20 सितंबर 2010

श्री राजेश जी का संशय




ओशो रजनीश पोस्ट कपिल जी मैं वाकई INFLUENCE हो गया । पर ।बढ़िया प्रस्तुति । इसे भी पढ़कर कुछ कहे । ( आपने भी कभी तो जीवन में बनाये होंगे नियम ? )oshotheone.blogspot.com ।
बेनामी पोस्ट कुछ गूढ रहस्य की बातें...? 2 पर Maharaj ji । Pranam ।Main aapse yah jaanna chahta hun ki kya ek kabirpanthi mandir mein ja sakata hai ? kya ek brahaman kabirpanthi ban jane ke baad bhi devtaon ki pooja-archna kar sakta hai ? kya kabir saheb pooja-paath dainik dincharya mein bhagvan ya kisi devi ya devta ki pooja karte the? sansay mein hun. Kripa kar ke jald aur sahi uttar batayein । aapke uttar ki prateeksha mein । rajesh ।
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प्रिय राजेश जी । हमारे पास आने वाले लोगों में से ज्यादातर लोगों के ऐसे ही संशय और ऐसे ही शंका के सवाल होते हैं । सबसे पहले आपको कबीरपंथी का ही मतलब बताता हूं । जिसको कबीरपंथ कहते हैं । वो वास्तव में संत मत sant mat है । और ये सिर्फ़ सतगुरु कबीर साहेब का ही नहीं हैं । रैदास । दादू । पलटू । मीरा । नानक आदि अनेक संत हुये हैं । जिनका यही मत था । अब उल्लेखनीय बात जो में आपको बताता हूं । केवल संत मत sant mat ही परमात्मा की भक्ति और ग्यान और आत्म दर्शन बताता है । बाकी किसी ग्यान की पहुंच परमात्मा तक नहीं है । इसलिये इसको किसी भी पंथ का नाम देना एकदम गलत है । क्योंकि पंथ कहते ही परमात्मा के एक निश्चित दायरे में आने का आभास होता है । जबकि वह दायरे से मुक्त है । असीम है । इसको मत संत मत sant mat कहा जाता है । अन्य भगवान या देवता आदि जिनकी सीमाएं होती हैं । उनके लिये पंथ शब्द का प्रयोग होता है । क्योंकि उनके लिये रास्ता निर्धारित है । नियम निर्धारित हैं । पर परमात्मा जो सबका मालिक है । इन सब बातों से परे है । अन्य मतों में पंथ उचित शब्द है । उसी की देखादेखी लोगों ने सतगुरु कबीर साहेब के साथ पंथ शब्द जोड दिया । अब आईये मन्दिर की बात करते हैं । मन्दिर किसने बनाया । इंसान ने । मूर्ति किसने बनायी इंसान ने । एक पत्थर को लेकर मूर्ति कारीगर ने उसे पांव आदि के नीचे दबाते हुये छेनी हथोडे से खुरचकर कान । आंख । नाक । आदि बना डाले । उसे रंग से पोत पातकर मन्दिर में लगा दिया । अब बडा कौन हुआ । मूर्ति । या मूर्ति बनाने वाला ? एक शेर की मूर्ती शेर वाले कार्य कर सकती है ? मूर्ति पहचान मात्र है । उन लोगों के लिये । जिन्होंने शेर नहीं देखा । जिन्होंने देवता नहीं देखा । कि देखो वो ऐसा है ? और उसके कार्य यह हैं । आपका घर भी ईंट गारे से बना है । आपका मन्दिर भी ईंट गारे से बना है । फ़र्क सिर्फ़ आपके भाव का है । आप एक को घर मान बैठे । दूसरे को मन्दिर मान बैठे । आप अपने मानने से ही सब कुछ तय करते हैं । तो भी आप उससे बडे हुये । 1 ( सबसे बडा आत्मदेव ) 3 ( बृह्मा । विष्णु । महेश ) 33 ( शरीर के 5 तत्व के देवता । 25 प्रकृतियों के देवता । और 3 गुण । इस प्रकार ये तैतीस हुये । ) 33 करोड । शरीर के तैतीस करोड व्यवहार हैं । जिनसे तैतीस करोड आवृतियां बनती हैं । जिनका उनके महत्व के अनुसार छोटा बडा देवता नियुक्त है । इसलिये 33 करोड देवता । यानी एक पूर्ण मनुष्य का व्यवहार । तैतीस करोड आवृतियां पर अधिकार या उन्हें जानने वाला एक पूर्ण मनुष्य । जैसे श्रीकृष्ण दिव्य साधना DIVY SADHNA । लेकिन राम नहीं । 