे गीत को पढने मात्र से ही कोई उसको गा नहीं सकता । इसके लिये उसे संगीत का मूल ग्यान । सा रे गा मा पा धा नी । संगीत गुरु और कङे रियाज की आवश्यकता होती है । इसी तरह कोई भी ग्यान । कोई भी साधना आसान नही होती । पढने की ही बात मान लो । तो भी वो सरल कार्य नहीं होता । इसलिये गुङ के कभी गोबर होने का सबाल ही नहीं उठता ।..लेकिन जगत भगति को वैर । वैर जैसे मूस बिलाई । होता है । इसलिये किसी भी साधु के साथ यही मुश्किल होती है । इसीलिये साधु होना ही टेढी खीर है । यही मुश्किल नानक जी के साथ थी । बुद्ध के साथ थी । कबीर के साथ थी । रजनीश के साथ थी । मुहम्मद के साथ थी । ईसा के साथ थी । किसी को नहीं छोङा लोगों ने । किसी के साथ रियायत नहीं बरती । तबरेज की तो खाल तक उतार ली ।

18 जनवरी 2011

टेस्ट टयूब बेबी..हैरत की बात


आपके सभी लेखों में रामायण और महाभारत और कृष्ण के ही उदाहरण होते हैं या फ़िर भगवान के ही नाम आते हैं । क्या कोई जीता जागता उदाहरण है जिस पर लोग विश्वास कर सकें । आजकल भगवान तो धरती पर नहीं हैं वो तो कर्म करके हवा में लीन हो गये । उनका कोई रिकार्ड भी नहीं है । लोगों की लिखी या सुनी बातें हैं । कोई जीता जागता नमूना बतायें ?? हाँ आजकल साइंस में नियोग टेस्ट टयूब बेबी जीता जागता उदाहरण हैं । क्या ख्याल है ??? ।
ANS..आपके द्वारा पूछे गये प्रश्नों पर लिखा गया लेख । और मेरे द्वारा स्व विचारित आधार पर बना लेख । इनमें मूलभूत तौर पर काफ़ी अंतर हो जाता है । मैं किसी विषय का प्रस्तुतीकरण अपने अंदाज में करूँगा । और आपकी शंकायें हरेक व्यक्ति के आधार पर अलग अलग तरह की होंगी । कहने का आशय यह कि आपके प्रश्नों के आधार पर लेख प्रकाशित होने की एक अनवरत श्रंखला सी स्वतः पिछले छह महीनों से जारी है । और मुझे बेहद खुशी है कि आप लोगों की अधिकाधिक शंकाओं का समाधान प्रभुकृपा से संभव हुआ है । कुछ लोगों को तो अपने प्रश्नों का उत्तर ब्लाग लेखों से ही प्राप्त हो गया । जैसा कि उनकी प्रतिक्रिया से मुझे ग्यात हुआ ।..पर ???
..आपके द्वारा पूछे गये प्रश्न से मुझे अति खुशी और अति दुख भी हुआ ?? आपको आश्चर्य हो रहा होगा कि आखिर क्यों ? वो इसलिये । कि जहाँ आपने अपने प्रश्न में एक अति सार्थक बात कही । वहीं उस एक के अलावा सभी बातें निरर्थक कहीं । आईये पहले सार्थक बात की चर्चा करते हैं । सार्थक बात ये कि बहुत ही कम गिने चुने पाठक ऐसे थे । जिन्होंने कहा कि पुराने उदाहरण की बजाय ऐसी बात या ऐसा जीवन्त उदाहरण अभी हो तो ठीक ? जिसका कुछ उपयोग भी हो सके । वरना इतिहास खंगालते रहने का क्या लाभ ?? यही बात आपने कही । जो बेहद सार्थक और उपयोगी है ।
अब ।..जीता जागता उदाहरण की बात.. या तो आपने मेरे बहुत कम लेख पढें हैं । इसलिये ना जाने में ऐसा कहा । मेरे लेखों में जगह जगह तंत्र मंत्र से लेकर अलौकिक ग्यान की महत्वपूर्ण विधाओं के पिछले सत्तर अस्सी वर्ष तक के प्रसंग अनुसार उदाहरण मिलते हैं ।..प्रताप जी । इस अमूल्य और गूढ ग्यान का परम्परागत एक नियम यह है कि उपस्थित शरीरी दिव्यात्माओं का उनके चमत्कारों सहित खुला परिचय नहीं दिया जाता । यह सीना ब सीना दिया जाने वाला ग्यान है । यानी दृष्टिपात द्वारा । किसी संकेत द्वारा । किसी बहाने द्वारा । दिया जाता है ।..जैसे आपने यह प्रश्न किया होता कि राजीव आपने मुझे इस अदभुत ग्यान की जिग्यासा तो पैदा कर दी । अब इसके अनुभव या प्रयोग कैसे देखने को मिलें ?? तब मैं आपको उत्तर देता । यानी जो आप चाहते । उसके अनुसार ।..निष्कर्ष ये कि जितना आप मेरे लेखों में पढेंगे । यथा । परकाया प्रवेश । नियोग । अंतर्लोकों की यात्रा । रिद्धी सिद्धि आदि की प्राप्ति आदि आज भी होता है । संभव है । आप थोङा सा गहराई से विचार करें । तो किसी भी बात का इतिहास घटना घटित होने के बाद ही लिखा जाता है । उसके सामने नहीं । जैसे अखबार की खबर होती है । वैसे नहीं । अगर किसी तरह चमत्कार खुल भी जाता है । तो परिपक्व योगी या संत स्थान बदलकर अग्यात स्थान पर चले जाते हैं । क्योंकि चमत्कार वर्जित है ? क्यों ?? ये स्पष्ट करने पर लेख लम्बा हो जायेगा । अतः फ़िर कभी । अतः मुद्दे पर आते हैं ।
दूसरी बात..आजकल भगवान तो धरती पर नहीं हैं ।..हालांकि सामान्य बात के तौर पर आपकी बात सटीक है । पर वास्तव में सच ये नहीं है । हकीकत में भगवान एक क्षण के लिये भी यहाँ से नहीं जाते । कबीर की बात याद करें । मुझको कहाँ ढूँढे रे बन्दे । मैं तो तेरे पास में । परम प्रभु अपने ही उर में पायो ??
ये दोनों बातें अलंकारिक न होकर एकदम सच हैं । अब फ़िर आप जीता जागता उदाहरण इसके लिये पूछोगे । इसके लिये कुछ समय के लिये आपको मेरे पास आना होगा । मतलब । भगवान के साथ आपका डिनर फ़िक्स कराने के लिये । जीते जी ही । गलत मत समझ लेना । और इसको भी मैं नहीं कराऊँगा । वे महान लोग और ही हैं । मैं तो बनाऊ बाबा हूँ ।
तीसरी बात..वो तो कर्म करके हवा में लीन हो गये । उनका कोई रिकार्ड भी नहीं है । लोगों की लिखी या सुनी बातें हैं ।..एक हिन्दू के मुख से ये बात सुनकर बङा अजीव लगा । हवा में लीन..के स्थान पर अपने धाम को गये कहते । तो भी उचित लगता । उनका रिकार्ड..अब क्या कहूँ ? बस सिर्फ़ हँसी ही आती है । इस बात पर ?? लोगों की लिखी सुनी..? आपकी उमर कितनी है ? ग्यात नहीं । पर सारी । आपके परिवारीजनों ने उत्तम संस्कारों से भी आपको वंचित रखा ।
चौथी बात..नियोग @ टेस्ट टयूब बेबी..हैरत की बात है । आपने नियोग और टेस्ट टयूब बेबी में कोई फ़र्क ही नहीं समझा ?? जबकि आपने विस्तार से इस विषय पर लिखा मेरा लेख पढकर । उसी लेख पर ये टिप्पणी की है । टेस्ट टयूब बेबी..में पुरुष के वीर्य का शुक्राणु और स्त्री का डिम्बाणु संयुक्त करके बच्चे को जन्म दिया जाता है । जबकि नियोग की एक किस्म में पुरुष शुक्राणु की कोई आवश्यकता ही नहीं होती । और दूसरे उच्चस्तरीय नियोग में स्त्री का डिम्बाणु तो छोङिये । स्त्री पुरुष दोनों में से किसी की आवश्यकता नहीं होती ।
लेकिन इसी प्रसंग में साइंस का एक चमत्कारी उदाहरण आप भूल गये । चलिये मैं उसको भी याद दिला देता हूँ । वह है क्लोन । यानी प्रतिकृति । यानी जेराक्स कापी । डाली भेङ याद है आपको ? ये क्लोन कोशिका से निर्मित किये जाते हैं ।
अब इसका धार्मिक पक्ष सुनिये । हकीम लुकमान वैध का नाम आपने अवश्य सुना होगा । वही इतिहास प्रसिद्ध चिकित्सक जिसने वहम के अतिरिक्त हरेक बीमारी का इलाज खोज लिया था । और जिसके ऊपर ही ये कहावत बनी कि..वहम का इलाज तो लुकमान के पास भी नहीं..इन्होंने अपने ग्यारह हूबहू ऐसे क्लोन बनाये कि मृत्युकाल आने पर यमदूत भी असली को पहचान नहीं पाये । और कई बार लौट गये..। खैर..कथा लम्बी है । इस तरह के क्लोन बनाने वाले धार्मिक इतिहास में कई हुये ।
अंतिम और मुख्य बात..जीता जागता उदाहरण ?? साकार हरि । निराकार हरि उर्फ़ भोले बाबा के नाम से प्रसिद्ध बाबा सच्चा सिद्ध है । यह UP के एटा क्षेत्र में है । TV फ़ेमस कुछ बाबाओं में दस के लगभग अलग अलग स्तर के सिद्ध हैं । हिमालय क्षेत्र । तिब्बतीय क्षेत्र । गंगा किनारे के दुर्गम बीहङ क्षेत्रों में अलग अलग प्रकार के सिद्धों की भरमार है । कैसे चाहिये आपको । अघोरी । नागा । वैश्णव । नाथ । शब साधक । कापालिक । मारण । उच्चाटन । वशीकरण । कंकाल कालिनी साधक..और लिस्ट जानना चाहेंगे । या घबरा गये । अब स्थान सुनिये । मैंनपुरी फ़र्रुखाबाद के बीच । बाबा नीम करोरी सिद्ध आश्रम । एटा में छोटे बङे सरकार की दरगाह ( भूत प्रेत हेतु ) जहाँ कोई उपस्थिति नहीं होता । प्रभावित अपने आप खेलता है ।
मैंनपुरी के पास ही एक कुँआ । जिसमें कुत्ता काटने पर पानी पिलाने मात्र से ठीक । पूरे देश से लोग आते हैं । पचासों साल पुराना प्रमाणित । ये सभी चमत्कारों के लिये अनेक लोगों द्वारा प्रमाणित है । बेबर । ( मैंनपुरी ) की मेरी एक परिचित महिला । जिन औरतों के सिर्फ़ कन्यायें ही पैदा होती है । उनके गारण्टी से पुत्र । अरजी लगाते वक्त ग्यारह रुपये का परसाद और पुत्र होने पर ग्यारह रुपये का परसाद । बाईस रुपये में पुत्र । तीस केस मेरी जानकारी में प्रमाणित । ( दरअसल आजकल औरतों के सर्जरी से बच्चे अधिक होते हैं । जिससे तीन ही बच्चे पैदा हो सकते हैं । ) ऐसी कई औरतें गारन्टी के लिये गयीं । और बात पक्की निकली । एक बैध जी जो दुर्भाग्य से खत्म हो गये । नाङी छूते ही । साइंस की अल्ट्रासाउंड । सी टी स्केन । एम आर आई । एक्सरा सभी फ़ेल थे । उनके सामने । मेरी जानकारी में सौ से अधिक लाइलाज महिलाओं का बांझपन का कलंक हटाकर उनके घर में कई कई बच्चों की किलकारियां गुंजायी । ये भी बेबर किशनी के पास के थे । तो कहने का मतलब चींटी से लेकर हाथी तक । और तुच्छ से लेकर भगवान तक के उदाहरण मौजूद हैं । सवाल ये है कि आपको किसकी जरूरत है ?? धन्यवाद ।

