25 दिसंबर 2011

क्या पागलपन है स्त्रियों को जलाया

1 सवाल ? खुद पर संदेह करो । मैं अपनी पत्नी का भरोसा नहीं कर पाता हूं । वह मेरी न सुनती है । न मानती है । उसके चरित्र पर भी मुझे संदेह है । इससे चित्त उद्विग्न रहता है । क्या करूं ?
- पत्नी कोई परमात्मा तो है नहीं । जो तुम उस पर भरोसा करो । तुमसे कहा किसने कि - पत्नी पर भरोसा करो ? अरे आस्था करने को तुम्हें कुछ और नहीं मिलता ? श्रद्धा करने का कुछ और नहीं मिलता ? गरीब पत्नी मिली । कुछ श्रद्धा के लिए भी ऊंचाईयां खोजो । लेकिन सिखाया गया है - पत्नियां पतियों पर श्रद्धा करें । पति पत्नियों पर श्रद्धा करें । भरोसा रखें । भरोसा भी रख लोगे । तो क्या होगा ? और जब भी भरोसे की बात उठती है । उसका मतलब ही यह है कि संदेह भीतर खड़ा है । नहीं तो भरोसे का सवाल कहां है ? अगर संदेह है । और संदेह का लीपना है । पोतना है । छिपाना है । और कैसे तुम भरोसा करोगे ? तुम्हें अपने पर भरोसा नहीं है । पत्नी पर कैसे भरोसा करोगे ? सुंदर स्त्री देखकर तुम्हारे मन में क्या होता है ? तो तुम यह कैसे मान सकते हो कि सुंदर पुरुष को देखकर तुम्हारे पत्नी के मन में कुछ भी न होता होगा ? तुम यह कहकर नहीं बच सकते कि मैं मर्द बच्चा, अरे पुरुष की बात और है । गए वे दिन । लद गए वे दिन । किसी की बात और नहीं है । तुम अपने को भलीभांति जानते हो कि जब मैं डांवाडोल होता हूं । तो पत्नी भी कभी न कभी डांवाडोल होती होगी । इसलिए संदेह है ।
संदेह पत्नी पर कम है । संदेह अपने पर ही ज्यादा है । पत्नी पर संदेह प्रश्न के ही बाहर है । पहले तो भरोसा करने की आवश्यकता ही नहीं है । नाहक उद्विग्न हो रहे हो । नाहक परेशान हो रहे हो । मगर बस सिखाई हैं बातें कि पत्नी को पतिव्रता होना चाहिए । 1 पति । बस उस पर ही उसको अपनी नजरें टिका कर रखना चाहिए । फिर वह टिका कर रखती है नजरें । तो भी मुसीबत खड़ी होती है । क्योंकि जब वह पतिव्रता होती है । तो वह तुमको भी चाहती है कि तुम पत्नीव्रता होओ । फिर एक दूसरे के तुम पीछे पड़े हो । जासूसी कर रहे हो । और जिंदगी नरक हो जाती है ।
सरल बनो । सहज बनो । स्वतंत्रता में जीना सीखो । पत्नी के पास अपना बोध है । तुम्हारे पास अपना बोध है । वह अपने जीवन की हकदार है । तुम अपने जीवन के हकदार हो । यह और बात है । वह अपने जीवन की हकदार है । तुम अपने जीवन के हकदार हो । यह और बात कि तुम दोनों ने साथ रहना तय किया । तो ठीक है । लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि तुम एक दूसरे के गुलाम हो । मगर सदियों की गलत शिक्षाओं ने बड़ी झंझट खड़ी कर दी है । 1 से 1 उपद्रव खड़े होते जाते हैं । और उपद्रव खड़े हो जाते हैं । लेकिन हमें दिखाई भी नहीं पड़ते कि उपद्रव के मूल कारण कहां हैं ।
अभी परसों अखबारों में खबर थी कि कुछ गुंडे बंबई में 1 स्त्री को उसके पति और बच्चों से छीनकर ले गये । और धमकी दे गए कि अगर पुलिस को खबर की । तो पत्नी का खात्मा कर देंगे । रात भर पति परेशान रहा । सो नहीं सका । कैसे सोएगा ? प्रतीक्षा करता रहा । सुबह सुबह पत्नी आई । इसके पहले कि पति कुछ बोले । पत्नी ने कहा - मैं स्नान कर लूँ । फिर पूरी कहानी बताऊं । वह बाथरूम में चली गई । वहां उसने कैरोसीन का तेल अपने ऊपर डालकर आग लगा ली । और खत्म हो गई । अब सब तरफ निंदा हो रही है । उन बलात्कारियों की । निंदा होनी चाहिए ।
लेकिन ये लक्षण हैं । ये मूल बीमारियां नहीं हैं । बलात्कारियों की अगर तुम ठीक ठीक खोज करोगे । तो इनके पीछे महात्मागण मिलेंगे । मूल कारण में । और उनकी कोई फिक्र नहीं करता । वही महात्मागण निंदा कर रहे हैं कि पतन हो गया । कलियुग आ गया । धर्मभ्रष्ट हो गया । इन्हीं नासमझों ने यह उपद्रव खड़ा कर दिया है । जब तुम काम को इतना दमित करोगे । तो बलात्कार होंगे । जितना काम दमित होगा । उतने बलात्कार होंगे । अगर काम को थोड़ी सी स्वतंत्रता दो । अगर काम को तुम जीवन की 1 सहज सामान्य साधारण चीज समझो । तो बलात्कार अपने आप बंद हो जाए । क्योंकि न होगा दमन । न होगा बलात्कार ।
अब ऐसा समझो कि तुम्हारी पत्नी अगर किसी पुरुष के साथ ताश खेल रही हो । तो कोई पाप तो नहीं हो गया । बलात्कार तो नहीं हो गया । तुम कोई पुलिस में तो नहीं चले जाओगे एकदम से । और तुमने देख लिया पत्नी को ताश खेलते हुए किसी के साथ । तो पत्नी कोई कैरोसिन डालकर आग जलाकर मर थोड़े ही जाएगी । ताश ही खेल रही थी । पाप क्या हो गया ?
अगर हम काम उर्जा को भी जीवन की सहत सामान्य चीज समझ लें । उसको इतना ऊंचा उठाकर रखा है । इतना सिर पर ढो रहे हैं । उसको इस तरह के ढोंग दे दिये हैं । पवित्रता के और धार्मिकता के ऐसे आभूषण पहना दिये हैं कि मुश्किल खड़ी हो गई है । उसकी वजह से कुछ लोग दमित हैं ।
अब ये जो गुंडे इस स्त्री को उठा ले गये । ये स्वभावतः ऐसे लोग नहीं हो सकते । जिन्होंने जीवन में स्त्री का प्रेम जाना हो । ये ऐसे लोग हैं । जिनको स्त्री का प्रेम नहीं मिला । और शायद इनको स्त्री का प्रेम मिलेगा भी नहीं । स्त्री का प्रेम ये जबरदस्ती छीन रहे हैं । जबरदस्ती छीनने को कोई भी तैयार होता है । जब उसे सहज मिले । जबरदस्ती लिए गये प्रेम का कोई मजा ही नहीं होता । कोई अर्थ ही नहीं होता ।
तो सहज तो प्रेम के लिए सुविधा नहीं जुटाने देते तुम । और अगर सहज प्रेम की सुविधा जुटाओ । तो कहते हो - समाज भ्रष्ट हो रहा है । ये समाज भ्रष्ट हो रहा है । चिल्लाने वाले लोग ही बलात्कारियों को पैदा करते हैं । हर बलात्कारी के पीछे तुम महात्माओं को छिपा पाओगे । तुम्हारे ऋषि मुनियों की संतान हैं ये - बलात्कारी ।
और फिर दूसरी तरफ भी गौर करो । किसी ने भी इस पर गौर नहीं किया । यह स्त्री घर आई । इसने आग लगाकर अपने को मार डाला । इसकी निंदा किसी ने भी नहीं की । बलात्कारियों की निंदा की । जरूर की जानी चाहिए । लेकिन इस स्त्री की निंदा किसी ने भी नहीं की । इस स्त्री ने भी मामले को बहुत भारी समझ लिया । क्योंकि इसको भी समझाया गया है । इसका सब सतीत्व नष्ट हो गया ।
क्या खाक नष्ट हो गया ? सतीत्व आत्मा की बात है । शरीर की बात नहीं । क्या नष्ट हो गया ? जैसे आदमी धूल से भर जाता है । तो स्नान कर लेता है । तो कोई शरीर नष्ट थोड़े ही हो गया कि शरीर गंदा थोड़े ही हो गया ।
यह गलत हुआ । मैं इसके समर्थन में नहीं हूं कि ऐसा होना चाहिए । लेकिन मैं इसके भी विरोध में हूं कि किसी स्त्री को हम इस हालत में खड़ा कर दें कि उसको आग लगाकर मरना पड़े । इसके लिए हम भी जिम्मेवार हैं । बलात्कारी जिम्मेवार हैं । और हम भी जिम्मेवार हैं । क्योंकि अगर यह स्त्री जिंदा रह जाती । तो इसको जीवन भर लांछन सहना पड़ता । जो इसको लांछन सहना पड़ता पड़ता । जो इसको लांछन देते । वे सब इसके पाप में भागीदार हुए । अगर यह स्त्री जिंदा रह जाती । तो इसका पति भी इसको नीची नजर से देखता । इसके बच्चे भी इसको नीची नजर से देखते । इसके पड़ोसी भी कहते कि - अरे यह क्या है । 2 कौड़ी की औरत । हां, अब वे सब कह रहे हैं कि सती हो गई । बड़ा गजब का काम किया । बड़ा महान कार्य किया । अब सती का चौरा बना देंगे । चलो 1 और ढांढन सती हो गई । अब इनकी झांकी सजाएंगे । वही मूढ़ता ।
तुम सब जिम्मेवार हो इस हत्या में । बलात्कार करवाने में जिम्मवार हो । इस स्त्री की हत्या में जिम्मेवार हो । इस स्त्री की भी निंदा होनी चाहिए । इसमें ऐसा क्या मामला हो गया ? इसका कोई कसूर न था । यह कोई स्वेच्छा से उनके साथ गई नहीं थी । इस पर जबरदस्ती की गई थी । अगर कोई जबरदस्ती तुम्हारे बाल काट ले रास्ते में । तो क्या तुम आग लगाकर अपने को मार डालोगे ? कि हमारा सब भ्रष्ट हो गया । हमारा मामला ही खतम हो गया । मगर ऐसे जमाने थे कि अगर रास्तें में कोई मिल जाता । और तुम्हारी मूछ काट लेता - मर गए । इज्जत चली गई । मूंछ कट गई । बात खत्म हो गई ।
अब मूंछ ही कट गई । आजकल तुम खुद ही जाकर रोज सफा करवा रहे हो । और ऐसा नहीं कि कोई नाई की गर्दन काट दो एकदम से कि तूने मेरी मूंछ क्यों काटी । उलटे पैसा देते हो । और नाई न मिले । तो खुद ही सुबह से उठकर रेजर से सफाई करते हो । मगर यह मूंछ कभी बड़ी ऊंची चीज थी । इसकी बड़ी पूछ थी । लोग इस पर ताव दिया करते थे । और जिसकी मूंछ नीची हो गई । उसका सब गया । मूंछ सब गया । मूंछ पर ताव देकर लोग चलते थे । अकड़ का हिस्सा थी । अहंकार का हिस्सा थी ।
यह सतीत्व की धारणा बचकानी है । थोथी है । यह जीवन की सहजता के अनुकूल नहीं है । पहले तो हमें, लोगों के काम जीवन की जितनी मुक्ति दी जा सके । देनी चाहिए । जहां तक बन सके । काम उर्जा को खेल से ज्यादा मत समझो । उसे खेल से ज्यादा गंभीर मत समझो । 1 जैविक खेल । लीला । इससे ज्यादा नहीं । तो क्रांति होगी ।
मगर बहुत गंभीरता से ले रहे हो । तुम कह रहे हो - पत्नी पर मुझे संदेह उठता है । उसके चरित्र पर संदेह उठता है
तुम हो कौन । जिसे पत्नी के चरित्र पर संदेह उठे ? तुम्हें फिक्र करनी है । अपने चरित्र की करो । पत्नी के चरित्र के तुम मालिक हो ? पत्नी की आत्मा के तुम मालिक हो ? पत्नी ने कोई तुम्हारे हाथ अपने को बेचा है ?
नहीं रामेश्वर । संदेह करने को । और बड़ी चीजें हैं । अपने पर संदेह करो । और श्रद्धा करने को । भी और भी बड़ी चीजें हैं । उन पर श्रद्धा करो । कहां छोटी चीजों में उलझते हो । और फिर इन्हीं में दबे दबे मर जाओगे । तो फिर 1 दिन कहोगे कि जिंदगी यूं ही गुजर गई । कुछ अर्थ न पाया । कोई सार्थकता न पाई । पाओगे भी कहां से ?
मनुष्य जाति बहुत सी भ्रांतियों के नीचे दबी जा रही है । मरी जा रही है । सड़ी जा रही है । मगर वे भ्रांतियां इतनी पुरानी हैं । और हम उनको इतना सम्मान देते रहे हैं कि हमें ख्याल में भी नहीं आता कि वे भ्रांतियां हैं । सतियों की अभी भी पूजा चल रही है । गांव गांव सतियों के चौरे हैं । क्या पागलपन है । स्त्रियों को जलाया । जलवाया । जलाने के आयोजन किये । हत्याएं कीं । और सम्मान दे रहे हो ।
और अभी भी यही सिखाया जा रहा है । कुंवारेपन की बड़ी कीमत समझी जाती है कि किसी लड़की का कुंवारा होना एकदम अनिवार्य है । विवाह के पूर्व । क्यों ? बात बिलकुल अवैज्ञानिक है । क्योंकि जिस युवती ने प्रेम का कोई अनुभव नहीं लिया । उसको तुम विवाह कर रहे हो । गैर अनुभवी सूत्री, और अगर दुर्भाग्य से युवक भी भोंदुओं के हाथ में पला हो । तो दोनों गैर अनुभवी । इन दोनों को बांधे दे रहे हो 1 नकेल में । इनकी जिंदगी को तुमने डाल दिया गड्डे में । थोड़े बहुत अनुभव से गुजर जाना उचित है । उपयोगी है ।
अफ्रीका में इस तरह के कबीले हैं । जो इस बात की फिक्र करते हैं कि इस लड़की का कितने लोगों से प्रेम संबंध रहा । जितने ज्यादा लोगों से प्रेम संबंध रहा हो । उतनी ही उसकी कीमत बढ़ जाती है । मैं मानता हूं कि वे ज्यादा मनोवैज्ञानिक हैं । आदिम, मगर ज्यादा कीमती उनका विचार है । क्योंकि जितने लोगों ने इसे प्रेम किया । इसके 2 अर्थ हुए । 1 कि यह स्त्री चाहने योग्य है । इतने लोगों ने चाहा । तो अकारण नहीं चाहा होगा । दूसरी बातः इतने लोगों ने चाहा । तो इसके जीवन में अनुभव है । उस अनुभव के आधार पर इसने कुछ परिपक्वता पाई होगी । कुंवारी लड़की को या कुंवारे लड़के का कोई अनुभव नहीं होता । 2 कुंवारों को बांध देना ऐसा ही है । जैसे 2 सांडों को । जिन्होंने कभी बैलगाड़ी नहीं चलाई । बांध दिया बैलगाड़ी में । तुम भी गिरोगे । सांड भी मुश्किल में पड़ेंगे । और बैलगाड़ी का तो कचूमर निकल जाएगा । दुर्घटना सुनिश्चित है । इसलिए प्रत्येक विवाह दुर्घटना हो जाती है ।
अनुभव से गुजरने दो । और क्यों इतना आग्रह एकाधिपत्य का ? मोनोपोली का ? क्यों तुम संदेह करते हो पत्नी पर ? यह एकाधिपत्य क्यों ? पत्नी कोई वस्तु तो नहीं है कि तुम उसके एकमात्र मालिक हो । अगर पत्नी को रुचिकर लगता हो । किसी और से भी प्रीतिकर संबंध उसके बनते हों । तो तुम क्यों इतने परेशान हुए जा रहे हो ?
नहीं । लेकिन हमारा पुरुष का दंभ बड़ा चोट खा जाता है । तिलमिला जाता है कि मेरे रहते और पत्नी किसी और को सुंदर समझे । और तुम कितनी स्त्रियों को समझ रहे हो । अपनी पत्नी के रहते ? गीता में दबाए बैठे हो हेमामालिनी का चित्र । बातें कर रहे हो कि गीता पढ़ रहे हैं । देख रहे हो हेमामालिनी का चित्र ।
खुद पर संदेह करो - रामेश्वर । पत्नी को खुद सोचने दो । अपने लिए सोचने दो । उसे अपनी जीवन धारा स्वयं नियत करने दो । किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता में बाधा न बनो । फिर वह तुम्हारी पत्नी हो । या पति हो । या बेटा हो । या बेटी हो । धार्मिक व्यक्ति का यह लक्षण होना चाहिए कि वह स्वयं की स्वतंत्रता की घोषणा करे । और औरों की स्वतंत्रता का सम्मान करे । इस पृथ्वी पर जितनी स्वतंत्रता बढ़े । उतना शुभ है । हम परमात्मा को उतने ही निकट ला सकेंगे ।
परमात्मा घट सकता है - स्वतंत्रता के 1 वातावरण में ही । इस परतंत्रता में नहीं । इन जंजीरों में नहीं । इन कारागृहों में नहीं । मुक्त होओ । और मुक्त करो ।