33 करोड देवता की अपेक्षा 33 देवता प्रमुख हैं । क्योंकि नये पैदा हुये बच्चे से प्राण निकलने की सीमा पर पहुंचे व्यक्ति को इनसे हर समय काम होता है । 33 देवता की अपेक्षा 3 ( बृह्मा । विष्णु । महेश ) का महत्व ज्यादा है । लेकिन ये तीन भी तभी हैं जब आप 1 ( सबसे बडा आत्मदेव स्वरूप दर्शन..आत्मस्थिति ) स्वयं हो । तो आप सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हो । बशर्ते अपने आपको आत्म दर्शन जान लो तो । और यही जानने के लिये आदमी संत मत sant mat में आता है । महामन्त्र को अनुसंधान करता है । तुलसी के मानस में लिखा है । मन्त्र परम लघु जासु बस विधि हरि हर सुर सर्व । मदमत्त गजराज को अंकुश कर ले खर्ब । पहले लाइन देखे । उस लघु ढाई अक्षर के मंत्र के वश में बृह्मा । विष्णु । महेश और सभी देवता है । अब आईये ब्राह्मण की बात करते हैं । आप ये बात स्वयं जानते होंगे । कि पंडित से ब्राह्मण बडा होता है ? पंडित का वास्तविक अर्थ विद्वान और ब्राह्मण का वास्तविक अर्थ ब्रह्म और अणि यानी ब्रह्म में स्थित ब्रह्म में रहने वाला । ब्रह्म को जानने वाला । ब्रह्मलोक तक जिसकी पहुंच हो । जो ब्रह्म को तात्विक स्तर पर जान गया हो दिव्य साधना DIVY SADHNA । वह असली ब्राह्मण है । इसलिये आप सिर्फ़ जन्म से ब्राह्मण हो । वास्तविक अर्थ में ब्राह्मण नहीं हो । अब बात ये है कि यदि आपने वाकई सच्चे गुरु से ग्यान या नाम उपदेश लिया है । तो संत मत sant mat ब्रह्म से आगे की बात करता है । यह पारब्रह्म को ले जाने वाला है । ध्यान रखें । यदि आपको माला फ़ेरना । और वाणी से मंत्र जपना बताया गया है । यदि नाम आपके अन्दर प्रकट नहीं हुआ । यदि दिव्य प्रकाश उपदेश हो जाने के बाद भी आपने नहीं देखा । तो आपको दीक्षा उपदेश से दीक्षित करने वाला फ़र्जी है । जलते हुये दिये से ही दूसरा दिया जलाया जा सकता है आत्म दर्शन । बुझे हुये से नहीं ? वैसे मैं आपको सुझाव दूंगा । इन सब बातों की खुली पोल आप जानना चाहते हैं । तो मात्र 100 रु मूल्य की पुस्तक । अनुराग सागर । एक बार पढ लें । आपके तमाम संशय का समाधान हो जायेगा । अब मैं आपके प्रश्नों के उत्तर देता हूं । सतगुरु कबीर साहेब जो थे । जिस स्थिति में थे । वहां कोई देवी देवता है ही नहीं । वहां स्त्री पुरुष भी नहीं है । सिर्फ़ आत्मदेव है । सिर्फ़ सबसे परे परमात्मा है । ये सब देवता स्वयं चाहते हैं कि एक बार उन्हें मनुष्य जन्म मिल जाय । फ़िर सदगुरु की प्राप्ति हो जाय । तो वो असली आनन्द अविनाशी स्थिति को पा सकें स्वरूप दर्शन..आत्मस्थिति । बृह्मा । विष्णु । महेश जैसे देवता सच्चे संत के दर्शन हो जाने पर खुद को धन्य समझते हैं । कोटि प्रणाम करते हैं । तो सतगुरु कबीर साहेब भला उनकी पूजा किस आधार पर करेंगे ? अब रही बात आपके मन्दिर जाने या पूजा करने की । तो अभी मैंने ऊपर बताया ही है कि देवता आपके जैसा शरीर और संत मत sant mat का खुद ग्यान पाकर यही सुमरन करना चाहते है । बडे भाग मानुष तन पावा । सुर दुर्लभ सद ग्रन्थन गावा । यानी मानुष तन देवताओं के लिये भी दुर्लभ है ? यानी आप ये पूजा वगैरह करो तो । और न करो तो । ये अर्थहीन है । इनका कोई रिजल्ट नहीं हैं । यदि और भी संतुष्टि पूर्ण जबाब चाहें तो कृपया श्री महाराज जी सतगुरु श्री शिवानन्द जी महाराज...परमहँस से फ़ोन न 0 9639892934 पर बात कर सकते हैं ।

