15 अप्रैल 2010

रामायण सार दोहे

राम चरित सत कोटि अपारा। श्रुति सारदा न बरने पारा।।
राम चरित जे सुनत अघाहीं। रस बिसेष जाना तिन्ह नाहीं।।
नर सहस्त्र महं सुनहु पुरारी। कोउ एक होइ धर्म ब्रतधारी।।
धर्मसील कोटिक महं कोई। बिषय बिमुख बिराग रत होई।।
कोटि बिरक्त मध्य श्रुति कहई। सम्यक ग्यान सकृत कोउ लहई।।
ग्यानवंत कोटिक महं कोऊ। जीवनमुक्त सकृत जग सोऊ।।
तिन्ह सहस्त्र महुं सब सुख खानी। दुर्लभ ब्रह्मलीन बिग्यानी।।
धर्मसील बिरक्त अरु ग्यानी। जीवनमुक्त ब्रह्मपर प्रानी।।
सब ते सो दुर्लभ सुरराया। राम भगति रत गत मद माया।।
माया कृत गुन दोष अनेका। मोह मनोज आदि अबिबेका।।
तबहि होइ सब संसय भंगा। जब बहु काल करिअ सतसंगा।।
मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा। किए जोग तप ग्यान बिरागा।।
कछु तेहि ते पुनि मैं नहिं राखा। समुझइ खग खगही के भाषा।।
मोह न अंध कीन्ह केहि केही। को जग काम नचाव न जेही।।
तृषना केहि न कीन्ह बौराहा। केहि कर हृदय क्रोध नहिं दाहा।।
मोह न अंध कीन्ह केहि केही। को जग काम नचाव न जेही।।
तृषना केहि न कीन्ह बौराहा। केहि कर हृदय क्रोध नहिं दाहा।।
ग्यानी तापस सूर कबि कोबिद गुन आगार।
केहि के लोभ बिडंबना कीन्हि न एहि संसार।।

श्री मद बक्र न कीन्ह केहि प्रभुता बधिर न काहि। मृगलोचनि के नैन सर को अस लाग न जाहि।।
गुन कृत सन्यपात नहि केही। कोउ न मान मद तजेउ निबेही।।
जोबन ज्वर केहि नहिं बलकावा। ममता केहि कर जस न नसावा।।
मच्छर काहि कलंक न लावा। काहि न सोक समीर डोलावा।।
चिंता सांपिनि को नहिं खाया। को जग जाहि न ब्यापी माया।।
कीट मनोरथ दारु सरीरा। जेहि न लाग घुन को अस धीरा।।
सुत बित लोक ईषना तीनी। केहि के मति इन्ह कृत न मलीनी।।
यह सब माया कर परिवारा। प्रबल अमिति को बरने पारा।।
सिव चतुरानन जाहि डेराहीं। अपर जीव केहि लेखे माहीं।।
ब्यापि रहेउ संसार महु माया कटक प्रचंड।। सेनापति कामादि भट दंभ कपट पाखंड।।
सो दासी रघुबीर के समुझे मिथ्या सोपि। छूट न राम कृपा बिनु नाथ कहउ पद रोपि।।
जो माया सब जगहि नचावा। जासु चरित लखि काहु न पावा।।
सोइ प्रभु भ्रू बिलास खगराजा। नाच नटी इव सहित समाजा।।
माया बस्य जीव अभिमानी। ईस बस्य माया गुनखानी।।
परबस जीव स्वबस भगवंता। जीव अनेक एक श्रीकंता।।
मुधा भेद जद्यपि कृत माया। बिनु हरि जाइ न कोटि उपाया।।
ऐसेहि हरि बिनु भजन खगेसा। मिटइ न जीवन्ह केर कलेसा।।
हरि सेवकहि न ब्याप अबिद्या। प्रभु प्रेरित ब्यापइ तेहि बिद्या।।
भगति हीन गुन सब सुख ऐसे। लवन बिना बहु बिंजन जैसे।।
मम माया संभव संसारा। जीव चराचर बिबिधि प्रकारा।।
सब मम प्रिय सब मम उपजाए। सब ते अधिक मनुज मोहि भाए।।
भगति हीन बिरंचि किन होई। सब जीवहु सम प्रिय मोहि सोई।।
भगतिवंत अति नीचउ प्रानी। मोहि प्रानप्रिय असि मम बानी।।
अखिल बिस्व यह मोर उपाया। सब पर मोहि बराबरि दाया।।
तिन्ह मंह जो परिहरि मद माया। भजे मोहि मन बच अरू काया।।
पुरूष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोइ। सर्ब भाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ।।