क्या पूर्व जन्म का ज्ञान होना संभव है ?

3 भारतीय योग दर्शन में पूर्व जन्म को जानने के सिद्धांत और यौगिक क्रियाओं का युक्ति पूर्ण वर्णन किया है । सिद्धांत कुछ इस तरह है - किसी एक ध्येय पदार्थ में धारणा । ध्यान । और समाधि । इन तीनों का पूर्णत: एकत्व होने से ’संयम’ हो जाता है । संयम करते करते योगी संयम पर आरूढ हो जाता है । अर्थात उसका चित्त पूर्णत: उसके अधीन हो जाता है । चित्त परिपक्व व निर्मल होने से उसकी ऋतंभरा बुद्धि में अलौकिक ज्ञान का प्रकाश आ जाता है । जिससे योगी को बाह्य और आंतरिक प्रत्येक वस्तु के स्वरूप का यथार्थ । और पूर्ण ज्ञान हो जाता है । पूर्व जन्म का ज्ञान होना संभव है ?
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जीव की मोहजनित अज्ञानतावश योग योगत्व और अलौकिकता जैसे शब्द भारी भरकम रहस्यमय और अति दूरी वाले दुर्लभ प्रतीत होने लगे । पर वास्तव में ये सत्य नहीं है । योग योगत्व और अलौकिकता हर आत्मा की निजी संपत्ति है । उसकी असली पहचान है ।
जीवन होने का एक मूलभूत सिद्धांत । मूल जरूरत ऊर्जा है । प्रकाश में निहित ऊर्जा । प्रकाश और ऊर्जा के बिना कुछ भी संभव नहीं है । भौतिक जगत में इसका रूपांतरित रूप - बिजली । पेट्रोलियम पदार्थ । कोयला । लकङी । गैसें आदि ऊर्जा स्रोत हैं । अतः ऊर्जा के बिना मंच पर कोई नाटक नहीं हो सकता । कोई सिनेमा नहीं चल सकता । और जीवन के इस रंगमंच पर यह सब नाटक ही हो रहा है । रमता राम की

रामलीला । इसलिये जो लोग योग भक्ति को ज्ञान बिज्ञान से अलग करके देखते हैं । वे महामूर्ख ही हैं । भौतिक बिज्ञान आंतरिक ज्ञान और बिज्ञान से ही निकलता है । और ये उसका स्थूल । आकारी । 3D  पदार्थ रूप ही है ।
धारणा । ध्यान । और समाधि - ये तीन अंग सिर्फ़ पूर्व जन्म और अलौकिक विषयों के लिये ही नहीं हैं । बल्कि जीवन में कदम कदम पर इन्हीं तीन से काम होता है । चाहे वह एक साल का बच्चा हो । या मरणासन्न वृद्ध । आप मकान बनायें । शादी । बच्चा पैदा । अध्ययन । व्यापार । झगङा आदि कुछ भी विचार करें । ये तीन अवश्य मौजूद होंगे ।
एक उदाहरण देखिये - आपने मकान बनाने का विचार किया । ख्याल आया । यानी चाह बनी । चेतना का ये प्रथम स्फ़ुरण ( विचार वायु से प्रेरित बुलबुला सा उठना ) है । यानी आपके शान्त सागर में ( अभी तक इस विचार से रहित जिन्दगी में ) इच्छा का हल्का सा बुलबुला बना । अब ये चाह - स्थिति । बीज बनने लगी । और ये तभी तो संभव हुआ । अब आप में ऊर्जा मौजूद है । बिना ऊर्जा के प्रथम बुलबुला ही नहीं बनता । तब आगे की बात ही क्या हो ।
अब इसी विचार वायु बुलबुले से धारणा पक्की होने लगी कि - भाई एक मकान जरूरी है । ध्यान रहे । इसकी संभावनायें आपके अन्दर मौजूद होंगी । तभी ऐसा विचार उठेगा । वरना उठेगा ही नहीं । अब गौर से समझना । धारणा । ध्यान । और समाधि 


तीनों अलग अलग होते हुये भी एक दूसरे में घुसे हुये हैं । पूरक हैं । एक दूसरे में गति कर रहे हैं । इनके ‍% का घट बढ हो रहा है । और तीनों में क्रियाशीलता ऊर्जा से ही हो रही है । चेतना से हो रही है । बिजली से हो रही है ।
तो अब मकान की धारणा मजबूत हुयी । और आगे ध्यान में उसके अनेक रंग विरंगे चित्र बनने लगे । यानी सिर्फ़ विचार से आगे अंतर में मकान बनने लगा । अगर गौर करेंगे । तो पायेंगे । मकान जैसी चीज में भी अनेक चित्र बनते हैं । तब कोई अंतिम निर्णय हो पाता है । और पूरा होते होते भी परिवर्तित हो सकता है ।
इसका अगला चरण समाधि है । समाधि मुख्यतया सविकल्प और बाद में निर्विकल्प होती है । इसके बहुत गहन भेद हैं । इसलिये मुख्य बात पर ही बात करते हैं ।
सविकल्प समाधि यानी इच्छित  कार्य को ऊर्जा देना । जब बात पक्की हो गयी । तो फ़िर उसे विभिन्न रूपा गतियों से आकार देने लगे ।


यानी धारणा ध्यान समाधि तीनों का पूर्णत: एकत्व होने से ’संयम’ हो गया । और संयम होते ही इच्छा साकार होने लगी । अब सोचिये । जो क्रिया बाहर से होती लग रही है । वो दरअसल अन्दर से हो रही है ।
पूर्व जन्म जिज्ञासा हेतु संसार में फ़ैली हुयी वृति ( बहिर्मुखता ) को एकाग्र कर अन्दर ले जाना ( अंतर्मुखी )
और फ़िर पिण्ड से ऊपर की ओर ( ऊर्ध्वमुखी ) उन्मुख करना होगा । आपकी इच्छा ( वासना ) से ये कारण ( शरीर ) में चली जायेगी । और इच्छित का ज्ञान होने लगेगा ।
वैसे संयम का बिज्ञान अपने आप में बहुत कुछ समेटे है । यूँ समझो । कोई उत्तम योगी हो । तो वो जलाकर राख कर दिये गये मुर्दे को फ़िर से सशरीर चला देगा । मतलब उसके राख कण आदि बन चुके अणु परमाणु वापिस देह कणों में परिवर्तित होकर देह खङी हो जायेगी । और जीवन वायु का संचार भी हो जायेगा । ऐसे कुछ उदाहरण हुये भी हैं । सरलता से यूँ समझो । ऐसा योगी जमे हुये दही को वापिस दूध में बदल सकता है । क्योंकि ये सारी क्रिया हुयी तो कहीं आंतरिक प्रकृति में ही । और वह वहीं स्थिति होकर वस्तु के घटकों में इच्छित बदलाव करता है । इसलिये संयम का बिज्ञान बहुत बङा है । इससे बङे बङे कार्य होते हैं । पूरे द्वैत योग का आधार ही एक तरह से संयम है ।

22 दिसंबर 2011

भूख भूख भोजन भोजन..हमें भूख लगी है

18 डायन का वास्तविक स्वरूप क्या है ? क्या वो इंसान शरीर में चलती फ़िरती प्रेतनी है ? या फ़िर एक औरत का दिमागी फ़ितूर । चरित्रहीन । संस्कार हीन होना है ? दरअसल मैं ठीक से समझ नहीं पा रहा हूं कि आखिर डायन बनने की स्थिति क्या है ? लोग डायन ही क्यों कहते है ? इस नाम का क्या अर्थ है ?
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आजकल अधिकतर बच्चे नर्सिंग होम में पैदा होने लगे हैं । और साफ़ स्वच्छ कीटाणु रहित वातावरण में पैदा होते हैं । पर कुछ ही दशक पहले ये बात नहीं थी । बल्कि आज भी पिछङे क्षेत्रों और गरीबी की स्थिति में बच्चे बङी अजीबोगरीव परिस्थितियों में पैदा होते हैं । मैंने खुद देखा था । प्रसूता औरत को एक उपेक्षित सा गन्दा कक्ष । और फ़टे पुराने गन्दे बिस्तर पर सोअर कक्ष दिया जाता था । जगह के अभाव में अक्सर बाहर बरामदा या कण्डा लकङी ईंधन आदि रखने के कमरे तक में स्थान बनाकर प्रसव कराया जाता था । और कई दिनों तक पूजा वगैरह होने तक उसी में रखा जाता था । उस स्थिति में प्रसूता के सिरहाने तकिया बिस्तर आदि के नीचे चाकू हँसिया किसी बाधा से बचाने हेतु रखा जाता था । तथा सोअर कक्ष के बाहर निरन्तर कण्डा जलाकर उसमें गन्धक डालकर उसका धुँआ किया जाता था । खास बात यह थी कि पूजा न होने तक प्रसूता स्त्री को अशुद्ध माना जाता है । यही बात मासिक धर्म से रजस्वला होने वाली लङकियों स्त्रियों पर लागू होती है । उन्हें पूजा स्थल और रसोई घर के लिये पूरी तरह अशुद्ध माना जाता है । सोचिये आज के समय में यह सम्भव है ।

आज रजस्वला स्त्रियाँ धङल्ले से खाना बनाती हैं । विवाहित स्त्री पुरुष बताते हैं । मासिक धर्म के समय संभोग करने से अलग तृप्ति और अनुभव होता है । इन सभी बातों का सम्बन्ध आपके प्रश्न से है ।
बृह्मा के द्वारा जब मृत्युकन्या देवी के विशाल परिवार की प्रथम समय सृष्टि हुयी । तो वे लाखों समस्त आकार वृतियाँ अपने अपने नाम कार्य अनुसार चित्र विचित्र और भयानक थी । वे काले रंग की थी । नग्न थी । उनके केश उलझे रूखे और बिखरे हुये थे । अजीबोगरीव विलाप कर रही थीं । हँस रही थी । और अजीब से स्वर में - भूख..भूख..भोजन..भोजन..हमें भूख लगी है । हमें भोजन दो । पुकार रही थीं । मतलब अन्य सृष्टि से विपरीत - वे भूख लिये पैदा हुयी थी । तब उनके भोजन का स्थान और स्थितियाँ तय की गयीं कि वे किस तरह सीमित परिस्थितियों में अपनी क्षुधा पूर्ति करेंगी । और ये परिस्थितियाँ बहुत कम भोजन देने वाली थीं ।
अब फ़िर से लौटते हुये एक रहस्यमय बात पर आते हैं । एक छोटा शिशु जो बिस्तर पर लौट पलट होने लगता है । अक्सर कभी कभी बहुत बार बिस्तर से नीचे पक्के फ़र्श पर गिर जाता है । सोचिये उसका सुकोमल अति नाजुक शरीर । और यूँ गिरना । लेकिन उसे कोई क्षति नहीं होती ।
पुराने जानकार कहते हैं - वैमाता देवी उसकी रक्षा करती हैं । एक निश्चित समय तक उसे खिलाना हँसाना गिरने पर गोद में उठा लेना आदि ये संभालती है । तभी इसके नाम में " माता " शब्द जुङा है । और भी गहराई में जायें । तो बच्चे के 