15 जनवरी 2011

चोरी करना अच्छी बात है ??


जय गुरुदेव की । कैसे हो राजीव जी ? मेरी माँ का आपरेशन सकुशल पूर्ण हो गया है । और अब वो बिलकुल ठीक है । राजीव जी । आज मैं आपके सामने एक नयी समस्या लेकर आया हूँ ?? आशा है । समाधान करोगे । जय गुरुदेव की । राजीव जी । मेरा भाई जो कि एक कैफ़े में काम करता है । ( जिसे हम अमीरों का होटल भी कह सकते हैं । क्योंकि वहाँ सभी चीजें काफ़ी महँगी है । ) तो राजीव जी । वो कैशियर है । और उसकी पगार 6000 थाउजेंड पर मन्थ है । फ़िर भी वो रोज वहाँ से 200 - 300 रुपयों की चोरी करता है । और जो सामान होते हैं । खाने पीने के । वो भी लाता है । पर मेरे घरवाले उसे कुछ नहीं कहते । क्योंकि पैसा सबकी जबान बन्द कर देता है । पर अगर मैं उसे कुछ कहूँ । तो वो कहता है । मैंने पिछले जन्म में जो उधार दिया था । वो मुझे मिल रहा है । क्या उधार पाने के लिये चोरी करना जरूरी है । राजीव जी ?? और कब वो ये बात समझेगा कि ये गलत काम है ? क्योंकि वो तो पैसे के गरूर में अन्धा हो चुका है । उसे तो घमन्ड हो चुका है पैसों का । क्या वो कभी सुधर पायेगा ??? ( श्री विजय तिवारी जी । मुम्बई । ई मेल से । )
मेरी बात - आपकी बात सुनकर मुझे तीन लोगों की याद आती है । आपको याद होगा । वाल्मीकि पहले डाकू थे । जाने कब तक लोगों को लूटते रहे । कभी कोई बात नहीं हुयी । कभी नहीं लगा कि मैं सही कर रहा हूँ । या गलत कर रहा हूँ ? एक बार सच्चे साधुओं से टकरा गये । और बोले । निकालो जो कुछ माल पानी है । पास में । अब सच्चे संत को झेलना कोई मामूली बात तो होती नहीं ?? संत तुम्हें कुछ देते नहीं । उल्टे सब तुम्हारा ले लेते हैं । संशय रूपी असार संसार छीन लेते हैं । सार रूपी परमात्मा दे देते हैं । अब संतों ने कहा । तू सब ले ले भाई । उसकी फ़िकर नहीं । पर ये सब किसके लिये करता है ?? वाल्मीकि ने हैरत से कहा । परिवार के लिये । और किसके लिये ? संत बोले । फ़िर उनसे पूछकर आ । वे तेरे इस लूट में तो हिस्सेदार है । लेकिन क्या । भगवान के यहाँ जो दण्ड मिलेगा । उसमें भी हिस्सेदार होंगे या नहीं ?? वाल्मीकि ने कहा । बहुत सयाने बनते हो । इधर मैं पूछने जाऊँ । उधर तुम रफ़ूचक्कर हो जाओ । संतो ने कहा । हमें बांध जा भाई । तब पूछ के आ । हम लोगों को काल माया के बन्धन से छुङाते हैं । तू हमें बाँध जा ।..लौटकर डाकू वाल्मीकि महात्माओं के पैरों पर गिर पङा ।..बचा लो महाराज ।..बङी भूल में जी रहा था ?? अब तक । महात्माओं ने हँसते हुये पूछा । क्या हुआ ? क्या कहते हैं सब ? वाल्मीकि बोले । कहते हैं । हम तुम्हारे पाप में साझीदार क्यों होंगे ? हमारा पेट पालना तुम्हारा कर्तव्य है । अब तुम चोरी करो या डाका डालो । ये सोचना तुम्हारा काम है ।..बचा लो प्रभु । मेरा तो जीवन ही नष्ट हो जायेगा । संत बोले । उल्टा काम करता था । अब उलटा नाम जप ?? उसी से कल्याण होगा ।..उलटा नाम जपा जग जाना । वाल्मीकि भये बृह्म समाना ।..यहाँ मैं आप लोगों को बता दूँ कि वाल्मीकि ने उलटा नाम मरा मरा नहीं जपा था । बल्कि संतो द्वारा दिया जाने वाला । परमात्मा का वास्तविक नाम ढाई अक्षर का महामन्त्र जपा था । वाल्मीकि नारद घट जोनी । निज निज मुखन कही निज होनी ।
दो मित्र दूसरे देश में व्यापार के लिये रास्ते में जा रहे थे । उसी रास्ते से वापस आता एक आदमी मिला । बोला । उधर मत जाओ । एक बङी खतरनाक डायन बैठी हुयी है..आगे । पहले तो उसकी बात सुनकर कुछ डरे । फ़िर सोचा । चलते हैं । डायन से हमारा क्या लेना देना ? ये भी इच्छा हुयी । डायन कैसी है ? क्या कर रही है ?? चलो देखें । आगे पहुँचे । तो देखा । सोने चाँदी के जेवरात की पूरी पोटली ही खुली पङी थी । बङे खुश हुये । हमें बेबकूफ़ बना रहा था ।..अब तो व्यापार के लिये भी जाने की आवश्यकता नहीं । यहीं मालामाल जो हो गये ? चलो आधा आधा बाँट लेंगे । खुशी का कोई पारावार ही न था । धन मिल गया । अब पेट की भूख लग आयी । एक उसकी रक्षा के लिये बैठा । दूसरा खाना लाने गया । जो माल यों ही पङा था । उसके मालिक बन गये । अब रक्षा करने की सूझ गयी । यही माया है ।..अब माया असर डालने भी लगी । दोनों ही सोचने लगे कि किसी तरह पूरा ही माल अकेले हमको ही मिल जाय । तब भोजन लाने वाले ने सोचा कि उसके हिस्से में जहर मिलाकर ले चलता हूँ । खाकर मर जायेगा । फ़िर पूरा माल ही मेरा होगा । सिर्फ़ मेरा ।..मैं और मोर तोर तैं माया । दूसरा भी कुछ इसी तरह का सोच रहा था..?..खाना लेकर वापस पहुँचा । दोस्त को जहर वाला खाना दे दिया । दोनों खाने लगे । धन की रक्षा करने वाला भी सोचे बैठा था । मौका देखकर उसने खाना खाते दोस्त के सिर पर पत्थर पटककर मार डाला । और विष का भोजन खा लेने से कुछ ही देर में स्वयँ भी मर गया ।
एक आदमी जो चोरी करता था । एक साधु के पास गया । बोला । हर उपदेश सुनूँगा । हर बात सुनूंगा । पर ये मत कहना । चोरी बुरी बात है । इसीलिये मैं कोई सतसंग नहीं सुनने जाता । सभी साधु कहते है । चोरी मत करो । चोरी करना बुरी बात है । इसलिये केवल ये बात मत कहना । साधु ने कहा । मैं कब कहता हूँ । चोरी करना बुरी बात है ? चोरी करना तो अच्छी बात है । पर जो भी करना..ध्यान से करना । सतर्क होकर करना । सतर्क होने से कोई चूक नहीं होती ।..कुछ दिन बाद चोर फ़िर आया । बोला । ये क्या मुसीबत लगा दी । सतर्क रहना ?? सतर्क रहने से अब चोरी नहीं कर पाता । हर वक्त यही लगा रहता है । कोई देख न ले । कोई देख रहा है । अब तो चोरी करना ही मुश्किल है । अब मुझसे चोरी होती ही नहीं ।