कबहू काल न ब्यापिहि तोही। सुमिरेसु भजेसु निरंतर मोही।।
तब ते मोहि न ब्यापी माया। जब ते रघुनायक अपनाया।।
निज अनुभव अब कहउ खगेसा। बिनु हरि भजन न जाहि कलेसा।।
राम कृपा बिनु सुनु खगराई। जानि न जाइ राम प्रभुताई।।
जानें बिनु न होइ परतीती। बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती।।
प्रीति बिना नहिं भगति दिढ़ाई। जिमि खगपति जल के चिकनाई।।
बिनु संतोष न काम नसाहीं। काम अछत सुख सपनेहु नाहीं।।
राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा। थल बिहीन तरु कबहु कि जामा।।
बिनु बिग्यान कि समता आवइ। कोउ अवकास कि नभ बिनु पावइ।।
श्रद्धा बिना धर्म नहिं होई। बिनु महि गंध कि पावइ कोई।।
बिनु तप तेज कि कर बिस्तारा। जल बिनु रस कि होइ संसारा।।
सील कि मिल बिनु बुध सेवकाई। जिमि बिनु तेज न रूप गोसाई।।
निज सुख बिनु मन होइ कि थीरा। परस कि होइ बिहीन समीरा।।
कवनिउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा। बिनु हरि भजन न भव भय नासा।।
बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहि न राम।
राम कृपा बिनु सपनेहु जीव न लह बिश्रामु।।
कहेउ न कछु करि जुगुति बिसेषी। यह सब मैं निज नयनन्हि देखी।।
गुर बिनु भव निधि तरइ न कोई। जो बिरंचि संकर सम होई।।
अग जग जीव नाग नर देवा। नाथ सकल जगु काल कलेवा।।
कवन जोनि जनमेउ जहं नाहीं। मैं खगेस भ्रमि भ्रमि जग माहीं।।
बरन धर्म नहिं आश्रम चारी। श्रुति बिरोध रत सब नर नारी।।
द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन। कोउ नहिं मान निगम अनुसासन।।
मारग सोइ जा कहु जोइ भावा। पंडित सोइ जो गाल बजावा।।
मिथ्यारंभ दंभ रत जोई। ता कहु संत कहइ सब कोई।।
सोइ सयान जो परधन हारी। जो कर दंभ सो बड़ आचारी।।
जो कह झूठ मसखरी जाना। कलिजुग सोइ गुनवंत बखाना।।
निराचार जो श्रुति पथ त्यागी। कलिजुग सोइ ग्यानी सो बिरागी।।
जाके नख अरु जटा बिसाला। सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला।।
नारि बिबस नर सकल गोसाई। नाचहिं नट मर्कट की नाई।।
गुन मंदिर सुंदर पति त्यागी। भजहिं नारि पर पुरुष अभागी।।
सौभागिनी बिभूषन हीना। बिधवन्ह के सिंगार नबीना।।
गुर सिष बधिर अंध का लेखा। एक न सुनइ एक नहिं देखा।।
हरइ सिष्य धन सोक न हरई। सो गुर घोर नरक महु परई।।
मातु पिता बालकन्हि बोलाबहिं। उदर भरे सोइ धर्म सिखावहिं।।
नारि मुई गृह संपति नासी। मूड़ मुड़ाइ होहिं सन्यासी।।
सब नर कल्पित करहिं अचारा। जाइ न बरनि अनीति अपारा।।
कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भए सदग्रंथ।
दंभिन्ह निज मति कल्पि करि प्रगट किए बहु पंथ।।
भए लोग सब मोहबस लोभ ग्रसे सुभ कर्म।
सुनु हरिजान ग्यान निधि कहंउ कछुक कलिधर्म।।
सुत मानहिं मातु पिता तब लों। अबलानन दीख नहीं जब लों।।
ससुरारि पिआरि लगी जब तें। रिपरूप कुटुंब भए तब तें
सुख चाहहि मूढ़ न धर्म रता। मति थोरि कठोरि न कोमलता।।
नर पीड़ित रोग न भोग कहीं। अभिमान बिरोध अकारनहीं।।
लघु जीवन संबतु पंच दसा। कलपांत न नास गुमानु असा।।
कलिकाल बिहाल किए मनुजा। नहिं मानत कोऊ अनुजा तनुजा।