जन्म में भी इसकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है । और यहाँ तक कहा जाता है । कुछ सीमा तक यही भाग्य भी लिखती हैं ।
अब आपके प्रश्न पर आते हैं । दरअसल सात्विक तामसिक वृतियों का खेल जीवात्मा के जन्म के साथ ही शुरू हो जाता है । जन्म । मरण । एक बचाने वाला । एक मारने वाला । एक ऊर्जा देने वाला । एक ऊर्जा छीनने वाला ।
वैमाता के बाद मुझे खुद से ही जुङी दो घटनायें याद आती हैं । और ऐसे प्रसंग अन्य से भी मैंने सुने । मेरी जानकारी के ही दो बच्चे । उमृ 4 साल । और 2 साल । पास के ही एक घर से दूध लेने जाते थे । उनके यहाँ हाल ही में कुछ महीने पहले पैदा हुआ बच्चा था । वे अक्सर उसी के पास बैठ जाते थे । और एक दिन छोटे वाले बच्चे ने अक्समात उस  नवजात शिशु का टेंटुआ ( गला ) दबा सा दिया । काफ़ी देर में मामला सही हुआ । वह तो लगभग 2 साल का छोटा बच्चा था । खुद मैं लगभग 12 साल से ऊपर था । मेरी रिश्तेदारी में एक नवजात बच्चा हुआ था । मैं माँ और बच्चे के पास ही बैठा था कि अचानक जाने किस अदृश्य ताकत से मैंने बच्चे के मुँह पर भारी तकिया रख दिया । उसकी माँ तो हङबङा कर चीख ही उठी । और आश्चर्य से मुझे देखने लगी । ऐसी ही घटनायें मैंने और भी सुनी । अगर ये घटना खुद मेरे साथ नहीं हुयी होती । तो शायद आज मैं इसकी बारीक व्याख्या न कर पाता ।  2 साल के बच्चे ने किस भावावेश में गला दबाया होगा । रहस्य कभी न जान पाता ।
पर बात खुद मेरे साथ भी हुयी थी । और मैं भौंचक्का था । बाद में बहुत ग्लानि भी अनुभव कर रहा था । मैं उस 


बच्चे को संभालता था । उसकी मल मूत्र से सनी तिकोनी ( डायपर जैसा वस्त्र ) धुलाने हेतु पानी आदि भी डालता था । मेरी रिश्तेदार भी आश्चर्यचकित थी । मैं बताना चाहता था कि - मैंने जानबूझ कर नहीं किया । अचानक जाने किस अदृश्य प्रभाव में मैंने तकिया रखकर दबा दिया । मेरे अंतर्मन में यकायक उस बच्चे को मार डालने की लहर बनी ।
पर ये कोई बङा रहस्य नहीं था । मेरी कोई गलती नहीं थी ।  2 साल के बच्चे की कोई गलती नहीं थी । कोई वजह । कोई स्वभाव न था । ऐसा करने का । इसका उत्तर बङे बूङों के पास मौजूद था । और वह वही था । भोजन के लिये - भूख भूख चिल्लाती वृतियाँ । उन्हीं वृतियों ने मुझे । उन्हीं वृतियों ने 2 साल के बच्चे को माध्यम बना लिया था । और अस्वच्छता । तथा ऐसी बाधा हेतु माकूल इंतजाम न होने के कारण उन्हें मौका मिल गया । मारने वाले ने घात किया । बचाने वाले ने बचाया ।
तो डायनों के खेल की भूमिका जन्म से ही शुरू हो जाती है । एक नवजीवन लाखों संभावनाओं ऊँच नीच भरे जीवन के उतार चढाव के साथ शुरू होता है । इसका सटीक सचित्र प्रमाण हमें श्रीकृष्ण के जीवन से मिलता है । 


उनके जन्म से पूर्व ही उन्हें मारने का खेल शुरू हो गया । पूतना । तृणाबृत । तामसिक तांत्रिक । वकासुर आदि तमाम वृतियों ने अपनी क्षुधा पूर्ति हेतु उन पर घात किया ।
नवजात बच्चा सरल है । दुष्ट वृतियों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता भी अभी उसके पास नहीं है । वह आपकी हर अच्छी बुरी भावना से प्रभावित हो जाता है । अब उस बच्चे के जन्म पर देखने आने वाले विभिन्न लोगों की वृतियाँ भी जानियें । कोई खुश हुआ है । उसके ह्रदय में प्यार है । स्नेह है । वह प्रेम और ममता बच्चे पर उङेल देता है । दुआ देता है । पर संसार में ऐसे लोग बहुत कम होते हैं ।
इसलिये कोई जलन लेकर आता है । किसी के बच्चा नहीं हुआ । हुआ तो बहुत कष्ट से हुआ । खर्च करके हुआ । इसका आसानी से हो गया । हष्ट पुष्ट हुआ । गोरा चिट्टा हुआ । कैसा सुन्दर है । इसके हो क्यों गया । देखो कितनी भाग्यशाली है । लङके का ही जन्म होता है । और हमारे लङकियों की लाइन लगी है । डाह । जलन । डासना । डासन । ऐसे विभिन्न विरोधी भाव वाले लोग अधिक होते हैं । हजारों भावों वाली जलन । और ये वही होते हैं । जिनसे आपका प्रेम व्यवहार होता है । जो ऊपर ऊपर से बधाई देते हुये फ़ल फ़ूल मिठाई लेकर आते हैं ।
मैंने अक्सर देखा है । अच्छे खाते पीते अमीर लोग गरीबों के हष्ट पुष्ट बच्चों को देखकर जलते हैं । हम कितना केयर करते हैं । कितना अच्छा खाना देते हैं । फ़िर भी हमारा कमजोर और भिनकता सा है । ये सूखी रोटी खाकर भी मुस्टण्डा सा कैसा मस्त कुलांचे मार रहा है । बताओ इसकी भी जलन । और जलन केवल अमीर में नहीं । इसके उलट

गरीब में भी है । हमारे बच्चे के पास अच्छे कपङे और अच्छा भोजन दूध मिठाई चाकलेट आदि नहीं है । इन सबके लिये वह अमीरों से जलता है ।
इसलिये आदमी औरत तो वही हैं । किसी न किसी बात पर उनमें दूसरे से जलन हैं । उस चीज का उन पर अभाव है । तो भी । नहीं है । तो भी । जलन बरकरार है - ये साला सुखी क्यों हैं ?
यही है । डायनी वृतियों का भोजन । उनके निवास का स्थान । ऐसा भाव ज्यों ही जागा । मनुष्य उनके प्रभाव में आ गया । और अनजाने में उनका माध्यम बन गया । पाप का भागी बन गया । स्त्री जाति को प्रभावित करने वाले मृत्युकन्या परिवार के ये गण स्त्री रूप होते हैं । और पुरुष को प्रभावित करने वाले पुरुष रूप । इसलिये डायनी वृतियाँ दोनों के माध्यम से आक्रामक होती हैं ।
मुख्यतयाः अस्वच्छता अशौच स्थिति वाले स्थान इनके नियम में आते हैं । उदाहरण के लिये मासिक धर्म के दिनों आपस में विवाहित स्त्री पुरुष संभोग करें । तो समझो । उन्होंने क्षीण अँश रूप ही सही डायनों चुङैलों को आमंत्रित कर दिया । उनके अस्तित्व में एक तिनका एक बार में जुङ गया । इसी स्थिति में पर स्त्री पर पुरुष संभोग करें । तो इकठ्ठे 10 तिनके जुङ गये । इसी स्थिति में विधवा संभोग करे । तो 100 कण । यही संभोग पूजा स्थल । शमशान स्थल आदि पर हो । तो 1000 कण । और यही संभोग कोई कुँवारी लङकी करें । तो 10 हजार कण । भूख..भूख..भोजन..भोजन..हमें भूख लगी है । क्या आप जानते हैं । रजस्वला स्त्री के मासिक धर्म का गन्दा रक्त इनका भोजन है । उसका रक्त सना इस्तेमाल किया गया वस्त्र इन्हीं को पोषण देता हैं । और ये सब आज के जीवन में घुल 


मिल गया है । इसलिये आपको आज भारतीय नारी पुरुष कहीं नजर नहीं आयेंगे । काम पिपासु डायन चुङैल प्रेत पि्शाच आवेशित स्त्री पुरुषों की भीङ नजर आयेगी ।
बुजुर्गों के अपमान और घोर उपेक्षा के चलते ये ज्ञान लुप्त प्रायः हो गया है । ये बात मुझे एक बुजुर्ग ने ही बतायी थी । यू पी में वृद्ध स्त्री पुरुषों के लिये - डोकर । डोकरी । शब्द अधिकांश प्रयोग किया जाता है । और वे इस शब्द से बहुत चिढते थे । उन्होंने मुझे बताया - डोकर डोकरी ऐसे बूङों को कहा जाता हैं । जो खुद तो जीते बचे हों । लेकिन उनके परिवार के अधिकतर लोग काल कवलित हो गये हों । " ढोक " शब्द खाने या पानी या अन्य कुछ पीने को कहा जाता है । मतलब किसी चीज को खाने पीने की जिद सी बन गयी हो । व्याकुलता सी होती हो । इसलिये जिनके परिवार के लोग समाप्त हो जाते थे । उन पर ढोक लेने का दोषारोपण आ जाता था कि इसने सबको ढोक लिया । और खुद तना बैठा है । इसी ढोक से ढोकरा बना होगा । जो बाद में डोकरा डोकरी हो गया । इसके विपरीत सपरिवार वृद्धों को काका दादा बाबा काकी आदि स्थानीय बोली अनुसार कहते थे ।
अब आप गौर करें । कोई बच्चा पैदा हो । किसी लङके लङकी की शादी हो । और उसके आगमन के साथ ही इस तरह के मृत्यु उपदृव लगातार होने लगें । तो सीधा कहा जाता है - आते ही खा गयी । सबको एक एक कर खा गयी । डायन ने ऐसा पैर घर में रखा । दामाद ऐसा होने पर पुरुष के लिये राक्षस कहा जाता है । इन तीनों के अतिरिक्त भी कोई इंसान आकर जुङ जाये । साथ रहने लगे । और ऐसा कुछ हो । तब भी ऐसा ही कहा जाता है । ऐसे ही आकस्मिक परिणामों से डायन को समाज ने जाना । जानता आया है ।

जाहिर है । कभी शुरूआत में ये शब्द और परिभाषा लक्षण गुण आदि रहस्य किसी आंतरिक जगत के जानकार ने बताये होंगे । और फ़िर परम्परा से चले आ रहे हैं । मृत्युकन्या के विशाल परिवार के ये दो सदस्य डायन और चुङैल काफ़ी लोकप्रिय हैं । और ये किसी भी गलतफ़हमी से भी नहीं हैं । बल्कि सच्चाई के करीव हैं ।
काम । क्रोध । लोभ । मोह । मद में सबसे बङा क्रोध काल रूप है । कबीर ने कहा - जहाँ क्रोध तहाँ काल है । इसलिये बात मृत्यु की ही नहीं हैं । सास बहू की गम्भीर टशन । जलन । ननद भाभी । देवरानी जेठानी । सौतनें । जलने वाली सहेलियाँ । पङोसी आदि आदि सम्बन्ध अतृप्त काम ( कोई भी कामना ) की चपेट में आकर क्रोध ( काल ) से गृसित हो जाते हैं । तब ये वृतियाँ अधिकाधिक पोषण पाती हैं । प्रकट होती हैं । यदि प्रभावित कामवासना से गृसित है । फ़िर तो सोने पर सुहागा ।
आप कभी भी एक प्रयोग करके देखना । एक शालीन परिवार की लङकी बहू औरत कोई भी दमित भावनाओं से अति कुण्ठा की स्थिति में आ जाये । और वो ये शब्द जानती भी न हो । फ़िर सास बहू आदि किन्हीं दो पात्रों के बीच ये तकरार चरम पर पहुँच
जाये । दोनों को लगे कि - उसकी वजह से उनका जीना हराम हो गया है । तब डायन चुङैल हरामजादी शब्द उसके

मुँह से स्वतः ही निकलेंगे । भले ही उसने आज तक इनका प्रयोग न किया हो । और पुरुष के लिये - राक्षस । हरामजादा । इसकी चिता जले..आदि ।
अब यहाँ निकलने वाला हरामजादा शब्द भी बङा ही अर्थपूर्ण है । और वो सामान्य स्थिति वाला । अवैध सन्तान वाला नहीं है । क्योंकि ये गाली देते समय कहीं भी उसकी अवैधता के प्रति भाव आता ही नहीं है । बल्कि दो जीवात्माओं के बीच कटुता कलह पैदा करने वाली नाजायज अज्ञात उत्पन्न वृति के लिये है । अवैध रूप से जन्मा ।
आज इस बात को यहीं समाप्त करता हूँ । दरअसल बात को ठीक तरह से समझाने के लिये ये सब भूमिका आवश्यक थी । और लेख काफ़ी बङा हो गया । कैसे करती हैं - ये काम वृतियाँ अपना खेल । कैसे बनाती है शिकार भोले जीव को । इस पर चर्चा अगले दिनों में ।