एक और कहानी है । एक शिक्षक ने छोटे बच्चों को पाठ पढाया । परमात्मा हर जगह है । वो हमें हर समय देखता है । हर जगह देखता है ।..दूसरे ही दिन शिक्षक ने उदास होकर कहा । आज सब बच्चे अपने अपने घर से पैसे चुरा लाओ । मुझे बङी जरूरत आन पङी है ।..पर ध्यान रखना । चुपचाप लाना । तुम्हारे घर वाले या दूसरा कोई देखे नहीं । अगले दिन सब बच्चे कुछ न कुछ पैसे लेकर पहुँच गये । एक बच्चा नहीं ला सका । उससे पूछा । तुम क्यों नहीं लाये ? उसने कहा । आपने ही कहा था कि कोई देख रहा हो । तो मत लाना । शिक्षक ने पूछा । कौन देख रहा था ? उसने कहा । परमात्मा..आपने ही कहा था कि वो हर समय हर जगह हमें देखता है । तब कैसे लाता । गुरुजी ने उसे गले से लगा लिया ।..पुत्र तू मेरी शिक्षा ठीक समझा । चोरी की बात कहने के पीछे मेरी यही तो मंशा थी ।
एक और बात याद आती है । एक आदमी रोज सतसंग सुनने जाता था । घर में पैसा अच्छा था । मजे में जीवन कट रहा था । लेकिन उसका पङोसी कभी नहीं जाता था । एक दिन पङोसी की बीबी ने सतसंगी की बीबी से बात की । तो उसने कहा । हमारी सुख समृद्धि का रहस्य सतसंग ही है ।..अब तो उस पङोसी की बीबी ने ठेल ठेलकर अपने मियाँ को सतसंग के लिये भेजा । जब सतसंग में पहुँचा । तो ये लाइन कही जा रही थी । भगवान जिसको देता है । घर बैठे देता है । छप्पर फ़ाङकर देता है ।..बस हो गया सतसंग । सतसंग से धन कैसे मिले ? इसीलिये गया था । जब एक मिनट में ही नतीजा पता चल गया कि जिसको देता है । घर बैठे देता है । छप्पर फ़ाङकर देता है ।..अब क्या सुनना । लौटने लगा घर को । रास्ते में एक जगह लघुशंका की जरूरत महसूस होने पर बैठा । तब उसके मूत्रधार वेग से जमीन की थोङी रेत खुल गयी । और कुछ तेज चमक सी दिखाइ दी । लकङी से खुरचकर देखा । तो हीरे मोती गङे थे..उस जगह । लेकिन उसने फ़िर सोचा । जब घर बैठे ही देता है । तो यहाँ से क्या लादकर ले जाना । कौन मेहनत करे । घर आकर बीबी को बताया । तो उसने करम ठोंक लिया । पर आदमी निश्चिंत था । कथा वाला बाबा जब कह रहा था कि घर बैठे देता है । इसका मतलब घर बैठे ही देगा । अगर रास्ते में मिलने की बात होती । तो बाबा जरूर ये बात भी बताता ।..उधर उसका सतसंगी पङोसी अपनी बीबी के साथ दीवाल से कान लगाये पूरी बात सुन रहा था । अब सतसंगी की बीबी ने ठेलकर भेजा । तुम भी यही उपाय कर देखो । ये तो एक नम्बर का बेबकूफ़ निकला ।
लालची सतसंगी पङोसी भी वही कपट भाव लेकर सतसंग सुनने गया । प्रभु की लीला । आज फ़िर वही लाइन महात्मा बोला..जिसको भी देता..। भले ही कुछ देर में बोला । उसका भी हो गया सतसंग । रास्ते में पेशाब लगी भी नहीं..फ़िर भी जबरदस्ती करने बैठ गया । जबरदस्ती मूतने लगा । फ़िर से कुछ रेत खुला । हीरे मोती दिखे..। इसी की तो तलाश थी । इसी के लिये तो पहले से ही चादरा तैयार करके ले गया था । उसी में फ़टाफ़ट भर लिये । और खुशी खुशी घर के कमरे में बीबी को ले जाकर चादरा खोल दिया । ढेरों कांतर । बिच्छू । बर्र जमीन पर फ़ैल गये । बीबी की तो चीख ही निकल गयी । अरे ये क्या लाये हो तुम ? अब सोच में पङ गया । लगता है । देखने में धोखा हुआ था..और ये बात वो कमीना पङोसी जानता था । इसीलिये उसने जानबूझकर झूठी कहानी सुनाई । बेहद गुस्से में झाङू से उसने बर्र । बिच्छू । कांतर को फ़िर से चादरे में इकठ्ठा किया । और पङोसी को सबक सिखाने हेतु उसके आँगन में उलट दिया ।..गहराती शाम को पङोसी आंगन में बैठा खाना खा रहा था । अचानक हीरे मोती की बरसात होने लगी । उसने निश्चित होकर औरत से कहा । मैंने तुझसे पहले ही कहा था कि बाबाजी कह रहे थे । जिसको भी देता है । घर बैठे देता है । देख दिया कि नहीं ??
अब निष्कर्ष....तो जिस तरह शेर से कहो कि भाई घास खा लिया कर ? क्यों फ़ालतू में हत्या करता है । हिरन से कहो कि तू माँस खा लिया कर । दूसरे बहुत जानवर भी तो खाते हैं । तब न शेर कभी घास खा पायेगा । और न हिरन कभी माँस खा पायेगा । फ़िर आदमी कहाँ से आता है ? वो इन्हीं योनियों से तो निकलकर आता है । और अपने साथ अपने कई जन्मों के कर्म स्वभाव लाता है । क्या अच्छा है ? क्या बुरा है ? ये उसे तय करना है । उसे खुद ही भोगना है ।..ये माया है भाई । अच्छे अच्छों की बुद्धि फ़ेरकर नरक का सामान कर देती है । अच्छा बुरा क्या है ? ये हम मन बुद्धि से नहीं जान सकते । इसके लिये परमात्मा से जुङा उसका असली नाम ही ( ढाई अक्षर का महामन्त्र ) हमें सही गलत बताता है । जिसके लिये कबीर साहब ने कहा है । साधु ऐसा चाहिये । जैसा सूप सुभाय । सार सार को गहि रहे । थोथा देय उङाय । फ़िर परत्र सिर धुनहि । फ़िर पाछहि पछताय । कालहि कर्महि ईश्वरहि । मिथ्या दोष लगाय ।..जब बुरे कर्मों का फ़ल मिलना शुरू होता है । तब वह इंसान स्वयँ और उसके घरवाले कहते हैं ।.. हमारा समय खराब है । हमारे कर्म खराब रहे होंगे । ये ईश्वर हमारे साथ बङा अन्याय कर रहा है ।..इसीलिये तो कहते हैं कि वो चींटी का भी हिसाब रखता है । आप सबका । बहुत बहुत धन्यवाद ।