नहिं तोष बिचार न सीतलता। सब जाति कुजाति भए मगता।।
तनु पोषक नारि नरा सगरे। परनिंदक जे जग मो बगरे।।
सुनु ब्यालारि काल कलि मल अवगुन आगार।
गुनउ बहुत कलिजुग कर बिनु प्रयास निस्तार
कृतजुग त्रेता द्वापर पूजा मख अरु जोग।
जो गति होइ सो कलि हरि नाम ते पावहिं लोग
कृतजुग सब जोगी बिग्यानी। करि हरि ध्यान तरहिं भव प्रानी।।
त्रेता बिबिध जग्य नर करहीं। प्रभुहि समर्पि कर्म भव तरहीं।।
द्वापर करि रघुपति पद पूजा। नर भव तरहिं उपाय न दूजा।।
कलिजुग केवल हरि गुन गाहा। गावत नर पावहिं भव थाहा।।
कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना। एक अधार राम गुन गाना।।
सोइ भव तर कछु संसय नाहीं। नाम प्रताप प्रगट कलि माहीं।।
कलि कर एक पुनीत प्रतापा। मानस पुन्य होहिं नहिं पापा।।
नित जुग धर्म होहि सब केरे। हृदय राम माया के प्रेरे।।
सुद्ध सत्व समता बिग्याना। कृत प्रभाव प्रसन्न मन जाना।।
सत्व बहुत रज कछु रति कर्मा। सब बिधि सुख त्रेता कर धर्मा।।
बहु रज स्वल्प सत्व कछु तामस। द्वापर धर्म हरष भय मानस।।
तामस बहुत रजोगुन थोरा। कलि प्रभाव बिरोध चहु ओरा।।
हरि माया कृत दोष गुन बिनु हरि भजन न जाहिं।
भजिअ राम तजि काम सब अस बिचारि मन माहिं।।
अधम जाति मैं बिद्या पाए। भयउ जथा अहि दूध पिआए।।
जेहि ते नीच बड़ाई पावा। सो प्रथमहि हति ताहि नसावा।।
धूम अनल संभव सुनु भाई। तेहि बुझाव घन पदवी पाई।।
रज मग परी निरादर रहई। सब कर पद प्रहार नित सहई।।
मरुत उड़ाव प्रथम तेहि भरई। पुनि नृप नयन किरीटन्हि परई।।
सुनु खगपति अस समुझि प्रसंगा। बुध नहिं करहिं अधम कर संगा।।
कबि कोबिद गावहिं असि नीती। खल सन कलह न भल नहिं प्रीती।।
जे सठ गुर सन इरिषा करहीं। रौरव नरक कोटि जुग परहीं।।
जेहि पूछउ सोइ मुनि अस कहई। ईस्वर सर्ब भूतमय अहई।।
अति संघरषन जो कर कोई। अनल प्रगट चंदन ते होई।।
कबहु कि दुख सब कर हित ताके। तेहि कि दरिद्र परस मनि जाके।।
परद्रोही की होहिं निसंका। कामी पुनि कि रहहिं अकलंका।।
बंस कि रह द्विज अनहित कीन्हे। कर्म कि होहि स्वरूपहि चीन्हे।।
काहू सुमति कि खल संग जामी। सुभ गति पाव कि परत्रिय गामी।।
भव कि परहिं परमात्मा बिंदक। सुखी कि होहि कबहु हरिनिंदक।।
राजु कि रहइ नीति बिनु जानें। अघ कि रहहिं हरिचरित बखानें।।
पावन जस कि पुन्य बिनु होई। बिनु अघ अजस कि पावइ कोई।।
लाभु कि किछु हरि भगति समाना। जेहि गावहि श्रुति संत पुराना।।
हानि कि जग एहि सम किछु भाई। भजिअ न रामहि नर तनु पाई।।
अघ कि पिसुनता सम कछु आना। धर्म कि दया सरिस हरिजाना।।
राम भगति जिन्ह कें उर नाहीं। कबहु न तात कहिअ तिन्ह पाहीं।।
जो इच्छा करिहहु मन माहीं। हरि प्रसाद कछु दुर्लभ नाहीं।।
जे असि भगति जानि परिहरहीं। केवल ग्यान हेतु श्रम करहीं।।
ते जड़ कामधेनु गृह त्यागी। खोजत आकु फिरहिं पय लागी।।
सुनु खगेस हरि भगति बिहाई। जे सुख चाहहिं आन उपाई।।
ग्यानहि भगतिहि अंतर केता। सकल कहहु प्रभु कृपा निकेता
मोह न नारि नारि के रूपा। पन्नगारि यह रीति अनूपा।।
माया भगति सुनहु तुम्ह दोऊ। नारि बर्ग जानइ सब कोऊ।।
पुनि रघुबीरहि भगति पिआरी। माया खलु नर्तकी बिचारी।।