7 टिप्‍पणियां:

pintu dk ने कहा…

मोक्षद्वार

कहते हैं कि महाभारत धर्म युद्ध के बाद राजसूर्य यज्ञ सम्पन्न करके पांचों पांडव भाई महानिर्वाण प्राप्त करने को अपनी जीवन यात्रा पूरी करते हुए मोक्ष के लिये हरिद्वार तीर्थ आये। गंगा जी के तट पर ‘हर की पैड़ी‘ के ब्रह्राकुण्ड मे स्नान के पश्चात् वे पर्वतराज हिमालय की सुरम्य कन्दराओं में चढ़ गये ताकि मानव जीवन की एकमात्र चिरप्रतीक्षित अभिलाषा पूरी हो और उन्हे किसी प्रकार मोक्ष मिल जाये।
हरिद्वार तीर्थ के ब्रह्राकुण्ड पर मोक्ष-प्राप्ती का स्नान वीर पांडवों का अनन्त जीवन के कैवल्य मार्ग तक पहुंचा पाया अथवा नहीं इसके भेद तो मुक्तीदाता परमेश्वर ही जानता है-तो भी श्रीमद् भागवत का यह कथन चेतावनी सहित कितना सत्य कहता है; ‘‘मानुषं लोकं मुक्तीद्वारम्‘‘ अर्थात यही मनुष्य योनी हमारे मोक्ष का द्वार है।
मोक्षः कितना आवष्यक, कैसा दुर्लभ !
मोक्ष की वास्तविक प्राप्ती, मानव जीवन की सबसे बड़ी समस्या तथा एकमात्र आवश्यकता है। विवके चूड़ामणि में इस विषय पर प्रकाष डालते हुए कहा गया है कि,‘‘सर्वजीवों में मानव जन्म दुर्लभ है, उस पर भी पुरुष का जन्म। ब्राम्हाण योनी का जन्म तो दुश्प्राय है तथा इसमें दुर्लभ उसका जो वैदिक धर्म में संलग्न हो। इन सबसे भी दुर्लभ वह जन्म है जिसको ब्रम्हा परमंेश्वर तथा पाप तथा तमोगुण के भेद पहिचान कर मोक्ष-प्राप्ती का मार्ग मिल गया हो।’’ मोक्ष-प्राप्ती की दुर्लभता के विषय मे एक बड़ी रोचक कथा है। कोई एक जन मुक्ती का सहज मार्ग खोजते हुए आदि शंकराचार्य के पास गया। गुरु ने कहा ‘‘जिसे मोक्ष के लिये परमेश्वर मे एकत्व प्राप्त करना है; वह निश्चय ही एक ऐसे मनुष्य के समान धीरजवन्त हो जो महासमुद्र तट पर बैठकर भूमी में एक गड्ढ़ा खोदे। फिर कुशा के एक तिनके द्वारा समुद्र के जल की बंूदों को उठा कर अपने खोदे हुए गड्ढे मे टपकाता रहे। शनैः शनैः जब वह मनुष्य सागर की सम्पूर्ण जलराषी इस भांति उस गड्ढे में भर लेगा, तभी उसे मोक्ष मिल जायेगा।’’
मोक्ष की खोज यात्रा और प्राप्ती
आर्य ऋषियों-सन्तों-तपस्वियों की सारी पीढ़ियां मोक्ष की खोजी बनी रहीं। वेदों से आरम्भ करके वे उपनिषदों तथा अरण्यकों से होते हुऐ पुराणों और सगुण-निर्गुण भक्ती-मार्ग तक मोक्ष-प्राप्ती की निश्चल और सच्ची आत्मिक प्यास को लिये बढ़ते रहे। क्या कहीं वास्तविक मोक्ष की सुलभता दृष्टिगोचर होती है ? पाप-बन्ध मे जकड़ी मानवता से सनातन परमेश्वर का साक्षात्कार जैसे आंख-मिचौली कर रहा है;