13 जनवरी 2011

ये चार विजेट आपके ब्लाग पर होने ही चाहिये ।


मुझे कम्प्यूटर की टेक्नीकल नालेज ज्यादा तो नहीं है । पर दो दिन पहले मैंने । सत्यकीखोज @ आत्मग्यान । पर । ब्लागर्स हेतु कुछ सुझाव । नामक लेख लिखा था । जो आप लोगों द्वारा बेहद पसन्द किया गया । आगे भी नये ब्लागरों के सामने आने वाली समस्यायें और उलझनों पर समय समय पर लेख लिखने की कोशिश करूँगा । इस लेख में चार महत्वपूर्ण विजेट के बारे में बताया गया है । ये विजेट मैंने । आशीष जी के टिप्स हिन्दी ब्लाग से लिये हैं । यदि कहीं से इनको अपने ब्लाग पर लगाने में कोई झंझट महसूस होता हो । तो एक आसान तरीका भी है । जो सिर्फ़ बिना कुछ किये । एक क्लिक में । इन विजेटस को आपके ब्लाग में जोङ देगा । इसके लिये आप अपने ब्लाग का डेशबोर्ड अलग से खोल लें । फ़िर डिजायन पर क्लिक करके उसे ऐसे ही रहने दें । इसके बाद ( ध्यान रहे । ये अलग से खुला होना चाहिये । ताकि आपके डेशबोर्ड का पेज खुला रहे । ) मेरे ब्लाग पर । इन तीनों विजेट में से जिसे आप लगाना चाहे । उस पर लिखे हुये । विजेट मेरे ब्लाग पर । क्लिक कर दें । इससे टिप्स हिन्दी ब्लाग का वही पेज खुल जायेगा । जहाँ पर एक बटन सा इस विजेट के लेख में बना होगा । उस पर भी यही लिखा होगा । विजेट आपके ब्लाग पर । बस उस पर क्लिक कर दें । इसके बाद आपका डेशबोर्ड खुद ही खुलकर सामने आ जायेगा । बस अब डेशबोर्ड पर ऊपर लिखे सेव आप्शन को आप क्लिक कर दें । बस ये विजेट आपके ब्लाग में एक मिनट से भी कम समय में खुद जुड जायेगा ।..लेकिन कभी कभी ऐसा होता है कि जुड जाने के बाद भी ये शो नहीं होता । इसके लिये आप डेशबोर्ड को क्लोज करके । दोबारा से खोलें । विजेट आपके डेशबोर्ड में जुडा हुआ आपकी प्रतीक्षा कर रहा होगा ।..किसी भी असफ़लता से कभी भी हताश न हों । क्योंकि असफ़लता ही सफ़लता की जननी है । जो नये ब्लागर न जानते हों । उन्हें बता रहा हूँ । टिप्स हिन्दी ब्लाग के श्री आशीष जी । रचनाकार के श्री रवि रतलामी जी । श्री बी एस पाबला जी ( ब्लाग का नाम याद नहीं ) ई गुरु श्री राजीव जी ( मुझे मत समझ लेना । ये अलग हैं । मैं तो बाबा आदमी हूँ । ) आदि अच्छे टेक्नीकल ब्लागर है । उससे बङी बात सज्जन हैं । जो इस तरह की किसी भी उलझन में तुरन्त सहायता करते हैं ।
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विजेट आपके ब्लॉग पर

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आपकी भाषा में..( विजेट ऊपर देखें ) यानी अंग्रेजी में । सिलेक्ट योर लेंग्वेज । नाम का ये विजेट आपके ब्लाग पर लगा होने से विदेशी पाठक या अंग्रेजी पाठक आसानी से आपके ब्लाग को पढ सकते हैं । 35 विदेशी भाषाओं में आपके ब्लाग मैटर को कनवर्ट कर देने वाला ये विजेट कितना आवश्यक है । ये सहज ही अन्दाजा लगाया जा सकता है ।.. इसी कङी में अन्य भारतीय प्रादेशिक भाषाओं जैसे गु्जराती । उडिया । असमिया । आदि भाषाओं में आपके ब्लाग की भाषा को रूपान्तरित करने वाला एक अन्य विजेट भी आपके ब्लाग पर होना ही चाहिये । इत्तफ़ाकन बिजी होने के कारण अभी मेरे पास ये विजेट नहीं है । पर इसको भी । टिप्स हिन्दी ब्लाग । या किसी भी अन्य टेक्नीकल ब्लाग से आसानी से । मुफ़्त में । बिना किसी झंझट के । बिना उन्हें सूचित किये । बिना किसी ऐहसान के ( यदि आप न मानना चाहो ) प्राप्त कर सकते हो । इसका कोड भी वहाँ से कापी करके । डेशबोर्ड > एड ए न्यू गैजेट > एच टी एम एल / जावा स्क्रिप्ट । पर पेस्ट करके सेव कर सकते हैं । फ़िर इन विजेट को जहाँ भी आप ब्लाग में लगाना चाहे । वहाँ ड्रेग एन्ड ड्राप तरीके से लगा सकते हैं ।..यहाँ एक बात बता दूँ । थर्ड पार्टी गैजेट यानी HTML / JAVA SCRIPT पेज का आप बार बार भी । नये विजेट लगाने हेतु । उसी एक तरीके से इस्तेमाल कर सकते हैं ।
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लिखिए अपनी भाषा में..कोई आपके ब्लाग पर टिप्पणी करता है । या आप किसी और के ब्लाग पर टिप्पणी करते हैं । लेकिन आपको हिन्दी लिखना नहीं आता । दैन..फ़िकर नाट..ये विजेट इसीलिये है । बस अपनी भाषा सिलेक्ट करिये । और लिखना शुरु हो जाईये । आप अंग्रेजी में इस तरह..AAP KA LEKH BAHUT.. लिखेंगे । और ये कुछ ही सेकेंड में..आप का लेख बहुत..इस तरह बदल देगा । इस तरह आपके द्वारा की गयी टिप्पणी अति सुन्दर लगेगी । तो निश्चय ही ये विजेट आपके और आपके ब्लाग पर आने वाले पाठकों के लिये वेहतरीन विजेट है । ( विजेट ऊपर दिया है ।)
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शब्दकोश ( Dictionary ).. वैसे तो मेरे ख्याल से हर जागरूक कम्प्यूटर यूजर के सिस्टम में डिक्शनरी साफ़्टवेयर अवश्य ही इंस्टाल होगा । पर ये डिक्शनरी थोङी अलग और स्पेशल है । इसकी खासियत टू इन वन की है । यानी किसी हिन्दी शब्द को इंगलिश में क्या कहते हैं । इसके लिये बस आप इसमें वो शब्द हिन्दी में लिखकर कापी पेस्ट कर दें । और । अर्थ । पर क्लिक कर दें । तुरन्त उस शब्द के अधिकाधिक अंग्रेजी मायने आपके सामने होगे ।..बस आपका । पाप आप विंडो । आप्शन खुला होना चाहिये । अब टू इन वन ये इसलिये है । कि इसी तरह किसी अंग्रेजी शब्द के हिन्दी में अधिकाधिक मायने क्या होंगे । ये तुरन्त आपको बतायेगा । बस वो शब्द अबकी बार अंग्रेजी में इसमें टायप करना होगा । तो देखा आपने । कितना बेहतरीन विजेट है ये ? अगर इनमें से कोई विजेट लगाने में किसी तरह की समस्या आ रही हो । तो आप इन तीनों विजेट के नीचे लिखे । विजेट आपके ब्लाग पर । क्लिक करें । और आप सीधे । टिप्स हिन्दी ब्लाग । पर पहुँच जायेंगे । वहाँ आप आशीष जी से कमेंट के द्वारा किसी भी परेशानी का हल पूछ सकते हैं ।..इस लेख में यथासम्भव मैंने तथ्यों का समावेश करने की कोशिश की है । फ़िर भी कुछ रह गया हो । तो आप कमेंट के द्वारा पूछ सकते हैं ।