भगतिहि सानुकूल रघुराया। ताते तेहि डरपति अति माया।।
तेहि बिलोकि माया सकुचाई। करि न सकइ कछु निज प्रभुताई।।
सुनहु तात यह अकथ कहानी। समुझत बनइ न जाइ बखानी।।
ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी।।
सो मायाबस भयउ गोसाईं। बंध्यो कीर मरकट की नाई।।
जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई। जदपि मृषा छूटत कठिनई।।
तब ते जीव भयउ संसारी। छूट न ग्रंथि न होइ सुखारी।।
श्रुति पुरान बहु कहेउ उपाई। छूट न अधिक अधिक अरुझाई।।
जीव हृदय तम मोह बिसेषी। ग्रंथि छूट किमि परइ न देखी।।
अस संजोग ईस जब करई। तबहु कदाचित सो निरुअरई।।
सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा। दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा।।
आतम अनुभव सुख सुप्रकासा। तब भव मूल भेद भ्रम नासा।।
प्रबल अबिद्या कर परिवारा। मोह आदि तम मिटइ अपारा।।
तब सोइ बुद्धि पाइ उजिआरा। उर गृह बैठि ग्रंथि निरुआरा।।
छोरन ग्रंथि पाव जो सोई। तब यह जीव कृतारथ होई।।
छोरत ग्रंथि जानि खगराया। बिघ्न अनेक करइ तब माया।।
रिद्धि सिद्धि प्रेरइ बहु भाई। बुद्धहि लोभ दिखावहिं आई।।
कल बल छल करि जाहि समीपा। अंचल बात बुझावहि दीपा।।
होइ बुद्धि जो परम सयानी। तिन्ह तन चितव न अनहित जानी।।
जो तेहि बिघ्न बुद्धि नहिं बाधी। तो बहोरि सुर करहिं उपाधी।।
इंद्री द्वार झरोखा नाना। तहं तहं सुर बैठे करि थाना।।
आवत देखहिं बिषय बयारी। ते हठि देही कपाट उघारी।।
जब सो प्रभंजन उर गृह जाई। तबहिं दीप बिग्यान बुझाई।।
ग्रंथि न छूटि मिटा सो प्रकासा। बुद्धि बिकल भइ बिषय बतासा।।
इंद्रिन्ह सुरन्ह न ग्यान सोहाई। बिषय भोग पर प्रीति सदाई।।
ग्यान पंथ कृपान के धारा। परत खगेस होइ नहिं बारा।।
जो निर्बिघ्न पंथ निर्बहई। सो कैवल्य परम पद लहई।।
जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई। कोटि भांति कोउ करे उपाई।।
तथा मोच्छ सुख सुनु खगराई। रहि न सकइ हरि भगति बिहाई।।
अस बिचारि हरि भगत सयाने। मुक्ति निरादर भगति लुभाने।।
भगति करत बिनु जतन प्रयासा। संसृति मूल अबिद्या नासा।।
परम प्रकास रूप दिन राती। नहिं कछु चहिअ दिआ घृत बाती।।
मोह दरिद्र निकट नहिं आवा। लोभ बात नहिं ताहि बुझावा।।
प्रबल अबिद्या तम मिटि जाई। हारहिं सकल सलभ समुदाई।।
खल कामादि निकट नहिं जाहीं। बसइ भगति जाके उर माहीं।।
गरल सुधासम अरि हित होई। तेहि मनि बिनु सुख पाव न कोई।।
ब्यापहिं मानस रोग न भारी। जिन्ह के बस सब जीव दुखारी।।
राम भगति मनि उर बस जाके। दुख लवलेस न सपनेहु ताके।।
चतुर सिरोमनि तेइ जग माहीं। जे मनि लागि सुजतन कराहीं।।
भाव सहित खोजइ जो प्रानी। पाव भगति मनि सब सुख खानी।।
मोरे मन प्रभु अस बिस्वासा। राम ते अधिक राम कर दासा।।
सब कर फल हरि भगति सुहाई। सो बिनु संत न काहू पाई।।
अस बिचारि जोइ कर सतसंगा। राम भगति तेहि सुलभ बिहंगा।।
नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही।।
नरग स्वर्ग अपबर्ग निसेनी। ग्यान बिराग भगति सुभ देनी।।
सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर। होहिं बिषय रत मंद मंद तर।।