12 दिसंबर 2011

वही पुराना रोग जारी है

सत्यज - शब्द बड़ा महत्वपूर्ण है । सिर्फ त्याग नहीं । सम्यक त्याग । क्योंकि त्याग तो कभी कभी कोई हठ में भी कर देता है । जिद में भी कर देता है । कभी कभी तो अहंकार में भी कर देता है । तुम जाते हो न किसी के पास दान लेने । तो पहले उसके अहंकार को खूब फुसलाते हो कि आप महादानी । आपके बिना क्या संसार में धर्म रहेगा । खूब हवा भरते हो । जब देखते हो कि फुग्गा काफी फैल गया है । तब तुम बताते हो कि 1 मंदिर बन रहा है । अब आपकी सहायता की जरूरत है । वह जो आदमी 1 रुपया देता । शायद 100 रुपये दे । तुमने खूब फूला दिया है । लेकिन दान आ रहा है । वह सम्यक त्याग नहीं है । वह तो अहंकार का हिस्सा है । अहंकार से कहीं सम्यक त्याग हो सकता है ? मैंने सुना है कि 1 राजनीतिज्ञ अफ्रीका के 1 जंगल में शिकार खेलने गया । और पकड़ लिया गया । जिन्होंने पकड़ लिया । वे थे नरभक्षी कबीले के लोग । वे जल्दी उत्सुक थे उसको खा जाने को । कढाए चढ़ा दिए गये । लेकिन वह जो उनका प्रधान था । वह उसकी खूब प्रशंसा कर रहा है । और देर हुई जा रही है । ढोल बजने लगे । और लोग तैयार हैं कि अब भोजन का मौका आया जा रहा है । और ऐसा सुस्वाद भोजन बहुत दिन से मिला नहीं था । देर होने लगी । तो 1 ने आकर कहा अपने प्रधान को कि - इतनी देर क्यों करवा रहे हो ? उसने कहा कि - तुम ठहरो । यह राजनीतिज्ञ है । मैं जानता हूं । पहले इसको फूला लेने दो । जरा इसकी प्रशंसा कर लेने दो । जरा फूलकर कुप्पा हो जाए । तो ज्यादा लोगों का पेट भरेगा । नहीं तो वह ऐसे ही दुबला पतला है । ठहरो थोड़ा । मैं जानता हूं राजनीतिज्ञ को । पहले उसके दिमाग को खूब फूला दो । तुम्हारा अहंकार कभी  कभी त्याग के लिए भी तैयार हो जाता है । तुमने देखा न । कभी अगर त्यागी की शोभायात्रा निकलती है कि जैन मुनि आए । शोभायात्रा निकल रही है । राह के किनारे खड़े होकर तुम्हें भी देखकर मन में उठता है - ऐसा सौभाग्य अपना कब होगा ? जब अपनी भी शोभायात्रा निकले । 1 दफे मन में सपना उठता है कि हम भी इसी तरह सब छोड़छाड़ कर । रखा भी क्या है संसार में ?  शोभायात्रा निकलवा लें । लोग उपवास कर लेते हैं - 8-8 10-10 दिन के । क्योंकि 10 दिन के उपवास के बाद प्रशंसा होती है । सम्मान मिलता है । मित्र प्रियजन, पड़ोसी पूछने आते हैं - सुख दुख । सेवा के लिए आते हैं । बड़ा काम कर लिया । छोटे छोटे बच्चे भी अगर घर में उपवास की महिमा हो । तो उपवास करने को तैयार हो जाते हैं । सम्मान मिलता है । अगर अहंकार को सम्मान मिल रहा हो । तो त्याग सत्यता नहीं है । फिर वही पुराना रोग जारी है । कोई क्रांति नहीं घटती । क्रांति के लिए भी हमारे पास 2 शब्द हैं - क्रांति । और संक्रांति । तो जो क्रांति जबर्दस्ती हो जाए । किसी मूढ़ता वश हो जाए । आग्रह पूर्वक हठ पूर्वक हो जाए - वह क्रांति । लेकिन जब कोई क्रांति जीवन के बोध से निकलती है । तो - संक्रांति । सहज निकलती है । तो - संक्रांति । संत्यज का अर्थ होता है - सम्यक रूपेण बोधपूर्वक छोड़ दो । किसी कारण से मत छोड़ो । व्यर्थ है । इसलिए छोड़ दो । धन को इसलिए मत छोड़ो कि धन छोड़ने से गौरव मिलेगा । त्यागी की महिमा होगी । या स्वर्ग मिलेगा । या पुण्य मिलेगा । और पुण्य को भंजा लेंगे भविष्य में । तो फिर सम्यक त्याग न हुआ । असम्यक हो गया । इसलिए छोड़ दो कि - देख लिया । कुछ भी नहीं है । तुम 1 पत्थर लिए चलते थे सोचकर कि हीरा है । फिर मिल गया कोई पारखी । उसने कहा - पागल हो ? यह पत्थर है । हीरा नहीं । 1 जौहरी मरा । उसका बेटा छोटा था । उसकी पत्नी ने कहा कि - तू अपने पिता के मित्र 1 दूसरे जौहरी के पास चला जा । हमारे पास बहुत से हीरे जवाहरात तिजोरी में रखे हैं । वह उनको बिकवा देगा । तो हमारे लिए पर्याप्त हैं । वह जौहरी बोला - मैं खुद आता हूं । वह आया । उसने तिजोरी खोली । 1 नजर डाली । उसने कहा - तिजोरी बंद रखो । अभी बाजार भाव ठीक नहीं । जैसे ही बाजार भाव ठीक होंगे । बेच देंगे । और तब तक कृपा करके बेटे को मेरे पास भेज दो । ताकि वह थोड़ा जौहरी का काम सीखने लगे । वर्ष बीता । 2 वर्ष बीते । बार बार स्त्री ने पुछवाया कि - बाजार भाव कब ठीक होंगे । उसने कहा - जरा ठहरो । 3 वर्ष बीत जाने पर उसने कहा कि - ठीक, अब मैं आता हूं । बाजार भाव ठीक हैं । 3 वर्ष में उसने बेटे को तैयार कर दिया । परख आ गई बेटे को । वे दोनों आए । तिजोरी खोली । बेटे ने अंदर झांककर देखा । हंसा । उठाकर पोटली को बाहर कचरे घर में फेंक आया । मां चिल्लाने लगी कि - पागल, यह क्या कर रहा है । तेरा होश तो नहीं खो गया ?  उसने कहा कि - होश नहीं । अब मैं समझता हूं कि मेरे पिता के मित्र ने क्या किया । अगर उस दिन वे इनको कहते कि ये कंकड़ पत्थर हैं । तो हम भरोसा नहीं कर सकते थे । हम सोचते कि शायद यह आदमी धोखा दे रहा है । अब तो मैं खुद ही जानता हूं कि ये कंकड़ पत्थर हैं । इन 3 साल के अनुभव ने मुझे सिखा दिया कि हीरा क्या है । ये हीरे नहीं हैं । हम धोखे में पड़े थे । यह सम्यक त्याग हुआ । बोधपूर्वक हुआ । जब तक तुम त्याग किसी चीज को पाने के लिए करते हो । वह त्याग नहीं - सौदा है । सम्यक त्याग नहीं । सम्यक त्याग तभी है । जब किसी चीज की व्यर्थता दिखाई पड़ गई । अब तुम किसी के लिए थोड़े ही छोड़ते हो । सुबह तुम घर का कचरा झाड़ बुहार कर कचरे घर में फेंक आते हो । तो अखबार में खबर थोड़े ही करवाते हो कि आज फिर कचरे का त्याग कर दिया । वह सम्यक त्याग है । जिस दिन कचरे की तरह चीजें तुम छोड़ देते हो । उस दिन सम्यक त्याग, बोध पूर्वक जानकर कि ऐसा है ही नहीं ।
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गुरुनानक तीर्थाटन करते हुए मक्का शरीफ पधारे । रात हो गई थी । अतः वे समीप ही 1 वृक्ष के नीचे सो गए । सबेरे उठे । तो उन्होंने अपने चारों ओर बहुत सारे मुल्लाओं को खड़ा पाया । उनमें से 1 ने नानक देव को उठा देख डांटकर पूछा - कौन हो जी तुम ? जो खुदा पाक के घर की ओर पांव किए सो रहे हो ? 
बात यह थी कि नानक देव के पैर जिस ओर थे । उस ओर काबा था । नानक देव ने उत्तर दिया - जी, मैं 1 मुसाफिर हूं । गलती हो गई । आप इन पैरों को उस ओर कर दें । जिस ओर खुदा का घर नहीं हो ।
यह सुनते ही उस मुल्ला ने गुस्से से पैर खींचकर दूसरी ओर कर दिए । किंतु सबको यह देख आश्चर्य हुआ कि उनके पैर अब जिस दिशा की ओर किए गए थे । काबा भी उसी तरफ है । वह मुल्ला तो आगबबूला हो उठा । और उसने उनके पैर तीसरी दिशा की ओर कर दिए । किंतु यह देख वह दंग रह गया कि काबा भी उसी दिशा की ओर है । सभी मुल्लाओं को लगा कि यह व्यक्ति जरूर ही कोई जादूगर होगा । वे उन्हें काजी के पास ले गए । और उससे सारा वृत्तांत कह सुनाया । काजी ने नानकदेव से प्रश्न किया - तुम कौन हो । हिंदू या मुसलमान ?
जी ! मैं तो 5 तत्वों का पुतला हूं - उत्तर मिला ।
- फिर तुम्हारे हाथ में पुस्तक कैसे है ?
- यह तो मेरा भोजन है । इसे पढ़ने से मेरी भूख मिटती है ।
इन उत्तरों से ही काजी जान गया कि यह साधारण व्यक्ति नहीं । बल्कि कोई दिव्य महापुरुष है । उसने उनका आदर किया । और उन्हें तख्त पर बिठाया ।