यह भी एक सरल साधना है ।


नमस्ते जी । राजीव जी । मैं 25 दिसम्बर को अपनी सिस्टर एन्ड जीजाजी के पास लुधियाना चली गयी थी । एन्ड कल वापस आयी हूँ । इसलिये तकरीवन 2 वीक्स से मैं इंटरनेट पर नहीं आ पायी । जब कल घर आकर इंटरनेट खोला तो आपका । हैप्पी न्यू ईयर । HAPPY NEW YEAR 2011..इन एडवांस वाला मेसेज मुझे मेरे इनबाक्स में मिला । सारी । मैं आउट आफ़ स्टेशन चली गयी थी । इसलिये आपको हैप्पी न्यू ईयर का मेसेज नहीं भेज सकी । आई होप । आपने बुरा नहीं माना होगा । मैंने कल जब आकर आपका ब्लाग देखा । तो आपके बाकी आर्टीकल जो 2011 में आपने लिखे । वो भी पढे । मैं आपको 1 बात बताऊँ । मैंने आपके ब्लाग के बारे में लोगों को बताना शुरू कर दिया है । जैसे किसी पडोसन को । सहेली को । किसी रिश्तेदार को । एन्ड उनसे ये भी कहा है कि आप लोग भी आगे । और से और..लोगों को इस ब्लाग के बारे में बतायें । मेरा मेसेज मिलते ही मुझे आप रिप्लाई मेसेज जरूर भेज दें । बिकाज मुझे पता चल जायेगा कि मेरा मेसेज आप तक ठीक ठीक पहुँच गया । एन्ड हैप्पी  लोहडी । HAPPY LOHRI ( ई मेल से )*** वैसे इस ई मेल को ब्लाग पर प्रकाशित करने का कोई औचित्य नहीं बनता । यदि इसमें सर्वजन उपयोगी एक बेहद महत्वपूर्ण बात न लिखी होती । मेरी एक महिला पाठक द्वारा भेजा गया ये ई मेल इंटरनेट पर ब्लाग के माध्यम से की जा रही मेरी मेहनत की सफ़लता की कहानी बयान करता है । इससे पहले भी नेट के माध्यम से जो लोग मुझसे आध्यात्मिक तौर पर जुङे । आत्मिक तौर पर उन्होंने प्रेम महसूस किया । उन लोगों ने कभी कभार फ़ोन । ई मेल । ब्लाग कमेंटस पर इस बात की झिझक जाहिर की । कि कहीं हम आपको ( मुझे ) अधिक सवाल पूछकर ज्यादा डिस्टर्ब तो नहीं करते ?..मैंने जबाब दिया । नहीं..हरगिज नहीं । आज आप जो तीवृ जिग्यासा में मुझसे प्रश्न पूछकर समाधान पा रहे हो । कल आप दूसरे लोगों का समाधान करने में सक्षम हो जाओगे । आज जो स्टूडेंट है । कल वही टीचर भी बनेगा ।..बीते हुये कल में..मैंने भी किसी से सीखा ही था । और जब आप सीख जाओगे । तो परमात्मा के इस एकमात्र और दुर्लभ अनादिकाल से चले आ रहे सनातन ग्यान के बारे में स्वतः लोगों को जागरूक करोगे ।क्योंकि किसी भी ग्यान को निरंतर चलाने की यही परम्परा है । और तब मेरा उद्देश्य..( जो सिर्फ़ और सिर्फ़..यही एक कार्य होता है । जो किसी भी संत का कर्तव्य होता है । और बाकी सांसारिक कर्तव्यों से संत हमेशा मुक्त होता है । )..सफ़ल हो जायेगा । लगभग 30 वर्ष आयु वालीं इन पाठिका ( महिला पाठक के नाम बताना । मैं उचित नहीं समझता । जब तक वे स्वयँ न चाहें । ) से मैंने ये कभी नहीं कहा कि आप इस ब्लाग का या सतनाम का प्रचार करें ।..दरअसल इस बात की प्रेरणा हमें स्वयँ अन्दर से ही होती है । मेरठ के आसपास के रहने वाले लोग..या जिन्होंने वहीं से थोडी दूर स्थिति नंगली तीर्थ को देखा होगा । जिसमें बसन्त पंचमी पर बेहद बङे स्तर का आयोजन होता है । और देश विदेश से हिन्दू । मुस्लिम । सिख । ईसाई और विश्व के अन्य धर्म । जाति के लोग भारी संख्या में इस आयोजन में शामिल होने आते हैं । उन्हें मालूम होगा कि अद्वैत मिशन और सार शब्द मिशन के द्वारा सतनाम का डंका विश्व भर में पीटने वाले सतगुरु श्री अद्वैतानन्द जी महाराज के शिष्य और उत्तराधिकारी श्री स्वरूपानन्द जी महाराज ने यही कहा था कि नाम ( परमात्मा का वास्तविक नाम ) का डंका जितना बजा सकते हो । बजाओ । इससे हर तरह का लाभ ही लाभ है । यह भी एक सुमरन है । यह भी एक सरल साधना है । यह भी जीवों को चेताना ही है । यह भी परमात्मा से जुडना ही है । क्योंकि आप नाम की चर्चा कर रहे हो । परमात्मा की चर्चा कर रहे हो ।
कबीर साहब ने कहा है । नाम लिया तिन सब लिया । चार वेद का भेद । बिना नाम नरके पङा । पढ पढ चारों वेद । किसी संत ने इसी परम नाम की परम साधिका मीरा जी के लिये कहा है । नाम लेयु और नाम न होय । सभी सयाने लेंय । मीरा सुत जायो नहीं । शिष्य न मुंडयो कोय ।..ये ब्लाग अगर परमात्मा और अध्यात्म जिग्यासाओं के अतिरिक्त किसी और विषय पर होता । तो आपके द्वारा इसका प्रचार करने का कोई अर्थ नहीं था । पर परमात्मा किसी एक का नहीं हैं । बल्कि सबका है । वही आपका सच्चा साथी है । वही आपका असली पिता है । आप कितने ही दिन अखिल सृष्टि में भटक लो । एक न एक दिन आपको उसके ही पास लौटना होगा ।..30 वर्ष आयु वालीं इन पाठिका का जिक्र स्पेशली करना इसलिये उचित लगता है कि तीस वर्ष की जवान आयु में इस तरह की अध्यात्म जिग्यासा और परमात्मा को जानने की इच्छा रखने वाले दुर्लभ लोग ही होते हैं । मैं तो बुजुर्गों को समझा समझा के परेशान हो जाता हूँ ।..बाबा..अब तो उसका नाम ले लो..आखिर में काम वही आयेगा । पर उनके कानों पर जूँ भी नहीं रेंगती ?? धन्यवाद । राम राम । सलाम वालेकुम । सत श्री अकाल ..AND GOOD BYE..

07 जनवरी 2011

इंसान मौत से इतना डरता क्यूं है ??

जय गुरुदेव की । राजीव जी धन्यवाद । राजीव जी , कोई इंसान जब बीमार होता है । तो वो ऐसा क्यों सोचता है कि मैं अब ठीक नहीं हो सकता । या हो सकती । उसे अपनी जिंदगी खत्म क्यूं नजर आती है । जैसे  किसी का गांठ का आपरेशन होने वाला हो । ( मेरी मां का होने वाला है  । )  तो उसे ऐसा क्यों लगता है कि आपरेशन के दौरान मेरी मृत्यु हो जायेगी । वो नकारात्मक  क्यों सोचता है । ( जैसा मेरी मां हमेशा कहती है कि मैं नहीं बचूंगी ।) इंसान मौत से इतना डरता क्यूं है ??  जय गुरुदेव की । { श्री विजय तिवारी । मुम्बई । ई मेल  से । }
विजय जी , आपके प्राप्त हुये कई ई मेल विवरण के अनुसार । आसानी से आपकी दुखद और मानसिक परेशानी का अन्दाजा लगाया जा सकता है । हमें आपसे पूरी पूरी हमदर्दी है । वैसे सुख दुख इंसान के पूर्व जन्म और इस जन्म के कर्मफ़ल अनुसार ही आते हैं । और उन्हें हर हालत में भोगना ही होता है ।..काया से जो पातक होई । बिनु भुगते छूटे नहीं कोई ।..सुख में सुमरन ना किया । दुख में करता याद । कह कबीर वा दास की कौन सुने फ़रियाद ।.. दुख में सुमरन सब करें । सुख में करे न कोय । जो सुख में सुमरन करो । तो दुख काहे को होय ।..तो क्यों न हम दुख की स्थिति का डटकर सामना करें..अभी आपको ये बात अजीव लगेगी ? पर दुख ही इंसान को मजबूत बनाता है । कुंती ने श्रीकृष्ण से कहा था । प्रभु आप मुझे सुख के बजाय दुख दें । श्रीकृष्ण को  आश्चर्य हुआ । बोले बुआ । ऐसा क्यों ?? कुंती ने कहा । दुख की स्थिति में प्रभु से सच्ची लौ लगी रहती है । और सुख की स्थिति में अच्छे से अच्छा ग्यानी भी प्रभु को भूल जाता है ।..  देखिये सच्चा साधु । अच्छा बैध । और हितचिंतक राजा का मन्त्री । अगर ये तीनों झूठ बोलने लगें । तो कृमशः इंसान । रोगी । और राजा का विनाश हो जाता है ।
पर दुनियां को अपने बारे में भी झूठ सुनने में जाने क्यों मजा आता है ??..सांच कहो जग मारन धावे । झूठ कहो पतियाये ।..जोई रोगिया रोग पुकारे । तैसो ई वैध भरे किलकारे । छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा । प्रगट सो तनु तव आगे सोवा ।  जीव नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा । उमा दारु जोषित की नाई । सबहि नचावत रामु गोसाई ।..दरअसल इंसान के संचित पुण्यकर्म जब क्षीण होने लगते हैं । तो स्वाभाविक ही पापकर्मों का उदय हो जाता है । जिस प्रकार खेत में फ़सल कट जाने के बाद उसमें तमाम खरपतवार उग आते हैं । जिस प्रकार धन ( यहां पुण्य समझें । ) न होने पर अपने बन्धु बान्धब भी मुंह फ़ेर लेते हैं । और दुष्ट ( यहां पाप समझें । ) सताने लगते हैं । इसी प्रकार बीमारी शरीर की खराबी का बहाना लेकर अवश्य आती है । पर होती वह कर्मफ़ल के रूप में ही है ।..पर  निराश न हों । आपने अपनी एक दोस्त के असमय मर जाने पर ही भगवान से ऐसा नाता तोड लिया । मानों पहले पूजा करके भगवान पर एहसान करते रहे हों । लेकिन आप भले  ही उससे नाता तोड लें । वह कभी किसी का साथ नहीं छोडता ।
अपनी मां को सकारात्मक चिंतन और प्रभु भक्ति की और उन्मुख करो । बना बिगडी शरीर की होती है । आत्मा की नहीं । जब वह आत्मा परमात्मा का चिंतन करेंगी । तो निश्चय ही इलाज से पहले ही बीमारी में लाभ होने लगेगा । अगर संभव हो । तो पहले तो मेरा नाम बताकर गुरूजी से फ़ोन पर ( नम्बर ब्लाग पर देंखे । ) बात करो । कहना । हमने ब्लाग पर आपके दर्शन किये थे । और अब हम आपकी  शरण में आये हैं । आपको  निश्चित लाभ होगा । ब्लाग के जरिये ही कई लोगों को लाभ हुआ है । गाजियाबाद के ब्लागर श्री विनय शर्मा का हर्निया का आपरेशन होने वाला था । गुरूजी से बात करके उनका सब डर दूर हो  गया । और अब वे पूरी तरह से स्वस्थ हैं ।..देह धरे कर यह फलु भाई । भजिअ राम सब काम बिहाई । सोइ गुनग्य सोई बड़भागी । जो रघुबीर चरन अनुरागी । जन्म जन्म मुनि जतनु कराही । अंत राम कहि आवत नाही । जासु नाम बल संकर कासी । देत सबहि सम गति अविनासी ।