pintu dk ने कहा…

खोजयात्रा निरन्तर चल रही। लेकिन कब तक ? कब तक ?......... ?
ऐसी तिमिरग्रस्त स्थिति में भी युगान्तर पूर्व विस्तीर्ण आकाष के पूर्वीय क्षितिज पर एक रजत रेखा का दर्शन होता है। विष्व इतिहास साक्षी देता है कि लगभग दो हजार वर्ष पूर्व, ऐसे समय जब कि सभी प्रमुख धार्मिक दर्षन अपने षिखर पर पहंुच चुके थे, यूनानी, सांख्य वेदान्त योग, यहूदी, जैन, बौद्ध, फारसी तथा अन्य सभी दर्शन और उनका सूर्य ढलने भी लगा था, मानवता आत्मिक क्षितिज पर बुझी जा रही थी, तब परमेश्वर पिता ने स्वंय को प्रभु यीशू ख्रीष्ट में देहधारी करके ‘पूर्णावतार’ लिया। वह इस लिये प्रकट हुआ ताकि मानव जाति के कर्मदण्ड तथा मृत्युबन्ध को उठा कर क्रूस की यज्ञस्थली पर अपने बलिदान के द्वारा स्वंय भोग ले। उसने ऋग्वेद के ‘त्राता’ तथा ‘पितृतमः पितृगा’-सारे पिताओं से भी श्रेष्ठ त्राणदाता परमपिता के सम्बोधन को स्वंयं मानव देह मे अवतरण लेकर हमारे लिये नियुक्त पापजन्य मृत्यू को सहते हुए पूरा किया।
मोक्षदाता प्रभु यीशू ख््राीष्टः निष्कलंक पूर्णावतार:-
हमारे भारत देष आर्यावृत का जन-जन और कण-कण अपने सृजनहार जीवित परमेश्वर का भूखा
-प्यासा है। वैदिक प्रार्थनायें तथा उपनिषदों की ऋचाएं उसी पुरषोत्तम पतित-पावन को पुकारती रही है। पृथ्वी पर छाये संकटो को मिटाने हेतु बहुतेरे महापुरुष, भविष्यद्वक्ता, सन्त-महन्त या राजा-महाराजा जन्मे लेकिन पाप के अमिट मृत्यूदंश से छुटकारा दिलाकर पूरा पूरा उद्धार देने वाले निष्कलंक पूर्णावतार प्रेमी परमेश्वर की इस धरती के हर कोने में प्रतीक्षा थी।
तब अन्धकार मे डूबी एक रात के आंचल से भोर का सितारा उदय हुआ। स्वयं अनादि और अनन्त परमेश्वर ने प्रथम और अन्तिम बार पाप मे जकड़ी असहाय मानवता के प्रति प्रेम में विवश होकर पूर्णावतार लिया, जिसकी प्रतीक्षा प्रकृति एंव प्राणीमात्र को थी। वैदिक ग्रन्थों का उपास्य ‘वाग् वै ब्रम्हा’ अर्थात् वचन ही परमेश्वर है (बृहदोरण्यक उपनिषद् 1ः3,29, 4ः1,2 ), ‘शब्दाक्षरं परमब्रम्हा’ अर्थात् शब्द ही अविनाशी परमब्रम्हा है (ब्रम्हाबिन्दु उपनिषद 16), समस्त ब्रम्हांड की रचना करने तथा संचालित करने वाला परमप्रधान नायक (ऋगवेद 10ः125)पापग्रस्त मानव मात्र को त्राण देने निष्पाप देह मे धरा पर आ गया।
ईशमूर्तिः ईश पुत्र यीशु ख्रीष्ट:-
प्रमुख हिन्दू पुराणों में से एक संस्कृत-लिखित भविष्यपुराण (सम्भावित रचनाकाल 7वीं शाताब्दी ईस्वी)के प्रतिसर्ग पर्व, भरत खंड में इस निश्कलंक देहधारी का स्पष्ट दर्शन वर्णित है, जिसका संक्षिप्तिकरण इस प्रकार है:-