उंगलियों में पाँचों तत्व मौजूद होते हैं

हस्त मुद्रा चिकित्सा - मानव शरीर अनन्त रहस्यों से भरा हुआ है । शरीर की अपनी 1 मुद्रामयी भाषा है । जिसे करने से शारीरिक स्वास्थ्य लाभ में सहयोग होता है । यह शरीर 5 तत्वों के योग से बना है । 5 तत्त्व ये हैं - 1 पृथ्वी 2 जल 3 अग्नि 4 वायु 5 आकाश ।  हस्त मुद्रा चिकित्सा के अनुसार हाथ तथा हाथों की उंगलियों और उंगलियों से बनने वाली मुद्राओं में आरोग्य का राज छिपा हुआ है । हाथ की उंगुलियों में 5 तत्त्व प्रतिष्ठित हैं । ऋषि मुनियों ने हजारों साल पहले इसकी खोज कर ली थी । एवं इसे उपयोग में लाते रहे । इसीलिये वे लोग स्वस्थ रहते थे । ये शरीर में चैतन्य को अभिव्यक्ति देने वाली कुंजियां हैं ।
उंगुली में 5 तत्व - हाथों की 10 उंगलियों से विशेष प्रकार की आकृतियां बनाना ही हस्त मुद्रा कही गई है । हाथों की सारी उंगलियों में पाँचों तत्व मौजूद होते हैं । जैसे अंगूठे में - अग्नि तत्व । तर्जनी उंगली में - वायु तत्व । मध्यमा उंगली में - आकाश तत्व । अनामिका उंगली में - पृथ्वी तत्व । और कनिष्का उंगली में - जल तत्व ।
उंगलियों के पांचों वर्ग से अलग अलग विद्युत धारा बहती है । इसलिए मुद्रा विज्ञान में जब उंगलियों का रोग अनुसार आपसी स्पर्श करते हैं । तब रुकी हुई या असंतुलित विद्युत बहकर शरीर की शक्ति को पुन: जगा देती है । और हमारा शरीर निरोग होने लगता है । ये अदभुत मुद्राएं करते ही यह अपना असर दिखाना शुरू कर देती हैं ।
किसी भी मुद्रा को करते समय जिन उंगलियों का कोई काम न हो । उन्हें सीधी रखें । वैसे तो मुद्राएं बहुत हैं । पर कुछ मुख्य मुद्राओं का वर्णन यहाँ किया जा रहा है । जैसे -
1 ज्ञान मुद्रा विधि - अंगूठे को तर्जनी उंगली के सिरे पर लगा दे । शेष 3 उंगलियां चित्र के अनुसार सीधी रहेंगी ।
लाभ - स्मरण शक्ति का विकास होता है । और ज्ञान की वृद्धि होती है । पढ़ने में मन लगता है । तथा अनिद्रा का नाश, स्वभाव में परिवर्तन, अध्यात्म शक्ति का विकास और क्रोध का नाश होता है ।
सावधानी - खानपान सात्त्विक रखना चाहिये । पान पराग, सुपारी, जर्दा इत्यादि का सेवन न करे । अति उष्ण और अति शीतल पेय पदार्थों का सेवन न करे ।
2 वायु मुद्रा विधि - तर्जनी उंगली को मोड़कर अंगूठे के मूल में लगाकर हलका दबाये । शेष उंगलियां सीधी रखे ।
लाभ - वायु शान्त होती है । लकवा, साइटिका, गठिया, संधिवात, घुटने के दर्द ठीक होते हैं । गर्दन के दर्द, रीढ़ के दर्द आदि विभिन्न रोगों में फायदा होता है ।
विशेष - इस मुद्रा से लाभ न होने पर प्राण मुद्रा ( संख्या 10 ) के अनुसार प्रयोग करे । सावधानी - लाभ हो जाने तक ही करे इस मुद्रा को ।
3 आकाश मुद्रा विधि - मध्यमा उंगली को अंगूठे के अग्रभाग से मिलायें । शेष तीनों उंगलियाँ सीधी रहें ।
लाभ - कान के सब प्रकार के रोग जैसे बहरापन आदि, हड्डियों की कमजोरी तथा हृदय रोग ठीक होता है ।
सावधानी - भोजन करते समय एवं चलते फिरते यह मुद्रा न करें । हाथों को सीधा रखें । लाभ हो जाने तक ही करें ।
4 शून्य मुद्रा विधि - मध्यमा उंगली को मोड़कर अंगुष्ठ के मूल में लगायें । एवं अंगूठे से दबायें ।
लाभ - कान के सब प्रकार के रोग जैसे बहरापन आदि दूर होकर शब्द साफ सुनायी देता है । मसूढ़े की पकड़ मजबूत होती है । तथा गले के रोग एवं थायरायड रोग में फायदा होता है ।
5 पृथ्वी मुद्रा विधि - अनामिका उंगली को अंगूठे से लगाकर रखें ।
लाभ - शरीर में स्फूर्ति, कान्ति एवं तेजस्विता आती है । दुर्बल व्यक्ति मोटा बन सकता है । वजन बढ़ता है । जीवनी शक्ति का विकास होता है । यह मुद्रा पाचन क्रिया ठीक करती है । सात्त्विक गुणों का विकास करती है । दिमाग में शान्ति लाती है । तथा विटामिन की कमी को दूर करती है ।
6 सूर्य‌‌ मुद्रा विधि - अनामिका उंगली को अंगूठे के मूल पर लगाकर अंगूठे से दबायें ।
लाभ - शरीर संतुलित होता है । वजन घटता है । मोटापा कम होता है । शरीर में उष्णता की वृद्धि, तनाव में कमी, शक्ति का विकास, खून का कोलस्ट्रॉल कम होता है । यह मुद्रा मधुमेह, यकृत ( जिगर ) के दोषों को दूर करती है ।
सावधानी - दुर्बल व्यक्ति इसे न करें । गर्मी में ज्यादा समय तक न करें ।
7  वरुण मुद्रा विधि - कनिष्ठा उंगली को अंगूठे से लगाकर मिलायें ।
लाभ - यह मुद्रा शरीर में रूखापन नष्ट करके चिकनाई बढ़ाती है । चमड़ी चमकीली तथा मुलायम बनाती है । चर्मरोग, रक्तविकार एवं जल तत्त्व की कमी से उत्पन्न व्याधियों को दूर करती है । मुँहासों को नष्ट करती । और चेहरे को सुन्दर बनाती है ।
सावधानी‌ - कफ प्रकृति वाले इस मुद्रा का प्रयोग अधिक न करें ।
8 अपान मुद्रा विधि - मध्यमा तथा अनामिका उंगलियों को अंगूठे के अग्रभाग से लगा दें ।
लाभ - शरीर और नाड़ी की शुद्धि तथा कब्ज दूर होता है । मल दोष नष्ट होते हैं । बवासीर दूर होता है । वायु विकार, मधुमेह, मूत्रावरोध, गुर्दों के दोष, दांतों के दोष दूर होते हैं । पेट के लिये उपयोगी है । हृदय रोग में फायदा होता है । तथा यह पसीना लाती है ।
सावधानी - इस मुद्रा से मूत्र अधिक होगा ।
9 अपान वायु या हृदय रोग मुद्रा विधि - तर्जनी उंगली को अंगूठे के मूल में लगायें । तथा मध्यमा और अनामिका उंगलियों को अंगूठे के अग्रभाग से लगा दें ।
लाभ - जिनका दिल कमजोर है । उन्हें इसे प्रतिदिन करना चाहिये । दिल का दौरा पड़ते ही यह मुद्रा कराने पर आराम होता है । पेट में गैस होने पर यह उसे निकाल देती है । सिर दर्द होने तथा दमे की शिकायत होने पर लाभ होता है । सीढ़ी चढ़ने से 5-10 मिनट पहले यह मुद्रा करके चढ़ें । इससे उच्च रक्तचाप में फायदा होता है ।
सावधानी - हृदय का दौरा आते ही इस मुद्रा का आकस्मिक तौर पर उपयोग करें ।
10  प्राण मुद्रा विधि - कनिष्ठा तथा अनामिका उंगलियों के अग्रभाग को अंगूठे के अग्रभाग से मिलायें ।
लाभ - यह मुद्रा शारीरिक दुर्बलता दूर करती है । मन को शान्त करती है । आंखों के दोषों को दूर करके ज्योति बढ़ाती है । शरीर की रोग प्रतिरोधक शक्ति बढ़ाती है । विटामिनों की कमी को दूर करती है । तथा थकान दूर करके नवशक्ति का संचार करती है । लंबे उपवास काल के दौरान भूख प्यास नहीं सताती । तथा चेहरे और आंखों एवं शरीर को चमकदार बनाती है । अनिद्रा में इसे ज्ञान मुद्रा ( संख्या 1 ) के साथ करें ।
11 लिङ्ग मुद्रा विधि - चित्र के अनुसार मुठ्ठी बाँधे । तथा बायें हाथ के अंगूठे को खड़ा रखे । अन्य उंगलियाँ बंधी हुई रखें ।
लाभ - शरीर में गर्मी बढ़ाती है । सर्दी, जुकाम, दमा, खांसी, साइनस, लकवा तथा निम्न रक्तचाप में लाभप्रद है । कफ को सुखाती है ।
सावधानी‌:- इस मुद्रा का प्रयोग करने पर जल, फल, फलों का रस, घी और दूध का सेवन अधिक मात्रा में करें । इस मुद्रा को अधिक लम्बे समय तक न करें ।

अष्टावक्र गीता वाणी ध्वनि स्वरूप - 68

अष्टावक्र त्रेता युग के महान आत्मज्ञानी सन्त हुये । जिन्होंने जनक को कुछ ही क्षणों में आत्म साक्षात्कार कराया । आप भी  इस दुर्लभ गूढ रहस्य को इस वाणी द्वारा आसानी से जान सकते हैं । इस वाणी को सुनने के लिये नीचे बने नीले रंग के प्लेयर के प्ले > निशान पर क्लिक करें । और लगभग 3-4 सेकेंड का इंतजार करें । गीता वाणी सुनने में आपके इंटरनेट कनेक्शन की स्पीड पर उसकी स्पष्टता निर्भर है । और कम्प्यूटर के स्पीकर की ध्वनि क्षमता पर भी । प्रत्येक वाणी 1:30 घण्टे से भी अधिक की है । इस प्लेयर में आटोमेटिक ही वाल्यूम 50% यानी आधा होता है । जिसे वाल्यूम लाइन पर क्लिक करके बढा सकते हैं । इस वाणी को आप डाउनलोड भी कर सकते हैं । इसके लिये प्लेयर के अन्त में स्पीकर के निशान के आगे एक कङी का निशान या लेटे हुये  8 जैसे निशान पर क्लिक करेंगे । तो इसकी लिंक बेवसाइट खुल जायेगी । वहाँ डाउनलोड आप्शन पर क्लिक करके आप इस वाणी को अपने कम्प्यूटर में डाउनलोड कर सकते हैं । ये वाणी न सिर्फ़ आपके दिमाग में अब तक घूमते रहे कई प्रश्नों का उत्तर देगी । बल्कि एक  मुक्तता का अहसास भी करायेगी । और तब हर कोई अपने को बेहद हल्का और आनन्द युक्त महसूस करेगा । ॐ शान्ति ।

अष्टावक्र गीता वाणी ध्वनि स्वरूप - 67

अष्टावक्र त्रेता युग के महान आत्मज्ञानी सन्त हुये । जिन्होंने जनक को कुछ ही क्षणों में आत्म साक्षात्कार कराया । आप भी  इस दुर्लभ गूढ रहस्य को इस वाणी द्वारा आसानी से जान सकते हैं । इस वाणी को सुनने के लिये नीचे बने नीले रंग के प्लेयर के प्ले > निशान पर क्लिक करें । और लगभग 3-4 सेकेंड का इंतजार करें । गीता वाणी सुनने में आपके इंटरनेट कनेक्शन की स्पीड पर उसकी स्पष्टता निर्भर है । और कम्प्यूटर के स्पीकर की ध्वनि क्षमता पर भी । प्रत्येक वाणी 1:30 घण्टे से भी अधिक की है । इस प्लेयर में आटोमेटिक ही वाल्यूम 50% यानी आधा होता है । जिसे वाल्यूम लाइन पर क्लिक करके बढा सकते हैं । इस वाणी को आप डाउनलोड भी कर सकते हैं । इसके लिये प्लेयर के अन्त में स्पीकर के निशान के आगे एक कङी का निशान या लेटे हुये  8 जैसे निशान पर क्लिक करेंगे । तो इसकी लिंक बेवसाइट खुल जायेगी । वहाँ डाउनलोड आप्शन पर क्लिक करके आप इस वाणी को अपने कम्प्यूटर में डाउनलोड कर सकते हैं । ये वाणी न सिर्फ़ आपके दिमाग में अब तक घूमते रहे कई प्रश्नों का उत्तर देगी । बल्कि एक  मुक्तता का अहसास भी करायेगी । और तब हर कोई अपने को बेहद हल्का और आनन्द युक्त महसूस करेगा । ॐ शान्ति ।

अष्टावक्र गीता वाणी ध्वनि स्वरूप - 66

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अष्टावक्र गीता वाणी ध्वनि स्वरूप - 65

अष्टावक्र त्रेता युग के महान आत्मज्ञानी सन्त हुये । जिन्होंने जनक को कुछ ही क्षणों में आत्म साक्षात्कार कराया । आप भी  इस दुर्लभ गूढ रहस्य को इस वाणी द्वारा आसानी से जान सकते हैं । इस वाणी को सुनने के लिये नीचे बने नीले रंग के प्लेयर के प्ले > निशान पर क्लिक करें । और लगभग 3-4 सेकेंड का इंतजार करें । गीता वाणी सुनने में आपके इंटरनेट कनेक्शन की स्पीड पर उसकी स्पष्टता निर्भर है । और कम्प्यूटर के स्पीकर की ध्वनि क्षमता पर भी । प्रत्येक वाणी 1:30 घण्टे से भी अधिक की है । इस प्लेयर में आटोमेटिक ही वाल्यूम 50% यानी आधा होता है । जिसे वाल्यूम लाइन पर क्लिक करके बढा सकते हैं । इस वाणी को आप डाउनलोड भी कर सकते हैं । इसके लिये प्लेयर के अन्त में स्पीकर के निशान के आगे एक कङी का निशान या लेटे हुये  8 जैसे निशान पर क्लिक करेंगे । तो इसकी लिंक बेवसाइट खुल जायेगी । वहाँ डाउनलोड आप्शन पर क्लिक करके आप इस वाणी को अपने कम्प्यूटर में डाउनलोड कर सकते हैं । ये वाणी न सिर्फ़ आपके दिमाग में अब तक घूमते रहे कई प्रश्नों का उत्तर देगी । बल्कि एक  मुक्तता का अहसास भी करायेगी । और तब हर कोई अपने को बेहद हल्का और आनन्द युक्त महसूस करेगा । ॐ शान्ति ।

अष्टावक्र गीता वाणी ध्वनि स्वरूप - 64

अष्टावक्र त्रेता युग के महान आत्मज्ञानी सन्त हुये । जिन्होंने जनक को कुछ ही क्षणों में आत्म साक्षात्कार कराया । आप भी  इस दुर्लभ गूढ रहस्य को इस वाणी द्वारा आसानी से जान सकते हैं । इस वाणी को सुनने के लिये नीचे बने नीले रंग के प्लेयर के प्ले > निशान पर क्लिक करें । और लगभग 3-4 सेकेंड का इंतजार करें । गीता वाणी सुनने में आपके इंटरनेट कनेक्शन की स्पीड पर उसकी स्पष्टता निर्भर है । और कम्प्यूटर के स्पीकर की ध्वनि क्षमता पर भी । प्रत्येक वाणी 1:30 घण्टे से भी अधिक की है । इस प्लेयर में आटोमेटिक ही वाल्यूम 50% यानी आधा होता है । जिसे वाल्यूम लाइन पर क्लिक करके बढा सकते हैं । इस वाणी को आप डाउनलोड भी कर सकते हैं । इसके लिये प्लेयर के अन्त में स्पीकर के निशान के आगे एक कङी का निशान या लेटे हुये  8 जैसे निशान पर क्लिक करेंगे । तो इसकी लिंक बेवसाइट खुल जायेगी । वहाँ डाउनलोड आप्शन पर क्लिक करके आप इस वाणी को अपने कम्प्यूटर में डाउनलोड कर सकते हैं । ये वाणी न सिर्फ़ आपके दिमाग में अब तक घूमते रहे कई प्रश्नों का उत्तर देगी । बल्कि एक  मुक्तता का अहसास भी करायेगी । और तब हर कोई अपने को बेहद हल्का और आनन्द युक्त महसूस करेगा । ॐ शान्ति ।

अष्टावक्र गीता वाणी ध्वनि स्वरूप - 63

अष्टावक्र त्रेता युग के महान आत्मज्ञानी सन्त हुये । जिन्होंने जनक को कुछ ही क्षणों में आत्म साक्षात्कार कराया । आप भी  इस दुर्लभ गूढ रहस्य को इस वाणी द्वारा आसानी से जान सकते हैं । इस वाणी को सुनने के लिये नीचे बने नीले रंग के प्लेयर के प्ले > निशान पर क्लिक करें । और लगभग 3-4 सेकेंड का इंतजार करें । गीता वाणी सुनने में आपके इंटरनेट कनेक्शन की स्पीड पर उसकी स्पष्टता निर्भर है । और कम्प्यूटर के स्पीकर की ध्वनि क्षमता पर भी । प्रत्येक वाणी 1:30 घण्टे से भी अधिक की है । इस प्लेयर में आटोमेटिक ही वाल्यूम 50% यानी आधा होता है । जिसे वाल्यूम लाइन पर क्लिक करके बढा सकते हैं । इस वाणी को आप डाउनलोड भी कर सकते हैं । इसके लिये प्लेयर के अन्त में स्पीकर के निशान के आगे एक कङी का निशान या लेटे हुये  8 जैसे निशान पर क्लिक करेंगे । तो इसकी लिंक बेवसाइट खुल जायेगी । वहाँ डाउनलोड आप्शन पर क्लिक करके आप इस वाणी को अपने कम्प्यूटर में डाउनलोड कर सकते हैं । ये वाणी न सिर्फ़ आपके दिमाग में अब तक घूमते रहे कई प्रश्नों का उत्तर देगी । बल्कि एक  मुक्तता का अहसास भी करायेगी । और तब हर कोई अपने को बेहद हल्का और आनन्द युक्त महसूस करेगा । ॐ शान्ति ।