भाई भीम । तुम क्या खाते थे ??


Rajesh Kumar 'Nachiketa' । पोस्ट  तो विचारे बन्दरों का कितना भला होगा ??  पर । एक बात भीम द्वारा हाथी ऊपर फेंकने के सन्दर्भ में । पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत है । जिसकी व्याख्या के सन्दर्भ में आता है कि किसी गुरुत्वा विभव से । एक नियत वेग से । अगर किसी भी पिंड को गुरुत्वबल के विपरीत फेंका जाए । तो वो उस गुरुत्वाकर्षण के क्षेत्र से बाहर चला जाता है । और उस पर वापस गुरुत्वबल काम नहीं करता है । पृथ्वी के भार और गुरुत्वाकर्षण के नियतांक को जानते हुए गणना की जाए । तो पता चलता है कि पृथ्वी के लिए । ये वेग है 11.2 किमी । घंटा है । मतलब । अगर भीम ने हाथी को इससे ज्यादा वेग से फेंका हो । तो वो कभी वापस नहीं लौटेगा । जो कि संभव है । हुआ होगा ? अन्य बातों की जानकारी के लिए धन्यवाद ।
*** राजेश जी । अपने जीवन में इस तरह के प्रसंगो वाली चर्चा से मेरा खूब वास्ता रहा है । दरअसल हम किसी बात को सोचते समय उस पर ठीक से विचार  नहीं करते । इस सम्बन्ध  में जो सबसे मजेदार बात मुझे लगी । किसी ने कहा था कि हनुमान जी की क्षमता उडकर प्रथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से बाहर निकल जाने की थी । इसके बाद वे मुक्त अंतरिक्ष में उडते रहते थे । अगर ऐसा होता भी । तो बात एकदम सटीक ही थी । पर ऐसा था नहीं ? आपको पता होगा । जब हनुमान जी लंका पहुंचे थे । और सीताजी ने उनसे पूछा कि तुम इतना बडा सागर कैसे लांघकर आये ? तब हनुमान जी ने कहा ।.. प्रभु मुद्रिका मेलि मुख मांही । जलधि लांघ गयो अचरज नाहीं ? आज भी लोग समझते हैं कि राम द्वारा दी गयी अंगूठी का ये कमाल था ??  पर हम ये भूल जाते हैं कि अंगूठी से कोई जा सकता  था । तो फ़िर सागर तट पर कौन जायेगा ? और कैसे जायेगा ? इस बात पर वानर सेना द्वारा घंटो विचार विमर्श की क्या आवश्यकता थी ? और यदि अंगूठी वाली बात हजम भी कर ली जाय । तो अंगूठी तो वह सीताजी को दे आये थे । फ़िर वापस  किस तरह आये ? दरअसल हनुमान जी के पास योग की खीचरी  ( जीभ को उलटकर ब्रह्मरन्ध्र तक पहुँचाकर स्थिर करने के अभ्यास से मिलती हैं । ) मुद्रिका थी । 5 मुद्रिका हंस की हैं । और 5 परमहंस की होती हैं । इसके अतिरिक्त हनुमान जी पर आठ सिद्धियां । और नौ निधियां अलग थी ।
अब जैसा कि आपने भीम के बारे में बात की है । कहा जाता है कि भीम में दस हजार हाथियों का बल था । ये भी कहा जाता है कि भीम कहीं मटरगश्ती करने जाते थे । तो एक मन चबैना चबाने के लिये कंधे पर लटका लेते थे ? अगर आपने आल्हा सुनी होगी । तो उसमे कई जगह आता है ।..ऐसा चमचा था । महोबे में । जा में नौ मन दार ( दाल ) समाय ?? अब सोचिये नौ मन दाल परोसने वाला चमचा कोई आदमी कैसे उठाता होगा ?? इस पर विचार करते हुये । हम एक तथ्य पर सोचते हैं कि आजकल शक्ति मापने के लिये हार्स पावर ( यानी घोडों की शक्ति ) का इस्तेमाल बाइक से लेकर ऐरोप्लेन के इंजन तक किया जाता है । लेकिन आप पुराण में पावर की तुलना के लिये हाथी पावर का ही इस्तेमाल पायेंगे । वहां घोडे का इस्तेमाल कहीं नहीं हुआ । जबकि उस वक्त भी घोडे होते थे । मैंने कई बार इस पर विचार किया । हाथी । घोडे की तुलना में शारीरिक रूप से निश्चय ही पावरफ़ुल होता है । लेकिन घोडे  जितना और लगातार दौड नहीं सकता ।..यहां एक बात सोचने की है । हाथी में अगर शक्ति होती है । तो उसका विशालकाय शरीर भी होता है । एक शेर ओर एक घोडा । अगर किसी तरह हाथी जितने शक्ति वाले हों जायें । तो भी वे अपने शरीर से एक मोटे पेड को नहीं गिरा पायेंगे । जिस तरह हाथी गिरा देता है । तो अगर भीम में दस हजार हाथियों का बल था । तो उसके शरीर का  माप क्या रहा होगा ?? क्योंकि जितनी अधिक शक्ति ? उसके अनुसार शरीर की कुछ तो विशालता होनी ही चाहिये । अब आप एक हाथी का शरीर देखते हुये ।  दस हजार हाथी की शक्ति वाले भीम के शरीर की कल्पना करें ??
अब यहीं पर प्रसंगवश आपको एक बात और बताता हूं । कंस के द्वारा भेजा गया राक्षस उत्कच । जो किसी मुनि के शाप से अशरीरी हो गया था । उसने बालक कृष्ण को छकडा गिराकर मार देने की कोशिश की ।
छकडा बालक कृष्ण के पालने के इतने ऊपर गिरकर जमीन में धंस गया कि नन्हें कृष्ण का पैर छकडे को छूने लगा । उन्होंने पैर की उंगली से छकडे में धक्का मारा । और छकडा चक्रवाती रूपी उत्कच राक्षस को आसमान में ले गया । और फ़िर गिराकर मार दिया । सवाल ये है कि बालक कृष्ण के पैर ने कौन से बल का यूज किया था ?? क्योंकि भीम का हाथी को फ़ेंकना । और कृष्ण का उत्कच को फ़ेंकने में एक ही बल था ?? जिसको योगबल कहते हैं ।  और जिसमें शरीर के आकार या आहार से कोई लेना देना नहीं होता । बल्कि ये संसार को क्रियाशील रखने वाली महाशक्ति कुन्डलिनी के योग से होता है । जिसका स्थान हमारे शरीर में नाभि से नीचे । और रीढ की हड्डी के कूल्हे की हड्डी से मिलने के स्थन पर हैं । तो वास्तव में भीम द्वारा हाथी को उछाल देना कोई बडी बात नहीं थी । और  मैं आपसे सहमत हूं कि उसका अंतरिक्ष में चले जाना भी कोई बडी बात नहीं थी । पर उस लेख में मैंने विस्तार से बचने के लिये अधिक जिक्र न करते हुये बात  खत्म कर दी थी । वास्तव में महाभारत और रामायण जैसे युद्ध मानवीय शक्ति से न लडकर योग और मायावी शक्तियों द्वारा लडे गये थे ।

06 जनवरी 2011

मनगढ़ंत कहानी



आपने कहा कि सिकंदर कबीर के आगे झुका था ! ये गलत है । क्योंकि सिकंदर चाणक्य ,पुरु के समय आया था । और कबीर मुग़लकाल के समय । तो दोनो की मुलाकात कैसे संभव है ? (डेढ़ हज़ार वर्षो को आप खा गये क्या ? ) और अब कुछ बात लेखक जी से । जिन्होंने लिखा है । शंकराचार्य को कामकला का ग्यान कैसे हुआ ?? लेखक महोदय ! आपको ये कहानी कहां से मिली ? क्या प्रमाणिकता है , इसकी आप जैसे लोग किवदंतियों को हवा देते है ?