काँच किरिच बदले ते लेही। कर ते डारि परस मनि देही।।
नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं। संत मिलन सम सुख जग नाहीं।।
पर उपकार बचन मन काया। संत सहज सुभाउ खगराया।।
परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा। पर निंदा सम अघ न गरीसा।।
हर गुर निंदक दादुर होई। जन्म सहस्त्र पाव तन सोई।।
द्विज निंदक बहु नरक भोग करि। जग जनमइ बायस सरीर धरि।।
सुर श्रुति निंदक जे अभिमानी। रौरव नरक परहिं ते प्रानी।।
होहिं उलूक संत निंदा रत। मोह निसा प्रिय ग्यान भानु गत।।
सब के निंदा जे जड़ करहीं। ते चमगादुर होइ अवतरहीं।।
सुनहु तात अब मानस रोगा। जिन्ह ते दुख पावहिं सब लोगा।।
मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला।।
काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा।।
प्रीति करहिं जो तीनिउ भाई। उपजइ सन्यपात दुखदाई।।
बिषय मनोरथ दुर्गम नाना। ते सब सूल नाम को जाना।।
ममता दादु कंडु इरषाई। हरष बिषाद गरह बहुताई।।
पर सुख देखि जरनि सोइ छई। कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई।।
तृषना उदरबृद्धि अति भारी। त्रिबिध ईषना तरुन तिजारी।।
राम कृपा नासहि सब रोगा। जो एहि भांति बने संयोगा।।
सदगुर वैद बचन बिस्वासा। संजम यह न बिषय के आसा।।
रघुपति भगति सजीवन मूरी। अनूपान श्रद्धा मति पूरी।।
एहि बिधि भलेहिं सो रोग नसाहीं। नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं।।
कमठ पीठ जामहिं बरु बारा। बंध्या सुत बरु काहुहि मारा।।
फूलहिं नभ बरु बहुबिधि फूला। जीव न लह सुख हरि प्रतिकूला।।
तृषा जाइ बरु मृगजल पाना। बरु जामहिं सस सीस बिषाना।।
अंधकारु बरु रबिहि नसावे। राम बिमुख न जीव सुख पावे।।
हिम ते अनल प्रगट बरु होई। बिमुख राम सुख पाव न कोई।।
बारि मथे घृत होइ बरु सिकता ते बरु तेल।
बिनु हरि भजन न भव तरिअ यह सिद्धांत अपेल।।
मसकहि करइ बिंरंचि प्रभु अजहि मसक ते हीन।
अस बिचारि तजि संसय रामहि भजहिं प्रबीन।।
श्रुति सिद्धांत इहइ उरगारी। राम भजिअ सब काज बिसारी।।
सत संगति दुर्लभ संसारा। निमिष दंड भरि एकउ बारा।।
संत बिटप सरिता गिरि धरनी। पर हित हेतु सबन्ह के करनी।।
संत हृदय नवनीत समाना। कहा कबिन्ह परि कहे न जाना।।
निज परिताप द्रवइ नवनीता। पर दुख द्रवहिं संत सुपुनीता।।
जहं लगि साधन बेद बखानी। सब कर फल हरि भगति भवानी।।
सो रघुनाथ भगति श्रुति गाई। राम कृपा काहू एक पाई।।
सोइ कबि कोबिद सोइ रनधीरा। जो छल छाड़ि भजइ रघुबीरा।।
राम कथा के तेइ अधिकारी। जिन्ह कें सतसंगति अति प्यारी।।
अति हरि कृपा जाहि पर होई। पाउ देइ एहिं मारग सोई।।
कहहिं सुनहिं अनुमोदन करहीं। ते गोपद इव भवनिधि तरहीं।।
एहिं कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा।।
रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि। संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि।।
कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभहि प्रिय जिमि दाम।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम।।

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