अष्टावक्र गीता वाणी ध्वनि स्वरूप - 62

अष्टावक्र त्रेता युग के महान आत्मज्ञानी सन्त हुये । जिन्होंने जनक को कुछ ही क्षणों में आत्म साक्षात्कार कराया । आप भी  इस दुर्लभ गूढ रहस्य को इस वाणी द्वारा आसानी से जान सकते हैं । इस वाणी को सुनने के लिये नीचे बने नीले रंग के प्लेयर के प्ले > निशान पर क्लिक करें । और लगभग 3-4 सेकेंड का इंतजार करें । गीता वाणी सुनने में आपके इंटरनेट कनेक्शन की स्पीड पर उसकी स्पष्टता निर्भर है । और कम्प्यूटर के स्पीकर की ध्वनि क्षमता पर भी । प्रत्येक वाणी 1:30 घण्टे से भी अधिक की है । इस प्लेयर में आटोमेटिक ही वाल्यूम 50% यानी आधा होता है । जिसे वाल्यूम लाइन पर क्लिक करके बढा सकते हैं । इस वाणी को आप डाउनलोड भी कर सकते हैं । इसके लिये प्लेयर के अन्त में स्पीकर के निशान के आगे एक कङी का निशान या लेटे हुये  8 जैसे निशान पर क्लिक करेंगे । तो इसकी लिंक बेवसाइट खुल जायेगी । वहाँ डाउनलोड आप्शन पर क्लिक करके आप इस वाणी को अपने कम्प्यूटर में डाउनलोड कर सकते हैं । ये वाणी न सिर्फ़ आपके दिमाग में अब तक घूमते रहे कई प्रश्नों का उत्तर देगी । बल्कि एक  मुक्तता का अहसास भी करायेगी । और तब हर कोई अपने को बेहद हल्का और आनन्द युक्त महसूस करेगा । ॐ शान्ति ।

11 दिसंबर 2011

अष्टावक्र गीता वाणी ध्वनि स्वरूप - 61

अष्टावक्र त्रेता युग के महान आत्मज्ञानी सन्त हुये । जिन्होंने जनक को कुछ ही क्षणों में आत्म साक्षात्कार कराया । आप भी  इस दुर्लभ गूढ रहस्य को इस वाणी द्वारा आसानी से जान सकते हैं । इस वाणी को सुनने के लिये नीचे बने नीले रंग के प्लेयर के प्ले > निशान पर क्लिक करें । और लगभग 3-4 सेकेंड का इंतजार करें । गीता वाणी सुनने में आपके इंटरनेट कनेक्शन की स्पीड पर उसकी स्पष्टता निर्भर है । और कम्प्यूटर के स्पीकर की ध्वनि क्षमता पर भी । प्रत्येक वाणी 1:30 घण्टे से भी अधिक की है । इस प्लेयर में आटोमेटिक ही वाल्यूम 50% यानी आधा होता है । जिसे वाल्यूम लाइन पर क्लिक करके बढा सकते हैं । इस वाणी को आप डाउनलोड भी कर सकते हैं । इसके लिये प्लेयर के अन्त में स्पीकर के निशान के आगे एक कङी का निशान या लेटे हुये  8 जैसे निशान पर क्लिक करेंगे । तो इसकी लिंक बेवसाइट खुल जायेगी । वहाँ डाउनलोड आप्शन पर क्लिक करके आप इस वाणी को अपने कम्प्यूटर में डाउनलोड कर सकते हैं । ये वाणी न सिर्फ़ आपके दिमाग में अब तक घूमते रहे कई प्रश्नों का उत्तर देगी । बल्कि एक  मुक्तता का अहसास भी करायेगी । और तब हर कोई अपने को बेहद हल्का और आनन्द युक्त महसूस करेगा । ॐ शान्ति ।

30 नवंबर 2011

राम नाम सत्य है सत्य बोलो मुक्त है

मैंने कहीं पढा था । बिना गुरू से आज्ञा लेकर जो मंत्र को प्रयोग में लाता है । वह निगुरा कहलाता है । तथा उसको कोई भी मंत्र सिद्ध नहीं होता । क्या पुस्तकों में लिखे गए सभी मंत्र कीलित Locked होते हैं । बिना वांछित दाम दिये ( मतलब बिना गुरू की दीक्षा लिये । बिना गुरू की आज्ञा लिये ) वह मन्त्र प्रयोग में नही लाया जा सकता । यहां तक कि गायत्री जैसे महामंत्र को भी गुरूमुख में ग्रहण किया जाता है । जरा खुल कर इस बारे में बताएं ?
अगर इस बात में सच्चाई है । तो टीवी । पत्र पत्रिकाओं । अखबारों । सतसंग संकीर्तन आदि में बताये गये मंत्रो के जप से कोई लाभ नहीं होता । मंदिर में मैंने अकसर लोगों को किन्हीं मंत्रो का जप करते देखा है । उनसे पूछो । तो कहते हैं कि घर पर मंत्र जपने से ज्यादा महत्व मंदिर में भगवान के समक्ष जप ही कर लेना । क्या इस जप से कोई लाभ भी मिलता है ।
ans - इस सम्बन्ध में सन्तमत में एक बङा रोचक दृष्टांत है । एक बार एक राजा को भी किसी सन्त से मन्त्र लेने की इच्छा हुयी । वह सन्त के पास पहुँचा । निवेदन किया । सन्त बोला - ठीक है । वह मन्त्र है - राम । ( ध्यान रहे । सन्तमत में या धार्मिक ग्रन्थों में अधिकांश " नाम " या मन्त्र के स्थान पर राम शब्द का ही प्रयोग किया है । ऐसा विषय के विस्तार में जाने से बचने हेतु किया गया है । क्योंकि एक ही स्थान पर सभी व्याख्या संभव नहीं है । यदि जिज्ञासु आगे भी इच्छुक होगा । तब उसके प्रसंग अनुसार वह भेद भी पता चल ही जायेगा । क्योंकि राम शब्द समस्त जीवधारियों में वास्तविक अर्थों में रमता अर्थात चेतन (  धारा भी ) या श्वांस को ही ध्वनित करता है ।
इसमें कोई विशेष माथापच्ची की आवश्यकता नहीं है । श्वांस के बिना ये शरीर और मन दोनों ही जङ हैं । शरीर में रमता श्वांस ही राम है । )
राजा बोला - कमाल है । इसमें भला ऐसी कौन सी बात है । जिसके लिये इसे सन्त से लेने की आवश्यकता हो ? ये

तो मेरे विचार से मामूली ज्ञान रखने वाले भी जानते सुनते हैं । और प्राय कभी कभी नाम लेते ( जपते ) भी रहते हैं । फ़िर आपके बताने ( देने ) से क्या अन्तर हुआ ?
सन्त बोले - इसका प्रमाणिक उत्तर कल देंगे ।
राजा बैचेनी से प्रतीक्षा करता रहा । दूसरे दिन साधु राज दरबार पहुँचा । राजा ने ससम्मान उसे आसन दिया । अभी राजा उत्तर की प्रतीक्षा में ही था कि सन्त उठकर खङा हो गया । और आदेश भरे स्वर में बोला - सैनिकों इस राजा को गिरफ़्तार कर कारागार में डाल दो ।
सब भौंचक्का रह गये । राजा भी आश्चर्यचकित । सोचा । शायद साधु मजाक कर रहा है । कोई भी सैनिक आदि अपने स्थान से हिला तक नहीं । पर सन्त मजाक नहीं कर रहा था । उसने दोबारा कङकते स्वर में आदेश दिया - सैनिकों इस राजा को गिरफ़्तार कर कारागार में डाल दो ।
फ़िर भी सब निष्क्रिय बैठे रहे । और राजा की प्रतिक्रिया का इंतजार करने लगे । पर सन्त कुछ ठान कर ही आये थे । उन्होंने फ़िर तीसरी बार आदेश दिया - गिरफ़्तार कर लो इस राजा को ।
अब राजा के बर्दाश्त के बाहर था । यह कोई सन्त नहीं । धूर्त पाखण्डी ही है । वह क्रोधित होकर बोला - गिरफ़्तार कर लो । इस साधु को ।
क्षण मात्र में आदेश का पालन हुआ । और साधु को हथकङियाँ लगा दी गयी । तब साधु बोला - यही है । तेरी बात का उत्तर । मगर ये उत्तर कैसा था ? राजा को कुछ भी पल्ले नहीं पङा । उसने असमंजस से साधु को देखा ।

साधु बोला - मैंने तीन बार तुम्हें गिरफ़्तार करने का आदेश दिया । पर कोई टस से मस नहीं हुआ । क्योंकि ये राज्य और उसके कर्मचारी तुम्हारे अधीन हैं । तुम्हारा आदेश चलता है यहाँ । और तुम्हारे मुँह से निकलते ही तुरन्त आदेश का पालन हुआ । क्योंकि इसकी कमाई तुम्हारी है । तुम मालिक हो इसके । ये राज्य तुम्हें सिद्ध हुआ है ।
इसी तरह कोई साधु विधिवत निरन्तर मन्त्र जाप करके उसमें निहित - शक्ति । ऊर्जा । उपयोग । फ़ल आदि को सिद्ध यानी अधिकृत करके उसका अधिकारी हो जाता है । तब जब वह कान में वह मन्त्र फ़ूँकता है । वह मन्त्र ( साधक ) उसकी चेतना में समाहित होकर क्रियाशील हो जाता है । और सिर्फ़ क्रियारहित बौद्धिक स्तर से जाने गये साधु द्वारा दिया गया मन्त्र मुर्दा होता है ।
निगुरा उसे कहते हैं । जो किसी सच्चे गुरु का शिष्य नहीं होता ।
गायत्री जैसे महामंत्र को - तमाम प्रसंशको ने । अनुयाईयों ने । अपने अपने इष्ट को । उनके मन्त्र को । अज्ञानता वश उसके साथ महामन्त्र शब्द जोङकर लोगों को भृमित किया है । आप गौर करें । विभिन्न लोगों द्वारा अनेक मन्त्रों को महामन्त्र बताया गया है - ॐ नमो भगवते वासुदेवाय । इसको द्वादशाक्षर मन्त्र कहते हैं । ये भी महामन्त्र कहा गया है । महामृत्युंजय मन्त्र को भी महामन्त्र कहते हैं । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे । हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । इसको भी महामन्त्र बताते हैं । गायत्री मन्त्र को भी महामन्त्र बताते हैं । कुछ अशिक्षित टायप लोगों में - ॐ नमः शिवाय.. इसको भी महामन्त्र कहा है । इस तरह सभी टीकाओं के मूल अर्थ से इतर आप उस पर विद्वानों की टीका देखेंगे । तो महामन्त्रों का ढेर लग जायेगा । सभी महा हैं ।
लेकिन गोस्वामी तुलसीदास ने दो लाइन में ही सब स्पष्ट कर दिया - मन्त्र परम लघु जासु वश विधि हरि हर सुर सर्व । मदमत्त गजराज को अंकुश कर ले खर्व । रामचरित मानस । बालकाण्ड ।
यानी वह मन्त्र बहुत छोटा है । जिसके वश में विधि ( बृह्मा ) हरि ( विष्णु ) हर ( शंकर ) सुर सर्व ( सभी देवता ) रहते हैं । जैसे किसी मतवाले हाथी ( गजराज ) को एक छोटा सा अंकुश ( महावत द्वारा छेदने वाला त्रिशूल सा )

वश में रखता है । उसी तरह सभी महाशक्तियाँ इस परम लघु मन्त्र ( निर्वाणी । ध्वनि स्वरूप । अक्षर ) के वश में हैं । और ऊपर के दृष्टांत अनुसार वह निर्वाणी मन्त्र प्रत्येक शरीर की चेतन धारा में स्वतः अखण्ड गूँज रहा है । सच्चे समर्थ गुरु इसको क्रियाशील करके । जीव की बहिर्मुखी चेतना को ऊर्ध्वगति कर देते हैं । उसे सनातन से जोङ देते हैं ।
घर पर मंत्र जपने से ज्यादा महत्व मंदिर में - सभी घरों में । और घर से जुङे बहुत से घरों में । संस्कारी वासनाओं की तरंगों का जाल सा हमेशा फ़ैला रहता है । क्योंकि घर परिवार का मतलव ही विभिन्न वासनाओं का आकार रूप हो जाना है ।
इसके विपरीत मन्दिर में जाते ही सभी मनुष्यों के भाव स्वतः पवित्र और भक्तियुक्त हो जाते हैं । अतः वहाँ की तरंगे आध्यात्मिक । देवत्व आदि अन्य गुणों से स्थिति अनुसार होती हैं । इसलिये ऐसा फ़र्क महसूस होता है । बाकी संक्षेप में । चाहे घर पर जपो । या मन्दिर में । टीवी । पत्र पत्रिकाओं । अखबारों । सतसंग संकीर्तन आदि कहीं से लिया गया हो । रिजल्ट एक ही है । 0/0 ।
इससे सिर्फ़ कुछ समय के लिये भाव शुद्धता होती है । यह लाभ है । बाकी जिस आशा से प्रायः लोग जपते हैं । वह लाभ नहीं होता । सही लाभ विधिवत तरीके से ही होता है ।