दूसरी बात आपकी इसी मनगढ़ंत कहानी के अनुसार बिना ब्यवहार के ज्ञान को ज्ञान नहीं माना जा सकता । ये तो और भी बात झूठ है । आप ही बताइए । क्या शंकराचार्य जी बाकी सभी ज्ञान को (कामकला को छोडकर ) ब्यवहारिक जानते थे ? ये संभव है अतः आपसे निवेदन है कि बात वही करे जो तर्कसंगत हो किवदंतियो को बढ़ाना बंद करे । समाज वैसे ही कई किवदंतियो से गुमराह है । धन्यवाद । अजय दुबे (एक पाठक ) ।

ANS - मंडन मिश्र । शंकराचार्य । सरस्वती । के शास्त्रार्थ की बात को कहानी शब्द देना मेरे ख्याल से उचित नहीं है । ये बडी ही प्रसिद्ध घटना है । पर इसमें योग के अलौकिक तत्व होने से आज के लोग इसको हजम नहीं कर पाते । आईये आपको थोडा शंकराचार्य जी के बारे में बताता हूं ।

( south india के । केरल state । तत्कालीन मलाबार state में । shankarachary  का जन्म । वैशाख शुक्ल । पंचमी तिथि । ईसवी 788 को । तथा मोक्ष 820 ई. को । माना जाता है । इनके father शिव गुरु तैत्तिरीय शाखा के यजुर्वेदी ब्राह्मण थे । शंकराचार्य को shiv का अवतार माना जाता है । उनके life के कुछ चमत्कारिक  तथ्य देखते हुये  लगता है । कि वास्तव में shankarachary शिव के अवतार थे । indian culture के विकास में शंकराचार्य का विशेष योगदान रहा है ।

शंकराचार्य के विषय में कहा गया है ।
अष्टवर्षेचतुर्वेदी द्वादशेसर्वशास्त्रवित ।
षोडशेकृतवान्भाष्यम्द्वात्रिंशेमुनिरभ्यगात ।

अर्थात 8 वर्ष की age में 4 वेदों में निष्णात । 12  में सभी शास्त्रों में पारंगत । 16 में शांकरभाष्य ।  32 की age में शरीर त्याग । Shankarachary  के दर्शन में सगुण तथा निर्गुण दोनों का दर्शन  हैं । निर्गुण ब्रह्म निराकार god है तथा सगुण साकार god है । जिस जगत सृष्टि की मन से हम  कल्पना भी नहीं कर सकते  उस जगत की उत्पत्ति । स्थिति तथा लय जिससे होता है । उसको ब्रह्म कहते है ।

जगत के जीवों को ब्रह्म के रूप में स्वीकार करना तथा तर्क आदि के द्वारा उसके सिद्ध करना । शंकराचार्य की विशेषता रही है ।  । शंकर दिग्विजय विजयविलास । जय आदि ग्रन्थों में उनके life से सम्बन्धित अनेक तथ्य मिलते हैं ।

8 वर्ष की age में । गोविन्दपाद के शिष्य बनकर संन्यासी हो जाना । पुन: Varanasi से होते हुए बद्रिकाश्रम तक की पैदल यात्रा करना । 16 वर्ष की age में बद्रीकाश्रम पहुंचकर ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखना । सम्पूर्ण india में भ्रमण कर अद्वैत वेदान्त का प्रचार करना । दरभंगा में जाकर । मण्डन मिश्र से शास्त्रार्थ कर वेदान्त की दीक्षा देना । तथा mandan mishra को संन्यास धारण कराना ।

india में प्रचलित तत्कालीन कुरीतियों को दूरकर । समभावदर्शी धर्म की स्थापना करना । ईश । केन । कठ । प्रश्न । मुण्डक । मांडूक्य । ऐतरेय । तैत्तिरीय । बृहदारण्यक और छान्दोग्य उपनिषद पर भाष्य लिखना । india में राष्ट्रीय एकता । अखण्डता तथा सांस्कृतिक अखण्डता की स्थापना करना । उनके अलौकिक व्यक्तित्व का परिचय है ।

4 धार्मिक मठों । south के श्रृंगेरी शंकराचार्य पीठ । east  । उडीसा । जगन्नाथपुरी में गोवर्धन पीठ । west द्वारिका में । शारदामठ तथा बद्रिकाश्रम में ज्योतिर्पीठ । india की एकात्मकता को आज भी दर्शित कर रहा है । कुछ लोग श्रृंगेरी को शारदापीठ । तथा गुजरात के द्वारिका में मठ को कालीमठ कहते है ।

इसके बाद 32 वर्ष की age में मोक्ष प्राप्त करना । अलौकिकता की ही पहचान है । ब्रह्मसूत्र के ऊपर शांकर भाष्य की रचना कर world को 1 सूत्र में बांधने का प्रयास भी shankarachary के द्वारा किया गया है जो कि साधारण मानव से सम्भव नहीं है ।  जीव अज्ञान व्यष्टि की उपाधि से युक्त है ।

तत्त्‍‌वमसि । तुम ही ब्रह्म हो ।
अहं ब्रह्मास्मि । मै ही ब्रह्म हूं ।
अयमात्मा ब्रह्म । यह soul ही ब्रह्म है ।

इन बृहदारण्यक उपनिषद तथा छान्दोग्य उपनिषद  के द्वारा इस जीवात्मा को निराकार ब्रह्म से अभिन्न स्थापित करने का प्रयत्‍‌न shankarachary ने किया है । ब्रह्म को जगत के उत्पत्ति ।  स्थिति तथा प्रलय का निमित्त कारण बताए हैं । ब्रह्मसत । त्रिकालबाधित । नित्य । चैतन्यस्वरूप तथा आनंद स्वरूप है । ऐसा उन्होंने स्वीकार किया है ।

जीवात्मा को भी सतस्वरूप । चैतन्यस्वरूप । तथा आनंदस्वरूप स्वीकार किया है । जगत के स्वरूप को बताते हुए कहा ।  नामरूपाभ्यां व्याकृतस्य अनेककर्तृभोक्तृसंयुक्तस्य प्रतिनियत देशकालनिमित्तक्रियाफलाश्रयस्य मनसापि अचिन्त्यरचनारूपस्य जन्मस्थितिभंगंयत: । अर्थात नाम एवं रूप से व्याकृत ।  अनेक कत्र्ता । अनेक भोक्ता से संयुक्त  । जिसमें देश । काल । निमित्त और क्रियाफल भी नियत हैं । )..आदि ।

शंकराचार्य जी योगयात्रा (  पिछले जन्म के बाद आगे चलना । ) पर आये थे । ये बचपन से ही बाहर जाकर अपना कार्य करना चाहते थे । पर इनकी मां इनको रोक  देती थी ।

तब एक दिन शंकराचार्य ने योगलीला रची । और एक तालाब में मगरमच्छ के द्वारा खुद को पकडवा दिया । इनकी मां ने कहा कि वे मगर से खुद को  छुडा लें । तव इन्होंने मां से कहा । यदि वह उन्हें  बाहर जाने की आग्या दें तो वे ऐसा कर सकते हैं । हारकर इनकी मां ने आग्या दे दी । लेकिन उनकी मां ने वचन  लिया कि उनकी मृत्यु पर उन्हें अवश्य आना होगा । शंकराचार्य ने उन्हें  वचन दे दिया । जब उनकी मां की मृत्यु हुयी तो  उनकी जीभ पर मां के आंचल का दूध आने लगा ।

शंकराचार्य उस समय बेहद दूरी पर थे अतः उन्होंने अपने शिष्यों से जमीन मार्ग से गांव पहुंचने को कहा और स्वयं आकाश मार्ग से मां के पास गये । शंकराचार्य अच्छे योगपुरुष थे और परकाया प्रवेश । आकाश मार्ग में गमन करना ( जो  योग  सिद्धियों का अंग होता है । ) आदि उनके लिये कोई बडी बात नहीं थी ।


Q बिना ब्यवहार के ज्ञान को ज्ञान नहीं माना जा सकता ये तो और भी बात झूठ है । आप ही बताइए । क्या शंकराचार्य जी बाकी सभी ज्ञान को ( कामकला को छोडकर ) ब्यवहारिक जानते थे ये संभव है ?