pintu dk ने कहा…

ईशमूर्तिह्न ‘दि प्राप्ता नित्यषुद्धा शिवकारी।
ईशा मसीह इतिच मम नाम प्रतिष्ठतम्।। 31 पद

अर्थात ‘जिस परमेश्वर का दर्शन सनातन,पवित्र, कल्याणकारी एवं मोक्षदायी है, जो ह्रदय मे निवास करता है, उसी का नाम ईसामसीह अर्थात् अभिषिक्त मुक्तीदाता प्रतिष्ठित किया गया।’
पुराण ने इस उद्धारकर्ता पूर्णावतार का वर्णन करते हुए उसे ‘पुरुश शुभम्’ (निश्पाप एवं परम पवित्र पुरुष )बलवान राजा गौरांग श्वेतवस्त्रम’(प्रभुता से युक्त राजा, निर्मल देहवाला, श्वेत परिधान धारण किये हुए )
ईश पुत्र (परमेश्वर का पुत्र ), ‘कुमारी गर्भ सम्भवम्’ (कुमारी के गर्भ से जन्मा )और ‘सत्यव्रत परायणम्’ (सत्य-मार्ग का प्रतिपालक ) बताया है।
मुक्तीदाता प्रभु यीशू ख््राीष्ट के देहधारी परमेश्वरत्व की उद्घोषणा केवल भारत के आर्यग्रन्थ ही नही करते ! अतिप्राचीन यहूदी ग्रन्थ ‘पुराना नियम’ प्रभु ख््राीष्ट के देहधारण से 700 वर्ष पूर्व साक्षी देता है-‘जिसमे कोई पाप नहीं था’ (यशायाह 53ः9),‘जो कुमारी से जन्मेगा तथा उसका नाम इम्मानुएल अर्थात् ‘परमेश्वर हमारे साथ में रखा जायेगा (यषायाह 7ः14)।
इस्लाम भी अपने प्रमुख ग्रन्थ ‘कुरान शरीफ’ के सूरा-ए-मरियम खण्ड में प्रभू यीशू ख््राीष्ट को ‘रुह अल्लाह‘ (आत्मरुप परमेश्वर का देहधारण)तथा उसकी कुमारी माता मरियम को मनुष्यों के बीच सब नारियों मे परम पवित्र घोषित करतें हैं।
क्या शाश्वत और अद्वैत परमेश्वर देहधारी हुआ, उसके प्रकट प्रमाण और चिन्ह क्या होंगें, शास्त्र उसे पहिचान की कुछ विशेषतायें इस प्रकार बताते हैं:-
स्नातन शब्द-ब्रम्हा तथा सृष्टीकर्ता, सर्वज्ञ, निष्पापदेही, सच्चिदानन्द त्रिएक पिता, महान कर्मयोगी, सिद्ध ब्रम्हचारी, अलौकिक सन्यासी, जगत का पाप वाही, यज्ञ पुरुष, अद्वैत तथा अनुपम प्रीति करने वाला। परमेश्वर के पवित्र वचन बाइबल के ‘नया नियम’ में देहधारी परमेश्वर की ये सभी तथा अन्य अनेक विशेषतायें प्रभू यीशू ख््राीष्ट के पतित-पावन व्यक्तित्व में सम्पूर्णता सहित उपस्थित तथा विस्तृत प्रमाणों द्वारा स्वयं सिद्ध है।
मोक्षः केवल यीशू ख््राीष्ट में:-