28 नवंबर 2011

भटकती आत्माओं का रहस्य

अक्सर लोगों के मुख से यह सुनने में आया है कि - चुङैल के पैर उलटे होते है । क्या ये सच है ? इसका सिद्धांत मुझे समझ नहीं आता । क्या ये इसलिए कहा जाता है कि सृष्टि कृमानुसार उनकी गति नहीं होती ।
ans - जैसा कि नीचे के प्रश्नों में कुछ बात स्पष्ट हो चुकी है । सूक्ष्म शरीर ठीक ऐसा ही शरीर होता है । बस उसका स्थूल आवरण उतर जाता है । और सामान्यतः वह अदृश्य होता है । और वह पूर्णत नग्न होता है । यदि मेरी तरह आप प्रेतों को देख पाये । तो वो आपको ठीक वैसे ही नजर आयेंगे । जैसे वे अपने जीवन में थे । बस फ़र्क नग्नता का होगा । लेकिन यहाँ दो अलग स्थितियाँ बहुत सी नयी बातों को जन्म देती हैं । एक तो विभिन्न लोगों का निज भावना अनुसार दृष्टि दोष हो जाना । यानी जैसी सुनी हुयी या अपनी कल्पना अनुसार वे भावना जोङ देते हैं । वह प्रेत उन्हें वैसा ही दिखायी देता है । जैसे अंधेरे में अजीव आकृतियाँ दिखती है । पर होता कुछ भी नहीं । ये लोगों की तरफ़ से बात हुयी । दूसरी हुयी बन्दर घुङकी । यानी प्रेतत्व की असहाय स्थिति में प्रेत को भी मजा आता है कि लोगों को मौका मिलने पर थोङा

हैरान कर ले । तब वह उसे भासित शरीर छाया दिखाता है । यानी जब वह किसी को खुद से भयभीत या प्रभावित या आकर्षित देखता है । तो उसके कमजोर दिमाग को एक सम्मोहित टायप कर देता है । और तब वह खुद को जैसा दिखाना चाहता है । प्रभावित इंसान को वह वैसा ही नजर आता है । लेकिन इनकी आँखे स्थिर होती है । सम्विद विध्या को जानने वाले । और भासित शरीर को प्रकट कर लेने वाली विभिन्न आत्मायें मनचाहा शरीर प्रकट कर सकती हैं । अब इसमें प्रेत से लेकर बहुत किस्म की योनियाँ आ जाती हैं ।
तिर्यक योनि के अंतर्गत कौन आते हैं ?
ans - तिर्यक योनि के अंतर्गत तमाम निकृष्ट योनियाँ आती हैं । जिनमें कीट पतंगे भी शामिल हैं ।
जीव जब निद्रावस्था में होता है । तो बुद्धि कहां चली जाती है ?
ans - जीव की तीन ज्ञात अवस्थायें होती है । जागृत । स्वपन । सुषुप्ति । जागृत अवस्था में यह ह्रदय पर स्थिति  होता है । और सांसारिक कार्य करता है । स्वपन अवस्था में यह कण्ठ पर होता है । और चित्रा नाङी से सपने देखता है । सुषुप्ति यानी निद्रावस्था में यह " कारण " में चला जाता है । ये तीनों अवस्थायें तुरिया अवस्था कहलाती हैं । चौथी अवस्था तुरियातीत अवस्था है । जिसमें गहरी नींद आती है । इसमें यह एक तरह से अपने में स्थिति होता है । तीन अवस्थायें इंसान को भली प्रकार ज्ञात होती है । बाकी सभी रहस्य चौथी अवस्था तुरियातीत 


में छिपे होते हैं । इसी में जागना अलौकिक ज्ञान या योग है । यानी तब हम कहाँ होते हैं । हमारी स्थिति क्या होती है । वहाँ क्या होता है आदि ।
क्या भटकती आत्माओं का निर्धारित क्षेत्रफल भी होता है ? या फ़िर वे स्वतंत्र ही विचरण करती हैं ।
ans - दुनियाँ को देखकर कभी कभी ऐसा लगता है । भगवान नाम की कोई चीज ही नहीं है । पर मैंने कई बार कहा है । सिर्फ़ भूत प्रेत ही नहीं । देवी देवताओं तक में एक ही खेल । एक ही  नियम चलता है । अमीरी गरीबी । सबल निर्बल । यानी धन और शक्ति का ही बोलबाला है । तब स्थूल शरीर छूट जाने के बाद इंसान असहाय ही हो जाता है । लेकिन सूक्ष्म शरीर अंतकरण से ही निर्मित होता है । अतः पूरी ताकत बुद्धि उसी अनुसार होती है । जैसी जीवित होने पर थी । तो अब ये इस बात पर निर्भर है कि अपने उस जीवन में जीव क्या स्थिति को प्राप्त कर पाता है । क्योंकि दादागीरी वहाँ भी है । इसलिये ठीक मनुष्य की तरह ही प्रेत जीवन के अनेकानेक ऊँच नीच स्तर बनते हैं । कोई अकाल मरा भिखारी टायप जीव प्लेटफ़ार्म या उसके आसपास भी भटकता रह सकता है । या फ़िर स्वेच्छा होने पर किसी प्रेत क्षेत्र में भी जा सकता है । कोई दाता दयावान मिल गया । तो उसे अच्छा मुकाम भी दिलवा सकता है । जो इस जीवन की कहानी है । वही उस जीवन की भी । बस स्थूल और सूक्ष्म शरीर का अंतर है ।
जिस व्यक्ति की सडक दुर्घटना में मौत हो जाती है । तो कुछ आत्मा भटकती रहती हैं । क्या वे वही चौराहे आदि वृक्ष पर अपना डेरा डाल देती हैं ?
ans - भोजन । उचित आवास । और स्वभाव अनुसार जीवन की आकांक्षा मोक्ष की स्थिति से पहले हरेक की होती

है । ये बात चीटीं जैसे तुच्छ जीव से महाशक्तियों पर भी लागू होती है । लेकिन इच्छा होने से ही तो सब कुछ नहीं हो जाता है । मुख्य बात तो स्व स्थिति पर निर्भर है । तब ये सैटलमेंट होता है । रिफ़्यूजी ( शरीर छूटने के बाद ) होने पर कहाँ जगह मिलती है । ये उस वक्त की स्थिति पर निर्भर करता है । मौत चाहे कैसे भी हो । जैसे किरायेदार अपना निजी मकान न होने तक । निजी आर्थिक स्थिति अनुसार डेरा तम्बू लगाते उखाङते रहते हैं । वही बात प्रेतों पर भी लागू होती है । मुख्य बात वही है । उस वक्त क्या है । उसकी निज स्थिति ।
भटकती आत्माओं का भोजन क्या होता है ? उनका दैनिक क्रियाकलाप कैसे होता है ?
ans  - पहले तो यही समझें कि भटकती आत्मायें क्या होती हैं । भटकती आत्माओं का नाम सुनते ही अक्सर खतरनाक भूत प्रेत हा हा हू हू टायप हँसते विचित्र शरीर धारी का ख्याल बनता है । ये बात पूरी तरह सच भी है । और पूरी तरह झूठ भी । भूत का नाम आते ही जेहन में हउआ अपने आप बन जाता है । पर वास्तविकता ये है कि छोटे बच्चे से लेकर हर इंसान ने भूत प्रेत खूब देखे होते हैं । आप स्वपन आदि स्थिति में जो सूक्ष्म शरीर और उसके तमाम व्यवहार देखते हैं । वह सब भूत प्रेत ही हैं । पर बात ये होती है कि तब आप भी सूक्ष्म हुये भूत प्रेत ही होते हैं । और वासना शरीर में होते हैं । अगर उन स्थितियों को आप ठीक से समझ लें । तो बस यही भूतिया जीवन होता है । इसमें भूख प्यास डर निडरता कामवासना मरना मारना आदि सब होता है । अब इसी धारणा पर आप खाने पीने का विचार कर सकते हैं । आपने भी स्वपनवत बहुत बार खाया पिया होगा ।
ये तो थी । परिस्थितिजन्य अचानक बात । पर प्रेत हो चुके इंसान की तो ये दिन रात स्थिति हो जाती है । तब ये सार गृहण करते हैं । जैसे किसी भी प्रकार के भोजन की खुशबू । अब इसको आप जीवन में भी सिद्ध करें । जैसे आपने देखा होगा । कोई गृहणी या हलवाई आदि जब कोई मिष्ठान या खुशबूदार भोजन काफ़ी देर तक बनायें । या कोई अन्य इंसान उस समय वहाँ मौजूद रहे । तो उसकी निरन्तर खुशबू से वे एक तरह से तृप्त हो जाते हैं । और यकायक तुरन्त वही चीज खाने से उन्हें अरुचि सी महसूस होती है । कारण यही है कि अंतकरण ने बहुत देर तक उससे जुङे रहने के कारण एक वासनात्मक भूख मिटा ली है । अब बताईये । भोजन का एक तिनका भी नहीं खाया । पर उससे अधिकतम जुङे रहने से वासना पेट के स्तर पर तृप्त हो गयी । ठीक यही बात । सूक्ष्म शरीरी प्रेतों पर लागू होती है । उनकी शरीर की भूख नहीं होती । बल्कि अंतकरण की वासना भूख होती है । जैसे रोटी आदि का स्थूल भाग पेट शरीर को तृप्ति दे रहा है । और उसका स्वाद महक आदि अंतकरण को । भोजन के सार का भी सार अंतकरण गृहण करता है । यही प्रेतों का भोजन है । जो उन्हें आसानी से प्राप्त हो जाता है । बाकी नहाना धोना मल मूत्र आदि की उन्हें आवश्यकता नहीं होती । सूक्ष्म शरीर के तकनीकी ज्ञान रहस्य पर मैं स्वतः एक लेख लिखने वाला था । उसमें और भी विस्तार से आ जायेगा ।

24 नवंबर 2011

असंख्य बृह्मा विष्णु महेश मेरे सामने उत्पन्न और नष्ट हो चुके हैं

जय गुरुदेव ! गुरुदेव तथा आपको बहुत बहुत धन्यवाद । जो मुझे जीवन का लक्ष्य बताया ।  मैंने " अनुराग सागर " पढना चालू किया है । मेरे मन में इसको लेकर कुछ प्रश्न है । कृपा करके इनका उत्तर दे ।
1 - अनुराग सागर  में पेज नंबर 86 में चौपाई नंबर - 4 के अनुसार आदि भवानी अष्टांगी ने 3 कन्याओं को उत्पन्न किया । व पहली कन्या का नाम सावित्री को बृह्मा को प्रदान किया । पेज 101 व 102 में अनुसार गायत्री ने अपने शरीर के मैल में अपना अंश मिलाकर एक कन्या उत्पन्न की । उसका नाम भी सावित्री ( पहुपावती ) था । तो वास्तव में सावित्री पहले वाली थी । या बाद वाली । और दुनिया सावित्री के नाम से किसे जानती है ।
2 -  पेज 80 व 81 के अनुसार काल निरंजन ने अपना मन सत्य पुरुष की सेवा भक्ति में लगा दिया । व जीवों की शून्य 0 गुफा में निवास किया । उन्होंने अष्टांगी से कहा - कि मेरा दर्शन तीनों पुत्र कभी नहीं कर सकेंगे । चाहे खोजते खोजते सारी जिन्दगी ही क्यों न लगा दे । पेज 113 व 114 के अनुसार अष्टांगी ने विष्णु जी से कहा -

अन्तर्मुखी हो जाओ । व अपनी सुरती व दृष्टि को पलटकर भृकुटी के मध्य आज्ञा चक्र या ह्रदय के शून्य 0 में ज्योति को देखो । जब विष्णु ने ये किया । तो अनहद की आवाज सुनी । उसमें 5 रंग देखे । व ज्योति प्रकाश को देखा ।  सत्यपुरुष को छिपा के काल निरंजन को दिखाया ।
> जब काल पुरुष ने मना किया था । तो विष्णु जी ने उनके दर्शन कैसे किये ?
> जब भृकुटी के मध्य आज्ञा चक्र में ध्यान लगाने से काल निरंजन मिलते हैं । तो सत्यपुरुष के लिए कहाँ ध्यान लगाये । एक साधक । नवीन दीक्षित ।
***************
आध्यात्मिक स्तर पर राम कथा कृष्ण कथा आदि कोई भी अलौकिक पात्र हों । या उनके जीवन की घटनाओं की बात हो । ये उतनी स्थूल नहीं होती । जितनी एक रोचक कहानी सी लगती हैं । वास्तव में इनके नामों से लेकर एक एक बात में बेहद गहनता और गूढ रहस्य छिपे होते हैं । अगर सिर्फ़ इनके नामों का ही चिंतन करें । राम । लक्ष्मण । अयोध्या । दशरथ । रावण । कुम्भकरण । दुर्योधन । कृष्ण । नकुल । सहदेव आदि ।  तो ये यूँ ही नामकरण नहीं कर दिया गया । बल्कि इस नाम के पीछे भी पूरा रहस्य छिपा होता है । वर्णमाला के अक्षरों की धातुयें होती हैं । जो व्याकरण ज्ञान से जानी जाती हैं । फ़िर इनकी उत्पत्ति स्थल । धातु की परिपूर्णता । लयता । गति आदि से गुण व्यक्तितत्व आदि बनते हैं । जैसे लक्ष्मण शब्द का गूढ अर्थ जीव है ।

अब इसको समझें । लक्ष्य मन । यानी वह जो मन के लक्ष्य अनुसार चलता हो । वह जीव है । राम का अर्थ रमता चेतन या भगवान है । सीता का गूढ अर्थ माया है ।
अब एक बात पर विशेष गौर करें । पूरी कथा में जहाँ भी इन तीनों के चलने का वर्णन आता है । उसका कृम इस प्रकार है । आगे राम । बीच में सीता । पीछे लक्ष्मण । देखने में ये साधारण बात लगती है । परन्तु इसका बहुत ठोस रहस्य है । जीव और भगवान के बीच में माया रूपी पर्दा । और यही गति जन्म जन्मांतरों  तक बनी रहती है । जब तक ज्ञान से माया का पर्दा हट न जाय । जब से रघुनायक मोहे अपनाया । तब से मोहि न व्यापे माया । ये सिर्फ़ एक छोटी बात का उदाहरण है । वरना एक ही शब्द पर पूरी किताब लिख सकते हैं ।
और इसी दृष्टिकोण में आपके इन प्रश्न या किसी भी अल्पज्ञ जीव के प्रश्नों का रहस्य भी समाया है । क्योंकि अनुराग सागर या कोई भी धर्म गृंथ आप स्थूलता के आधार पर ही पढना शुरू करते हो । जबकि उनमें बहुत सूक्ष्मता और गहनता निहित है ।
इसलिये सत्यता के आधार पर इनका सही विश्लेषण थोङे शब्दों में संभव नहीं है । बृह्मा गायत्री सावित्री या