ANS लगता है । आपने इस बात को ठीक से नहीं समझा ? अगर आपने उपनिषद पढें हों । तो जहां कहीं शास्त्रार्थ होता था । और कोई पक्ष किसी बात को प्रयोगात्मक तौर पर निजी अनुभव से नहीं जानता हो । तो वो कहता था । मैं इस बात पर बात करूंगा । तो मेरा सिर गिर  जायेगा । ( मतलब मेरी निंदा और अपयश होगा । ) इसलिये यहां सभी ग्यान को जानने की बात नहीं थी ? और सभी का ग्यान होना आवश्यक भी नहीं था । काम । क्योंकि धर्म के चार पुरुषार्थ में से ही एक है । इसलिये सरस्वती ने उस पर बात की थी । शास्त्रार्थ के नियम के अनुसार ।  दोनों पक्ष जिस बात पर हारजीत के लिये केन्द्रित होते थे । उसका प्रयोगात्मक ग्यान होना अनिवार्य माना जाता था । यही कबीर और गोरखनाथ के साथ हुआ था ।

जहां न पहुंचे रवि । वहां पहुंचे कवि ।
जहां न पहुंचे कवि । वहां पहुंचे अनुभवी ।
जहां न पहुंचे अनुभवी । वहां पहुंचे स्वयंभवी ।

अर्थात सूर्य का प्रकाश हर जगह पहुंचता है । पर जहां वह नहीं भी पहुंच पाता कवि या लेखक की कल्पना वहां पहुंच जाती है । लेकिन अनुभवी ( जिसने किसी बात को साक्षात देखा हो । ) वहां होता है । जहां कवि की कल्पना भी नहीं पहुंच पाती । इससे  भी बडा स्वयंभवी होता है । यानी स्वयं जिसके साथ कोई बात घटित हुयी हो । इसलिये पुरानी ( आजकल जैसी बातों वाली नहीं । ) शास्त्रार्थ परम्परा के अनुसार विषय का प्रयोगात्मक और व्यवहारिक ग्यान यानी स्वयंभवी होना आवश्यक था ।

सिकंदर का मुकद्दर..??

अजय दुबे  पोस्ट शंकराचार्य को कामकला का ग्यान कैसे हुआ ??  पर । @राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ । भाईसाहब आपने कहा कि सिकंदर कबीर के आगे झुका था ! ये गलत है । क्योंकि सिकंदर चाणक्य ,पुरु के समय आया था । और कबीर मुग़लकाल के समय । तो दोनो की मुलाकात कैसे संभव है ? (डेढ़ हज़ार वर्षो को आप खा गये क्या ? ) और अब कुछ बात लेखक जी से । जिन्होंनेलिखा है । शंकराचार्य को कामकला का ग्यान कैसे हुआ ?? लेखक महोदय ! आपको ये कहानी कहां से मिली ?? क्या प्रमाणिकता है , इसकी ?? आप जैसे लोग किवदंतियों को हवा देते है ??
दूसरी बात आपकी इसी मनगढ़ंत कहानी के अनुसार ? बिना ब्यवहार के ज्ञान को ज्ञान नहीं माना जा सकता । ये तो और भी बात झूठ है । आप ही बताइए । क्या शंकराचार्य जी बाकी सभी ज्ञान को (कामकला को छोडकर ) ब्यवहारिक जानते थे ?? ये संभव है ?? अतः आपसे निवेदन है कि बात वही करे । जो तर्कसंगत हो । किवदंतियो को बढ़ाना बंद करे । समाज वैसे ही कई किवदंतियो से गुमराह है । धन्यवाद । अजय दुबे (एक पाठक ) ।
ANS 1 -- ( आपकी संतुष्टि के लिये कबीर साहित्य का कुछ अंश यहां प्रकाशित कर रहा हूं । कृपया इसका अवलोकन करें । ) ..इन सरल और सहज उपदेशों को सुनकर लोग उनके पीछे चलने लगे थे । दोनों धर्म के अगुआ बने लोग तत्कालीन delhi के बादशाह  सिकन्दर लोदी के पास जाकर शिकायत की । वे साथ में कबीर की मां nima को समस्या के समाधान के लिए बनारस लाए थे । और उन्हें कबीर को बुलवाया था । कबीर बादशाहों के बादशाह राम के प्रेम में मस्त आ पहुंचे थे । सिकन्दर लोदी ने गुरु शेख तकी के दबाब में आकर kabeer को सांकलों से जकड़कर बीच गंगा में फ़िकवा दिया । पर कबीर के सांकल अपने आप टूट गए । और वे पानी के सतह पर ध्यानमग्न पाए गए । दोबारा सिकन्दर लोदी ने लकड़ी के ढ़ेर में आग  जलाकर उसमें कबीर को डलवा दिया । पर अग्नि भी कबीर को न जला सकी । उल्टे वे और अधिक तेजस्वी होकर आग से प्रकट हुए । अंततः सिकन्दर लोदी ने पागल हाथी के सामने उन्हें डाल दिया । पर हाथी भी कबीर की वंदना कर पीछे हट गया । अंततः पराजित और लज्जित होकर अपने गुरु शेख तकी सहित सिकन्दर लोदी कबीर  के चरणों में गिर पड़े । अपने जीवन में ही  कबीर ने देश विदेश की कई बार यात्रा की । और जीवों को मुक्ति का सहज मार्ग बताकर चेताया ।..)
अब मेरी बात - वैसे मुझे राजनीतिक इतिहास से बडी बोरियत सी महसूस होती है । पर ये मामला कबीर साहब का है । सिकन्दर जब विश्वविजय यात्रा कर रहा था । उसी समय उसे चर्मरोग की बेहद परेशानी हो गयी थी । उसने काफ़ी इलाज कराया । पर लाभ नहीं हुआ ।  तब वह भारत इसी आशा से आया था कि कोई अच्छा वैध या साधु इस इलाज का जानकार मिल  जाय । तो जब उसकी सवारी एक रास्ते से गुजर रही थी । उस रास्ते में कबीर साहब मगन मस्ती में लेटे हुये थे । शाही सवारी के आगे नियुक्त सैनिकों ने कबीर  से कहा । ए फ़कीर । रास्ते से हट । शहंशाह की सवारी आ रही है ।
कबीर ने उसी मौज में कहा । कहां का शहंशाह ? ये  तो  पूरा भिखारी है । सैनिकों को  इस बात पर बेहद हैरत हुयी । उन्होंने सिकंदर से जाकर कहा । सिकंदर ने सोचा । उसे भिखारी कहने वाला या तो कोई पागल हो सकता है । या फ़िर कोई बहुत ऊंचा फ़कीर । सिकंदर कबीर के सामने पहुंचा । और उसने कहा । आपने मुझे भिखारी किस वजह से कहा ? कबीर ने उसी मौज में कहा । तूने इतना लूटपाट कर । लड झगडकर । देश के देश जीत लिये । फ़िर भी तेरा मन नहीं भरा ? ये धन दौलत तेरे साथ एक भी नहीं जायेगी ? क्योंकि ये मामूली बात न होकर संतवाणी थी । इसने सिकंदर के ह्रदय पर सीधे ही चोट की । वह कबीर से प्रभावित हो गया । और आगे बातचीत करने लगा ।..इस मुलाकात में सबसे बडी जो बात हुयी । वो ये कि उस समय सिकंदर को अपने उस चर्मरोग में एकदम शीतलता अनुभव हुयी । मानों  उसका वह रोग ठीक ही हो गया हो ? ( ये मेरा भी कई जगह का अनुभव है कि किसी पीडा या दर्द से कराहते । या किसी परेशानी से त्रस्त लोग किसी सच्चे संत के सानिध्य मात्र से आराम और राहत महसूस करने लगे । ) अपने इसी आराम की खातिर । और कबीर साहब के विलक्षण व्यक्तित्व से प्रभावित सिकंदर अधिक से अधिक समय उन्हें देने लगा । यहां तक कि वह अपने धर्म गुरु शेख तकी की उपेक्षा करने लगा । शेख तकी ने उस पर धर्म के विरुद्ध । काफ़िर रवैया अपनाने की धमकी दी ।
सिकंदर बखूबी इसका मतलब जानता था ? सिकंदर क्योंकि कबीर साहब का प्रत्यक्ष प्रभाव देख ही रहा था । अतः वह तो नतमस्तक था ही । पर फ़िर भी उसने शेख तकी के दबाब में आकर कबीर को 52 बार  मौत की सजा के समान परीक्षणों से गुजारा । जिनमें नदी में बहते मुर्दे को जीवित करना जैसी शर्त तक शामिल थी  । जो बाद में उनका पुत्र कमाल कहलाया । इत्यादि । ) जो कबीर साहित्य की । बाबन अक्षरी । नामक पुस्तक में विस्तार से दिये गये हैं । यहां दुबेजी मैं आपको ये बात भी बता दूं कि इन सजाओं की कुछ घटनायें ( जैसे हाथी से कुचलवाना । इत्यादि । ) अभी की बच्चों की पाठय पुस्तको के रूप में कोर्स में पढाई जा  रही हैं ।..आपको शायद ये भी मालूम न हो कि सिकंदर ने कबीर से नाम उपदेश लिया था । और ये वही सिकंदर था । जिसने मृत्यु के समय खाली हाथ अर्थी से बाहर लटकवाये थे । और संदेश दिया था । कि देखो इतनी सम्पत्ति होने के बाबजूद सिकंदर खाली हाथ रुखसत हो रहा है ।एक और इसी से मिलती जुलती बात - मथुरा वृन्दावन के मन्दिर आदि के निर्माण की शुरूआत सबसे पहले अकबर ने कराई थी । क्योंकि वह तानसेन के गुरु हरिदास जी से प्रभावित हो गया था । और उसने भी नाम उपदेश लिया था ।