परमेश्वर का पवित्र वचन प्रभु ख््राीष्ट द्वारा प्रदत्त मोक्ष के विषय में इस प्रकार कहता है, ‘‘पूर्वयुग में परमेश्वर ने बाप दादो से थोड़ा-थोड़ा करके और भांति-भांति से भविष्यद्वकताओं द्वारा बातें करके इन दिनों के अन्त में हमसे पुत्र (त्रिएक परमेश्वर का देहधारी स्वरुप प्रभु ख््राीष्ट)के द्वारा बातें कीं, जिसे उसने (परमेश्वर ) ने सारी वस्तुओं का वारिस ठहराया और उसी के द्वारा उसने सारी सृष्टि रची है। वह उसकी महिमा का प्रकाश और उसके तत्व की छाप है...‘‘मार्ग और सच्चाई और जीवन मै ही हूं बिना मेरे द्वारा कोई पिता (परमेश्वर )के पास अर्थात स्वर्ग में नही पहुंच सकता।’’....‘‘अब जो ख््राीष्ट यीशु मे है, उन पर दण्ड की (पाप से उत्पन्न मृत्यू की ) आज्ञा नही है।’’...‘‘क्योंकि पाप की मजदूरी मृत्यू है परन्तू परमेश्वर का वरदान हमारे प्रभू ख््राीष्ट यीशु में अनन्त जीवन है।’’ इब्रानियो 1ः1-3, यहुन्ना 14ः6, रोमियो 8ः1, 6ः23 )।

pintu dk ने कहा…

प्रिय मित्र! क्या आप मोक्ष मार्ग के राही हैं ? क्या आपका प्राण सदा से जीविते परमेश्वर का प्यासा रहा है ? केवल प्रभू ख््राीष्ट में आपके पापों से मुक्ती तथा परम शांति है। देहधारी परमेश्वर आपको इसी क्षण बुला रहा है; ‘‘ हे पृथ्वी के दूर-दूर के देश के रहने वालो, तुम मेरी ओर फिरो और उद्धार मोक्ष पाओ! क्योंकि मै ही ईश्वर हंू और दूसरा कोई और नही है।.... जो कोई उस प्रभू यीषु ख््राीष्ट पर विश्वास करे, वह नाश न होगा, परन्तु अनन्त जीवन पायेगा’’ यशायाह 45ः22 तथा यहुन्ना 3ः16।
मुक्ती कहीं और नही -केवल प्रभू ख््राीष्ट में है। मुक्ती पाने के लिये आप कमरे में जांयें घुटने टेक कर यीषु मसीह से प्रार्थना करें ह्रदय की गहराइयों से पुकार कर कहें कि यीशु मेरे पापों को क्षमा कर आज से मै तुझे अपना जीवन समर्पित करता हूं आप आज से मेरे प्रभू और उद्धारकर्ता हैं। आज से मै आपके बताये रास्ते पर चलूंगां आप मुझे अपना दर्शन दें मै आपको देखना चाहता हूं। यीशु मसीह को पाना बहुत सरल है यीशु आपके पास आयेंगें आपको गले से लगा लेंगें। तब आपको एक बिलकुल नया अनुभव होगा आपको एसी अलौकिक शांति मिलेगी जिसका अनुभव बता पाना कठिन है उसको वर्णन नही कर सकते हैं। और आपकी सारी बिमारियां भाग जायेंगीं। सारी शैतानी शक्ती आपसे दूर चली जायेंगी। आप नये जन्मे बच्चे सा अनुभव करेंगें। अभी तक आपने पढ़ा या सुना होगा या किसी ने अपने ढ़ग से बताया होगा जो कि मात्र कपोल कल्पना है । मगर यीशू मसीह को आप जानने के लिये ऊपर बताये गये नियम के द्वारा प्रेक्टिकल कर सकते है। और अनन्त जीवन जो कि इसी मनुष्य योनि मे है प्राप्त कर सकते है। ‘‘मानुशं लोकं मुक्तीद्वारम्‘‘ अर्थात यही मनुष्य योनी हमारे मोक्ष का द्वार है।
हमारी प्रार्थना है कि परमेश्वर आपको इस विश्वास में स्थिर और सिद्ध करे।