कालपुरुष अष्टांगी आदि की घटनायें किसी मानवीय जीवन के समान कोई संस्कारी भाव नहीं है । बल्कि विराट के परदे पर प्रकूति की आंतरिक हलचल है । जबकि पढने में ये मनुष्य जीवन की कहानी सी प्रतीत होती है ।
2 - विष्णु ने कालपुरुष के ज्योति रूप दर्शन किये थे । अन्य स्थिति में यह मन रूप है । कालपुरुष  ने यह बात सिर्फ़ तीनों पुत्रों के लिये ही नहीं । बल्कि त्रिलोकी सत्ता के अधीन आने वाले सभी छोटे बङे जीव देवी देवताओं के लिये भी कही थी । और ये सच है कि अष्टांगी को छोङकर कोई भी उसे नहीं देखता । आपने ध्यान नहीं दिया । तीनों पुत्र उसके काया रूप का दर्शन करने के इच्छुक थे । न कि ज्योति ( दृश्य रूपा ) के । न कि अक्षर ( ध्वनि रूपा ) के । अब यहाँ इसका तकनीकी दृष्टिकोण ये है कि बृह्मा विष्णु महेश का निराकारी रूप तीन गुण सत रज तम है । और अक्षर की स्थिति तीन गुणों से परे है । जाहिर है । असंख्य युग बीत जायें । ये मिलन हो ही नहीं सकता । इसको एक उदाहरण से समझाता हूँ । मान लो मिट्टी को पता चले कि उससे बना हुआ रंगीन खिलौना आकर्षक होता है । और वह अपने कुम्हार ( निर्माता या माध्यम ) से कहे कि वह अपनी ही बाद स्थिति खिलौना देखना चाहती है । तो ये कैसे संभव है ? निर्मित खिलौना अपनी पूर्व स्थिति मिट्टी को नहीं देख सकता । और मिट्टी अपनी बदली स्थिति खिलौने को

नहीं देख सकती । तब यही हो सकता है कि उसे अभी अलग रंगों की एक झलक दिखा दी जाये । ऐसा भी नहीं कि नहीं देख पाते । उसके दूसरे अवतार रूपों को न सिर्फ़ देखते है । बल्कि साथ भी रहते हैं । पर उसके मूल रूप को नहीं देख पाते । लेकिन बृह्माण्डी चोटी से पार जाने वाले इनको आराम से देखते हैं । बल्कि एक झगङे की स्थिति ही होती है । बाकी - सत्यपुरुष को छिपा के काल निरंजन को दिखाया ? जैसा कि मैंने कहा । सभी धार्मिक स्थितियाँ गूढ हैं । इनमें महज संकेत भर दिये हैं । असली रहस्य कहीं नहीं लिखे जाते ।
सत्यपुरुष के लिए कहाँ ध्यान - एक बात बताईये । एक उच्च वर्गीय परिवार ( यहाँ मण्डल या ज्ञान ) का  बच्चा हो । जिसके घर में सभी डाक्टर इंजीनियर वैज्ञानिक आदि उच्च पदस्थ लोग हों । और उसे पता भी हो कि कोई MBBS करके । कोई इंजीनियरिंग डिप्लोमा । कोई विज्ञान का अध्ययन करके । यह सब बने हैं । तो वह कहे - मैं ये ABCD या बेसिक नालेज क्यों पढूँ । मैं सीधी बङी किताबें पढूँगा । ये कैसे संभव है ?
जीव की स्थिति दोनों आँखों से नीचे पिण्ड में हैं । दोनों भोंहों के मध्य आसमान बृह्माण्ड आदि जाने के लिये लाक्ड रास्ता है । पहली बहुत स्थितियों में विशाल बृह्माण्ड ही पार करना होता है । उसमें कालपुरुष या निरंजन या अक्षर या ज्योति एक बहुत ऊँची स्थिति है । रैदास कबीर दादू पलटू आदि ने एक साधक स्थिति अनुसार वहाँ ( पहुँचकर ) वन्दना भी की है । स्थिति अनुसार ही आलोचना भी की है । और आगे जाकर स्थिति अनुसार ही कबीर ने कहा है - मेरी उमृ इतनी है कि असंख्य कालपुरुष । असंख्य राम कृष्ण । असंख्य बृह्मा विष्णु महेश मेरे सामने उत्पन्न और नष्ट हो चुके हैं ।
इसलिये अति महत्वाकांक्षी होना भी ठीक नहीं । क्योंकि फ़िर वांछित न होने से निराशा होगी । एक प्रतिष्ठित विधालय में पढने वालों के भी अंतिम परिणाम समान नहीं होते ।  सब कुछ विधार्थी की मेहनत लगन और उसकी भाग्य परिस्थितियों पर भी निर्भर है । इसलिये रास्ता और तरीका यही है । अक्षर को पार करने के बाद ( अक्षरातीत  हो जाने पर ) । खुद ही सत्य सीमा आरम्भ हो जायेगी । सत्यपुरुष के दर्शन आसान बात नहीं है । इसके लिये विरला कहा जाता है । इसलिये कोई यदि विरला हो पाता है । तो फ़िर बहुत कुछ संभव है । मेरे सुझाव अनुसार । अभी आप अपनी प्रारम्भिक स्थिति में नाम कमाई । और तदुपरान्त ध्यान की गहराई को मजबूत 


करने की कोशिश करें । ये पात्रता पैदा होने पर ही आगे बात बनती है ।
सावित्री पहले वाली या बाद वाली - सही कहूँ । तो अपूज्य बृह्मा और उसकी पत्नियों के बारे में मुझे प्रमाणिक तौर पर अभी जानकारी नहीं है । पर गायत्री सावित्री उसकी दो पत्नियाँ हैं । और दोनों ही महत्वपूर्ण हैं । खैर..कभी समय मिलने पर । इसको भी स्पष्ट बताने की कोशिश करूँगा । आगे । इस प्रकरण से सम्बन्धित अंश । फ़िर से दोहराता हूँ कि इन उत्तर को व्यक्तिगत न समझें । जिज्ञासा आपकी व्यक्तिगत है । पर उत्तर समग्र के दृष्टिकोण से हैं ।
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फ़िर अष्टांगी ने गायत्री को शाप दिया - हे गायत्री ! बृह्मा के साथ काम भावना से हो जाने से मनुष्य जन्म में तेरे पाँच पति होंगे । हे गायत्री ! तेरे गाय रूपी शरीर में वैल पति होंगे । और वे सात पाँच से भी अधिक होंगे । पशु योनि में तू गाय बनकर जन्म लेगी । और न खाने योग्य पदार्थ खायेगी । तुमने अपने स्वार्थ के लिये मुझसे झूठ बोला । और झूठे वचन कहे । क्या सोचकर तुमने झूठी गवाही दी ?
गायत्री ने अपनी गलती मानकर शाप को स्वीकार कर लिया । इसके बाद अष्टांगी ने सावित्री की ओर देखा । और बोली - तुमने अपना नाम तो सुन्दर पुहुपावती रखवा लिया । परन्तु झूठ बोलकर तुमने अपने जन्म का नाश कर लिया ।  हे पुहुपावती ! सुन । तुम्हारे विश्वास पर । तुमसे कोई आशा रखकर कोई तुम्हें नहीं पूजेगा । अब दुर्गंध के स्थान पर तुम्हारा वास होगा । काम विषय की आशा लेकर अब नरक की यातना भोगो । जान बूझकर जो तुम्हें सींचकर लगायेगा । उसके वंश की हानि होगी । अब तुम जाओ । और वृक्ष बनकर जन्मों । तुम्हारा नाम केवङा केतकी होगा ।
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फ़िर अष्टांगी ने विष्णु को दुलारते हुये कहा - हे पुत्र ! तुम मेरी बात सुनो । सच सच बताओ । जब तुम पिता के चरण स्पर्श करने गये । तब क्या हुआ ? पहले तो तुम्हारा शरीर गोरा था । तुम श्याम रंग कैसे हो गये ?
विष्णु ने कहा - हे माता ! पिता के दर्शन हेतु जब मैं पाताललोक पहुँचा । तो शेषनाग के पास पहुँच गया । वहां उसके विष के तेज से मैं सुस्त ( अचेत सा ) हो गया । मेरे शरीर में उसके विष का तेज समा गया । जिससे वह श्याम हो गया ।
तब एक आवाज हुयी - हे विष्णु ! तुम माता के पास लौट जाओ । यह मेरा सत्य वचन है कि जैसे ही सतयुग त्रेतायुग बीत जायेंगे । तब द्वापर में तुम्हारा कृष्ण अवतार होगा । उस समय तुम शेषनाग से अपना बदला लोगे । तब तुम यमुना नदी पर जाकर नाग का मान मर्दन करोगे । यह मेरा नियम है कि जो भी ऊँचा नीचे वाले को सताता है । उसका बदला वह मुझसे पाता है । जो जीव दूसरे को दुख देता है । उसे मैं दुख देता हूँ । हे माता ! उस आवाज को सुनकर मैं तुम्हारे पास आ गया । यही सत्य है । मुझे पिता के श्री चरण नहीं मिले ।
भवानी यह सुनकर प्रसन्न हो गयी । और बोली - हे पुत्र सुनो ! मैं तुम्हें तुम्हारे पिता से मिलाती हूँ । और तुम्हारे मन का भृम मिटाती हूँ । पहले तुम बाहर की स्थूल दृष्टि ( शरीर की आँखें ) छोङकर । भीतर की ग्यान दृष्टि ( अन्तर की आँख । तीसरी आँख  ) से देखो । और अपने ह्रदय में मेरा वचन परखो ।
स्थूल देह के भीतर सूक्ष्म मन के स्वरूप को ही कर्ता समझो । मन के अलावा दूसरा और किसी को कर्ता न मानों । यह मन बहुत ही चंचल और गतिशील है । यह क्षण भर में स्वर्ग पाताल की दौङ लगाता है । और स्वछन्द होकर सब ओर विचरता है । मन एक क्षण में अनन्त कला दिखाता है । और इस मन को कोई नहीं देख पाता । मन को ही निराकार कहो । मन के ही सहारे दिन रात रहो ।
हे विष्णु ! बाहरी दुनियाँ से ध्यान हटाकर अंतर्मुखी हो जाओ । और अपनी सुरति और दृष्टि को पलटकर भृकुटि के मध्य ( भोहों के बीच आज्ञा चक्र ) पर या ह्रदय के शून्य में ज्योति को देखो । जहाँ ज्योति झिलमिल झालर सी प्रकाशित होती है ।
तब विष्णु ने अपनी स्वांस को घुमाकर भीतर आकाश की ओर दौङाया । और ( अंतर ) आकाश मार्ग में ध्यान लगाया । विष्णु ने ह्रदय गुफ़ा में प्रवेश कर ध्यान लगाया । ध्यान प्रकिया में विष्णु ने पहले स्वांस का संयम प्राणायाम से किया । कुम्भक में जब उन्होंने स्वांस को रोका । तो प्राण ऊपर उठकर ध्यान के केन्द्र शून्य 0 में आया । वहाँ विष्णु को अनहद नाद की गर्जना सुनाई दी । यह अनहद बाजा सुनते हुये विष्णु प्रसन्न हो गये । तब मन ने उन्हें सफ़ेद लाल काला पीला आदि रंगीन प्रकाश दिखाया ।
हे धर्मदास ! इसके बाद विष्णु को ..मन ने अपने आपको दिखाया । और ज्योति प्रकाश किया । जिसे देखकर वह प्रसन्न हो गये । और बोले - हे माता ! आपकी कृपा से आज मैंने ईश्वर को देखा ।
तब धर्मदास चौंककर बोले - हे सदगुरु कबीर साहब !  यह सुनकर मेरे भीतर एक भृम उत्पन्न हुआ है । अष्टांगी कन्या ने जो मन का ध्यान ? बताया । इससे तो समस्त जीव भरमा गये हैं ? यानी भृम में पङ गये हैं ?? ( इस बात पर विशेष गौर करें )
तब कबीर साहिब बोले - हे धर्मदास ! यह काल निरंजन का स्वभाव ही है कि इसके चक्कर में पङने से विष्णु सत्यपुरुष का भेद नहीं जान पाये । ( निरंजन ने अष्टांगी को पहले ही सचेत कर आदेश दे दिया था कि सत्यपुरुष का कोई भेद जानने न पाये । ऐसी माया फ़ैलाना  ) अब उस कामिनी अष्टांगी की यह चाल देखो कि उसने अमृतस्वरूप सत्यपुरुष को छुपाकर विष रूप काल निरंजन को दिखाया ।
जिस ज्योति का ध्यान अष्टांगी ने बताया । उस ज्योति से काल निरंजन को दूसरा न समझो । हे धर्मदास ! अब तुम यह विलक्षण गूढ सत्य सुनो । ज्योति का जैसा प्रकट रूप होता है । वैसा ही गुप्त रूप भी है । जो ह्रदय के भीतर है । वह ही बाहर देखने में भी आता है ।
जब कोई मनुष्य दीपक जलाता है । तो उस ज्योति के भाव स्वभाव को देखो । और निर्णय करो । उस ज्योति को देखकर पतंगा बहुत खुश होता है । और प्रेमवश अपना भला जानकर उसके पास आता है । लेकिन ज्योति को स्पर्श करते ही पतंगा भस्म हो जाता है । इस प्रकार अग्यानता में मतबाला हुआ वह पतंगा उसमें जल मरता है । ज्योति स्वरूप काल निरंजन भी ऐसा ही है । जो भी जीवात्मा उसके चक्कर में
आ जाता है । क्रूर काल उसे छोङता नहीं ।