अश्रद्धा परम पापं श्रद्धा पापमोचिनी महाभारत शांतिपर्व 264ः15-19 अर्थात ‘अविश्वासी होना महापाप है, लेकिन विश्वास पापों को मिटा देता है।’

पंडित धर्म प्रकाश शर्मा
गनाहेड़ा रोड, पो. पुष्कर तीर्थ
राजस्थान-305 022
अधिक जानकारी के लिये लिखें:- स्पीड-द-गुड न्यूज क्रूसेड
3387,क्रिश्चियन कालोनी
करोल बाग, नई दिल्ली-110005

बेनामी ने कहा…

धर्म का उद्देश्य - मानव समाज में सत्य, न्याय एवं नैतिकता (सदाचरण) की स्थापना करना ।
व्यक्तिगत (निजी) धर्म- सत्य, न्याय एवं नैतिक दृष्टि से उत्तम कर्म करना, व्यक्तिगत धर्म है ।
सामाजिक धर्म- मानव समाज में सत्य, न्याय एवं नैतिकता की स्थापना के लिए कर्म करना,
सामाजिक धर्म है । ईश्वर या स्थिर बुद्धि मनुष्य सामाजिक धर्म को पूर्ण रूप से निभाते है ।
धर्म संकट - जब सत्य और न्याय में विरोधाभास होता है, उस स्थिति को धर्मसंकट कहा
जाता है । उस स्थिति में मानव कल्याण व मानवीय मूल्यों की दृष्टि से सत्य और
न्याय में से जो उत्तम हो, उसे चुना जाता है ।
धर्म को अपनाया नहीं जाता, धर्म का पालन किया जाता है ।
व्यक्ति के कत्र्तव्य पालन की दृष्टि से धर्म -
राजधर्म, राष्ट्रधर्म, प्रजाधर्म, पितृधर्म, पुत्रधर्म ।
धर्म सनातन है भगवान शिव (त्रिमूर्ति) से लेकर इस क्षण तक ।
राजतंत्र होने पर धर्म का पालन राजतांत्रिक मूल्यों से, लोकतंत्र होने पर धर्म का पालन
लोकतांत्रिक मूल्यों के हिसाब से किया जाना चाहिए है ।

बेनामी ने कहा…

वर्तमान युग में पूर्ण रूप से धर्म के मार्ग पर चलना किसी भी आम मनुष्य के लिए कठिन कार्य है । इसलिए मनुष्य को सदाचार एवं मानवीय मूल्यों के साथ जीना चाहिए एवं मानव कल्याण के बारे सोचना चाहिए । इस युग में यही बेहतर है ।

बेनामी ने कहा…

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